नैतिक और आध्यात्मिक गुरुता के धनी कबीर

 

कबीर जयंती 2022 / 14 जून / लेख

नैतिक और आध्यात्मिक गुरुता के धनी कबीर

डॉ. एम. डी. थॉमस 

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14 जून को कबीर जयंती मनायी जा रही है। कबीर ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन पैदा हुए थे। माना जाता है कि कबीर 1398 और 1518 के बीच इस दुनिया में रहे। ऐसा भी माना जाता है कि कबीर काशी के लहरतारा ताल के आसपास प्रकट हुए थे। काशी का वर्तमान नाम उत्तर प्रदेश का ‘वाराणसी’ है। कबीर पेशे से जुलाहा थे। उनका पूरा नाम कबीरदास है। ‘दास’ शब्द ईश्वर की भक्ति में विनम्रता ज़ाहिर करते हुए भक्तिकाल के कई कवियों ने अपनाया था। 

कबीर एक बहु-आयामी शख्सियत रहे। वे कवि, गुरु, संत, दार्शनिक, चिंतक, समाज सुधारक, भक्त, रहस्यदर्शी, आदि एक साथ थे। कबीर एक क्रांतिकारी विचारक थे। वे विचार के अनुसार ही आचार भी करते थे। बेहतर समाज को तामीर करने की दिशा में आप अपने आप में एक ‘मौलिक और सटीक जीवनशैली की परंपरा’ बनकर उभरे, यह कबीर की अहमियत रही। भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी, कबीर का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। 

कबीर मध्यकाल के भक्त कवियों में सबसे ज़बर्दस्त और असरदार थे। परंपरा के अनुसार कबीर निर्गुण धारा के कवि थे। लेकिन, सच में, कबीर सगुण और निर्गुण दोनों धाराओं में तालमेल कायम कर दोनों से भी आगे पहुँचे। इसलिए उन्होंने अपने बारे में कहा था, ‘हद छाड़ि बेहदि गया, हुआ निरंतर वास’। याने, आप  इंसानी और खुदाई मूल्यों की साधना में सभी हदों को पार कर हदों के परे की दुनिया में पहुँचे और वहीं हमेशा के लिए रहते हैं। 

कबीर ने किसी पंथ की स्थापना की हो, ऐसा तो नहीं लगता। लेकिन, उनके नाम पर ‘कबीर पंथ’ मशहूर है और हज़ारों की तादाद में उसकी शाखाएँ खास तौर पर उत्तर भारत के कई प्रांतों में पायी भी जाती हैं। कबीर के अलग-अलग चेले थे तथा अपने गुरु की जीवन-दृष्टि और जीवन शैली को आगे बढ़ाने के लिए ये शाखाएँ उनके द्वारा चलायी गयी हैं, ऐसा मानना ही जायज लगता है। खैर, कबीर पंथ कोई अलग धर्म न होकर भी कुछ नये की हिमायती ज़रूर है।

कबीर भक्तिकाल के एकमात्र ऐसे कवि हैं, जिन्होंने ‘ज्ञान, भक्ति और कर्म’ तीनों प्रकार के योग को एक साथ लेकर काव्य के साथ-साथ ज़िंदगी की भी साधना की। आप सच्चे अर्थ में साहित्यकार थे। ‘साहित्य’ में ‘हित’ और ‘सहित’ दोनों का भाव होता है। कबीर समाज के साथ तल्लीन रहकर और समाज के हित या कल्याण को सामने रखकर कविताएँ की ही नहीं, समाज को भी नये सिरे से रचने का काम किया है। यह उनकी सार्वभौम खूबी रही।

‘सद्गुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार। लोचन अनंत उघाडि़या, अनंत दिखावणहार’।। मतलब है, सद्गुरु ने अपने चेलों में अनगिनत आँखें खोलीं हैं और अनंत या ईश्वर का दीदार करवाया है। चेलों का इतना बेहद उपकार करने वाले सदगुरु की महिमा बाकायदा अनंत है। सद्गुरु के बड़प्पन की यह तस्वीर कबीर पर पूरी तरह से खरी उतरती है, क्योंकि कबीर ने अपनी जीवन-साधना के बलबूते ‘सद्गुरु’ का यह कद हासिल किया था। 

कहा जाता है कि कबीर के गुरु स्वामी रामानंद थे। लेकिन कबीर-जैसे ‘सहज प्रतिभा’ को किसी गुरु की ज़रूरत रही हो, ऐसा तो नहीं लगता। हिंदू माँ और रामानंद स्वामी से हिंदू परंपरा से वाकिफ हुए। नीरू और नीमा नामक मुसलमान दंपत्ति कबीर के पालक पिता और माता रहे। लगता है कि कबीर नाम भी उन्हीं का दिया हुआ था।

