गरीबों की आज़ादी के साथ खिलवाड़?

 

गरीबों की आज़ादी के साथ खिलवाड़?

डॉ. एम. डी. थॉमस

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गरीबों की आज़ादी को लेकर 9 जुलाई 2021 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम् फैसला सुनाया। ‘‘गरीब व्यक्ति की आज़ादी अमीर व्यक्ति की आज़ादी से कमतर नहीं है’’। मतलब है, आज़ादी इन्सान की है, नागरिक की है, उसका अमीरी या गरीबी से कोई लेना-देना नहीं है। आमदनी या ओहदे को लेकर इन्सान-इन्सान में फर्क करना नैतिक मूल्यों का हनन है। अमीर-गरीब को लेकर मुआवजे में ज्यादा-कम करना कतई नीतिसंगत भी नहीं है।

संदर्भ यह है कि पिछले साल लॉक डाउन के दौरान दूध ले जाने वाली एक लॉरी के चालक को बिहार पुलिस ने गिरफ्तार कर बगैर एफआईआर दर्ज किये 35 दिनों तक अवैध रूप से अपनी हिरासत में रखा था। उस मामले में पटना उच्च न्यायालय ने 22 दिसंबर 2020 को चालक जितेंद्र कुमार को पाँच लाख रुपये मुआवजा देने का फैसला सुनाया था।

ट्रक चालक जितेंद्र कुमार को पाँच लाख का मुआवजा देने के आदेश पर एतराज जताते हुए बिहार राज्य सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक अपील दाखिल की गयी थी। उस अपील को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उपर्युक्त टिपणी की थी। जस्टिस चंद्रचूड़ और एम.आर. शाह की पीठ ने राज्य सरकार की तरफ से इस अपील को भी नाजायज करार किया।

राज्य सरकार ने गाड़ी चालक को हिरासत में लेने वाले एसएचओ को निलंबित कर विभागीय कार्रवाई तो की थी। लेकिन, राज्य सरकार की दलील थी कि उस चालक को पाँच लाख का मुआवजा देना जायज नहीं है। परंतु, गाड़ी का जायजा नहीं लेना, चालक का बयान नहीं लेना, बिना कारण चालक को हिरासत में रखना, वह भी इतने दिनों के लिए, आदि पुलिस की तरफ से गंभीर चूक ही नहीं मनमानी भी है। इसलिए, सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले का समर्थन करते हुए चालक को पाँच लाख रुपये का मुआवजा देने को उचित बताया।

सोचनीय बात यह है कि दूध का टैंकर चलाने वाला चालक मुश्किल से अपनी आजीविका चलाता है। उसे अक्सर दिन-रात काम करना पड़ता है। विश्राम के लिए भी उसे बराबर समय नहीं मिलता है। वह हमेशा वक्त पर सामान पहुँचाने के दवाब में रहता है। वह समाज की एक बुनियादी व्यवस्था के भीतर बँधा हुआ आदमी है। ऐसे गरीब आदमी की आज़ादी का हनन, असल में, एक बहुत गंभीर मामला ही नहीं, इन्सानियत के खिलाफ घोर अपराध भी है।

पटना उच्च्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, खासकर जस्टिस चंद्रचूड़ और एम. आर. शाह की पीठ, बधाई के पात्र हैं। यह इसलिए नहीं कि उन्होंने ट्रक चालक जितेंद्र कुमार पर कुछ मेहरबानी की हो। इसलिए है कि उन्होंने इस देश के गरीब और बेसहारे की पीड़ा को महसूस कर उसकी भलाई में और उस पर ज्यादती करने वालों पर मज़बूत फैसला सुनाया है। ध्यान देने लायक बात है कि हाल ही में देश के कई उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना काल में सरकार और शासन-प्रशासन की नाकामी को उज़ागर करते हुए बेहद सख्त टिप्पणियाँ की थीं। यह इस बात का सबूत है कि देश की ‘अंतरात्मा’ अब मरी नहीं है, जो कि देश के नागरिकों के लिए उम्मीद की किरण है।      

पुलिस प्रशासन की जहाँ तक बात है, ‘‘सदैव आपकी सेवा में; हम सेवा करते हैं और रक्षा करते हैं; परित्राणाय साधूनाम् (अच्छाई की रक्षा करना); शांति, सेवा, न्याय, सुरक्षा; सेवा, सुरक्षा, शांति; आपकी मदद करने में हमारी मदद करें; सत्यमेव जयते; मित्रता, सेवा, सुरक्षा; रक्षा और सेवा’’, आदि आदि भारत के विविध राज्यों के पुलिस विभाग के ध्येय हैं। सेवा, न्याय, सुरक्षा, सत्य, मित्रता, आदि इन महान ध्येयों में मौज़ूद मुख्य मूल्य हैं, जो कि पढ़ने-सुनने में बेशक अच्छे लगते हैं। लेकिन, सवाल यह है कि इन आदर्शों पर पुलिस कितना अमल करती हैं?