कबीर शास्त्रीय ढंग से ‘पढ़े-लिखे’ नहीं थे। इसलिए, वे ‘कागद की लिखी’ के बजाय ‘आँखिन देखी’ को मानते थे। और किसी की ज़ुबानी बात को नहीं मानते हुए अपने भीतर पची हुई सत्य को ही मानते थे। उनकी भाषा ‘पंचमेल सधुक्कड़ी’ थी, जो कि अन्य साधुओं के साथ सत्संग करते हुए सीखी गयी मिली-जुली बोली है। ‘साखी’ या ‘दोहे’ कबीर की सबसे लोकप्रिय काव्य-विधा रही।

कबीर की कविताएँ इतनी लोकप्रिय हैं कि वे भारत के गाँवों के अनाड़ी लोगों की ज़ुबानों पर भी तरो-ताज़ा मिलती हैं। गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु नानक से भी ज्यादा कबीर की पंक्तियाँ शामिल की गयी हैं। रवींद्र नाथ टैगोर ने ‘वन हंड्रड पोएम्स ऑफ कबीर’ लिखकर कबीर को सार्वभौमदुनिया में बहुत लोकप्रिय बनाया।

तत्कालीन हिंदू और इस्लामी समुदायों में धर्म एक ‘मायाजाल और ढकोसला’ बनकर रह गया था। कबीर ने ‘जनेऊ और खतना’ जैसे दोनों धर्मों के बेतुकी कर्मकाण्ड पर उनके ठेकेदारों की जमकर खिंचाई की। आपने उन्हें ललकारते हुए कहा कि वे वेद और कुरान से भटक गये हैं।

कबीर ने तत्कालीन समाज के धार्मिक व नैतिक खोखलेपन को किस प्रकार उज़ागर किया था, उसे इन शब्दों में बयान किया जा सकता है। ‘जो लोग यह दावा करते थे कि दूसरे लोगों के स्वर्ग की कुंजी अपने हाथों में है, उनकी अपनी ज़िंदगी में कुछ भी स्वर्गिक नहीं था’। हाय, कैसी विडंबना है! कैसा विरोधाभास है!

इसलिए, हिंदू व मुसलमानी दोनों परंपराओं की अच्छाइयों को ग्रहण करते हुए भी उनकी बुराइयों की वजह से उनसे नाता तोड़कर​ कबीर ने कहा, ‘न हिंदू, न मुसलमान’। कबीर का कोई धर्म नहीं रहा। वे परम सत्ता की दिव्य साधना से एक भले और पहुँचे हुए ‘इंसान’ और परम सत्ता के साधक बनकर रहे।

कबीर ने ‘परम सत्ता’ के सबके लायक रूप को उज़ागर कर उसे सबके भीतर घटित कर दिया और कहा कि ‘खालिक खलक खलक में खालिक, सब घट रह्यो समाय’। याने, खुदा खुद में, खुद खुदा में और इस प्रकार सबमें जो मौज़ूद है वही ईश्वर है। इसलिए इंसान-इंसान को लेकर ‘ऊँच-नीच’ का भाव रखना ईश्वर, इंसान और धर्म का एक साथ अपमान है।

इतना ही नहीं, कबीर ने ‘ईश्वर, इन्सानियत और सत्य’ को एक घोषित कर हिंदू और मुसलमान को जोड़ने की कोशिश की। लेकिन उनके मरने के बाद भी वे बँटे रहे, यहाँ तक कि विद्वान भी खेमेबाज़ी से अछूते नहीं रहे।

कबीर आदि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन और स्वामी रामानंद की भक्ति परंपरा में एक साथ रमे रहे। उन्होंने ईश्वर और इंसान के बीच और इंसान और इंसान के बीच तालमेल को स्थापित करने के लिए एक असरदार नुस्खा पेश किया। वह है ‘बहता पानी निर्मला, बंदा गंदा होय। साधू जन रमता भला, दाग न लागै कोय’।। साधू, धार्मिक और इंसान दाग से बचे रहे, इसके लिए उन्हें ‘बहते पानी’ के समान एक-दूजे की ओर चलते रहना चाहिए।

कबीर जयंती के पुनीत मौके पर यही संकल्प किया जाय कि जाति, धर्म, भाषा, आदि से परे उठकर इन्सान इन्सानियत और ईस्वरता की साधना एक साथ करते रहे।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p). 

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