पहला सवाल यह है कि ‘पुलिस’ की भूमिका क्या है? यह तो साफ है पुलिस शासन-प्रशासन का अंग है। कानून को लागू करना और अपराध के विषय में जाँच कर नागरिकों के जीवन को महफूज करना तथा समाजिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने में मदद करना उसका काम है। ‘निष्पक्ष होना’ उसका पहला फर्ज है। ‘जान की रक्षा करना, हर इन्सान का हक और इज़्ज़त की हिमायत करना’ भी उसका कर्तव्य है। इस प्रकार देश व समाज में अनुशासन और व्यवस्था बनाये रखना पुलिस का काम है।

खास तौर पर ‘गरीब और कमज़ोर’ तबके के लोगों की तरफ विशेश ध्यान देना और उनके अधिकारों का हनन न होने देना पुलिस का काम है। ऐसे में, पुलिस ही, कमज़ोरों और गरीबों के साथ ज्यादती करे, तो वह किसी भी संदर्भ में तर्क संगत नहीं है। मसलन, किसान अपनी ज़मीन की चारों ओर घेराबंदी करते इसलिए है कि वह फसल की रक्षा करे। लेकिन, यदि ‘घेराबंदी खुद फसल को खा जाये’ तो वह कैसा विरोधाभास है! यह ‘रक्षक ही भक्षक बने’ इसके बराबर है। पुलिस की तरफ से ऐसी हरकत किसी भी मायने में माफ करने लायक नहीं है।

दूसरा सवाल यह है, ‘राज्य सरकार’ की ज़िम्मेदारी क्या है? अपने पुलिस विभाग की तरफ से ऐसी बेतुकी ज्यादती होने के बाद भी, सर्वोच्च न्यायालय जाकर यह दलील पेश करना कि एक ट्रक चालक किसी भी हालत में पाँच लाख रुपये मुआवजे लेने लायक नहीं रहा, सूबे की सरकार की ‘कानूनी और नैतिक खोखलेपन’ की बेहद शर्मनाक निशानी है। असल में, एक ‘गरीब चालक की आज़ादी की कीमत को कम आँकना’ राज्य सरकार के ‘निकम्मेपन’ का घोर सबूत भी है।   

सरकार, राज्य का हो या केंद्र का या शासन-प्रशासन किसी भी विभाग या स्तर का हो, वे जनता की भलाई के लिए और देश व समाज के कल्याण के लिए सेवा करने खातिर होती है। सही मायने में, हर नागरिक को महज अपने लिए ही नहीं, औरों के लिए भी सोचना जायज है। ऐसे में, जो सार्वजनिक जीवन में कदम रखता है, उसका पूरा का पूरा फर्ज़​ है वह आम नागरिकों की तुलना में कई गुना जनता की भलाई को सामने रखकर अपनी ज़िंदगी को जिये और अपनी हर ज़िम्मेदारी को अंजाम तक पहुँचाये।

लेकिन, शोचनीय हकीहत यह है कि सरकार और शासन-प्रशासन में दाखिल होनेवालों में ज्यादातर लोग अपने में मस्त हैं और उन्हें जनता की भलाई से कोई लेना-देना नहीं है। जैसे एक बार समाज सेवक अन्ना हज़ारे ने सियासत के लोगों के लिए कहा था, ‘सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता’ उनका जीवन-लक्ष्य है। सत्ता और पैसे के खेल से उन्हें फुरसत नहीं मिलती है। लेकिन, वे अपनी शर्मनाक सच्चाई को छिपाने के लिए झूठ पर झूठ गढ़कर​ लोगों को बेवकूफ बनाने में बखूबी कामयाब होते हैं। इस मामले में कुछ लोग कुछ मात्रा में कमोबेश बेतहर होते हैं। नागरिकों की भलाई एक हसीन सपना बनकर रह जाती है।

जुलाई महीने का ग्यारहवाँ दिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित ‘विश्व आबादी दिवस’ था। क्या हमारे भारत की आबादी ‘ताकत है या कमज़ोरी’? कहाँ है हमारी ताकत? कहाँ है हमारी कमज़ोरी? कम से कम पंद्रह से बीस करोड़ की तादाद में भारत के नागरिक ‘गरीबी रेखा के नीचे’ हैं और उनमें ज्यादातर झोंपड़ पट्टियों में या सड़क​-गलियारों के किनारे या पुलों व फ्लाई-ओवरों के नीचे रहकर, भीख माँगते हुए भी, समाज के हाशिये पर अपनी आजीविका जैसे-तैसे चलाने को मज़बूर हैं। क्या शहर के, सूबे के और केद्र के सरकारों व शासन-प्रशासन को देश की इस शर्मनाक हालात से कोई फर्क पड़ता है? जवाब आसान ही नहीं, बहुत मुश्किल है, खतरनाक है, पेचीदा है और धुँधला-सा भी है। लेकिन, इस जवाब से बचकर सरकारों को छिपने की कोई जगह हो, ऐसा तो नहीं लगता।

बिहार के पुलिस प्रशासन और राज्य सरकार के साथ-साथ देश के अन्य सरकार और सभी विभागों के शासन-प्रशासन को भी ईमानदारी से ‘आत्म-निरीक्षण’ कर साफ जवाब ढूँढ़ने की ज़रूरत है, ‘क्या भारत के गरीब की आज़ादी ‘मसाला दोशे के साथ की चटनी’-जैसे है, जो मुफ्त में और जितनी चाहे उतनी मिलती है’? या वह इतनी सस्ती है कि उसके साथ जो मरजी है सो किया जा सकता है? क्या हमारा देश हकीकत में विकास कर रहा है? मुझे लगता है, जब तक एक भी इन्सान भारत में गरीब रह जायेगा, तब तक भारत का विकास अधूरा रहेगा। जब तक एक भी नागरिक के साथ, खासकर गरीब के साथ, ज्यादती होती है, तो हमारा देश इन्सनियत के नज़रिये से दुरुस्त नहीं है।

महात्मा गाँधी जी ने जाति, रंग, पैसे, ओहदा, आदि को लेकर दबे हुए, दलित तथा हाशिये की ओर सरकाये हुए आज़ाद भारत के बदकिस्मत इन्सानों के लिए एक ज़बर्दस्त मुहिम चलायी थी। वह है ‘हरिजन’, याने ‘ईश्वर के लोग’। इन्सान के लायक इज़्ज़त से वंचित उन बहनों व भाइयों को इज़्ज़त देने के लिए माहात्मा की एक विनम्र कोशिश थी वह। क्या वह मुहिम कारगर हुई है? आज़ादी के अमृत महोत्सव की दहलीज पर खड़े भारत को अब बहुत बहुत आगे जाना बाकी है। यह बेशक हर नागरिक का फर्ज़​ है, विविध स्तरों पर विराजमान जावाबदार लोगों का ज्यादा भी।     

भारत ‘धार्मिक देश’ के रूप में जगज़ाहिर है। करीब-करीब दुनिया भर की बड़ी-छोटी धर्म-परंपराएँ यहाँ मौज़ूद हैं। धर्म को लेकर ज्यादातर लोग बहुत नशे में रहते हैं। धर्म का कोहराम बहुत है, लेकिन उसका फल ‘नैतिक मूल्य’ नहीं के बराबर भी। ‘कौन बड़ा, कौन छोटा’ या ‘कौन मालिक, कौन सेवक’ ऐसे फालतू पसोपेश से बाहर निकलकर ‘मिल-जुल कर रहने और चलने’ की ‘साझी संस्कृति’ को मज़बूत करना सबके लिए समझदारी होगी। भारत का उज्ज्वल भविष्य इसी आदर्श पर अमल करने में निहित है। ‘विविधता में एकता’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का भाव, बस, इसी सच्चाई में छिपा हुआ है। हमें ऐसी सच्चाई को बुलंद करना होगा। तब जाकर, उम्मीद है, हम लोग ‘गरीबों की आज़ादी के साथ खिलवाड़’ करने से कुछ बाज़ आयेंगे।  

15 अगस्त को भारत देश की आज़ादी की 74वीं सालगिरह मनायी जा रही है। हम लोग क्या मनायेंगे? उँची-उँची मूर्तियों को, नये संसद भवन या विधान सभाओं को, बुलेट ट्रेन को, दुनिया के सबसे बड़े मॉलों को, सबसे महंगी कारों को, सबसे आधुनिक मोबाइल फोनों, आदि आदि को? या हमारे भारत के सभी नागरिकों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ पेय जल और स्वच्छ वारावरण के साथ-साथ अलग-अलग समुदायों में आपसी सरोकार, सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता, शांति, आदि को? भारत के ‘संविधान’ के सबसे महत्वपूर्ण शब्द ‘हम लोग’ भारत के नागरिक की ओर इशारा करते हैं। नागरिकों की बुनियादी पहचान उनकी ‘आज़ादी’ है। हमें 15 अगस्त के दिन आज़ाद भारत के हर नागरिक की ‘आज़ादी’ को मनाने की ओर निरंतर चलते रहना होगा।

लगता है, हमारे देश की बुद्धि काफी कुछ मारी गयी है। दिशा-बोध कुछ गायब हो गया है। पटरी पर चलने के लिए अब हमें प्रेरणा कहाँ से मिलेगी? ऊर्जा कहाँ से मिलेगी? सद्बुद्धि कहाँ से मिलेगी? हमें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी की प्रार्थना से खुद को ‘री-स्टार्ट’ करना होगा, ‘‘सब को सन्मति दे भगवान’’। साथ ही, भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता, बहु-आयामी प्रतिभा, दिग्गज और यशस्वी रबीद्र नाथ टैगोर की प्रार्थना से ‘हम लोग’ अपने आप को ‘रिफ्रेश भी करें’, ‘‘आज़ादी के उस स्वर्ग की ओर, हे पिता, मेरा देश जाग जाये’’।  

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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संदेश (मासिक), पटना, वर्ष 72, अंक6-7, पृ. सं. 14-16 -- जुलाई 2021 में 

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