खूबियों और चुनौतियों के बीच झूलता भारत
खूबियों और चुनौतियों के बीच
झूलता भारत
डॉ. एम. डी. थॉमस
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भारत देश अपनी विविधताओं के लिए समुची दुनिया में एक खास जगह रखता है। वास्तव में भारत एक देश न होकर अनेक देशों का एक विशाल समूह है। भौगोलिक खूबसूरती की तरह-तरह की परिभाषाएँ यहाँ मिलती हैं। जातियों, प्रजातियों और जनजातियों की बेशुमार भिन्नताएँ भी हैं। राष्ट्र-भाषा और अंतरराष्ट्रीय भाषा के साथ-साथ पंद्रह राष्ट्रीय स्तर पर अंगीकार-प्राप्त प्रादेशिक भाषाएँ और हज़ारों जन-बोलियाँ भारत की खूबी है। दुनिया की सभी बड़ी-बड़ी मज़हबी परम्पराएँ भारत में मौजूद हैं। भारत की बड़ी और छोटी विचारधाराओं के साथ-साथ विश्व की करीब सभी विचारधाराएँ भारत में मौज़ूद हैं।
भारत की हिन्दुस्तानी और कर्नाटकीय संगीत-पद्धतियाँ बहुत ही अनुभवात्मक और मोक्षदायिनी हैं। शास्त्रीय नृत्य की सातों परम्पराएँ और लोकनृत्य की सैकड़ों परम्पराएँ ‘एक से बढक़र एक अच्छी’ के तौर पर मनमोहक हैं। साहित्य की विविध विधाएँ हों, वेश-भूषा के रंग-बिरंगे तौर-तरीके हों, खान-पान के बेशुमार पकवान हों या सामाजिक रीति-रिवाज़ के भिन्न-भिन्न अन्दाज़ — ये सब भारतीय समाज की विविधताओं के अलग-अलग आयाम हैं। भारत की एक संस्कृति न होकर भारत में अनेक सँस्कृतियाँ साथ-साथ रहती-बढ़ती हैं। उपर्युक्त सभी विविधताएँ भारत देश की सामाजिक धरोहर हैं। इन विविधताओं को एक सूत्र में पिरोनेवाली चीज़ है एकता का भाव। भारत बेशुमार मामलों में अनेक होकर भी एक है, एक होकर भी अनेक है। ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ का सारतत्व, बस ऐसी पारिवारिक भावना है। ऐसी अनोखी विशेषता वाले देश का नागरिक होने की खुशकिस्मती पाकर हमें अपने आप पर नाज़ होना चाहिए।
राष्ट्र के रूप में भारत की इमारत भारत के संविधान की नींव पर खड़ी है। विश्व के समस्त संविधानों में भारत के संविधान की अपनी पहचान है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के लायक होना ही इस संविधान का अनूठापन है। पंथरिपेक्षता इस संविधान की जान और शान है। यही दृष्टिकोण लोकतन्त्र की बुनियाद भी है। इसके मुताबिक भारत देश जितना रामभक्त का है, ठीक उतना ईसाभक्त का भी है। वह जितना जैन का है, ठीक उतना मुसलमान और पारसी का भी है। भारत की सभी प्रजातियाँ और भाषाएँ देश के लिए समान महत्व की हैं। नागरिक के रूप में ब्राह्मण और शूद्र, पढ़े-लिखे और अनपढ़ और अमीर और गरीब के समान हक और फर्ज़ हैं। कानून के सामने सब बराबर हैं। भारत देश किसी एक समुदाय विशेष की बपौती नहीं है। लोकतन्त्र के मुताबिक हर शख्स, वर्ग और समुदाय की अपनी-अपनी जगह है। सब मिलकर भारत देश बनता है। भारत के संविधान के कारण भारत की सँस्कृति एक मिली-जुली सँस्कृति साबित होती है। इसलिए पंथनिरपेक्षता के नज़रिये के मुताबिक सोचना और बर्ताव करना भारत के हर नागरिक का फर्ज बनता है।
लेकिन, भारत देश का धुआँदार पहलू इतना तेज़ है कि उससे रूबरू होकर कोई भी नागरिक खौफ से भरे बिना नहीं रह सकता। कुछ लोग अभी भी अपने आपको ऊँची जाति के और दूसरों को नीची जाति के समझ्कर छुआछूत का भाव पालते हैं। कहीं दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा है, कहीं जनजातियों और आदिवासियों के साथ बेइन्साफी की जा रही है। कुछ लोग दकियानूसी सोच से ग्रस्त होकर मज़हब और साम्प्रदायिकता के गुलाम बनकर जी रहे हैं। कुछ कट्टरवादी लोग दूसरे समुदायों के लोगों को पराये कहकर उनके साथ हत्या-बलात्कार आदि की घिनौना गुनाह करते रहते हैं। कोई मज़हब के नाम पर राजनीति करते हैं और कानून के साथ खिलवाड़ करके भी दूसरों को किनारा करने की कोशिश करते हैं। कुछ लोग ‘धर्मान्तरण’, ‘घर-वापसी’ और ‘बहुसंख्यक- अल्पसंख्यक’ की बेतुक नारों को लेकर सत्ता हथियाने का धंधा करते हैं। कुछ लोग ‘हिन्दुत्व’ आदि की बे-सिर-पैर की विचारधाएँ गढ़कर भारतीयता का ठेका लिए हुए हैं और संविधान के साथ भारी जुल्म करते हैं। कोई जीने-बढ़ने के संघर्ष में लगे हैं, तो कोई दूसरों पर अपनी ताकत जमाने की नाजायज़ होड़ में लगे हैं। ज़्यादातर राजनेता पैसे या मुट्ठी की ताकत से सत्ता पर काबिज होकर देश के पहरेदार बने हुए हैं और भ्रष्ट तरीकों से अपनी-अपनी मंजिल पहुँचने में लगे हैं। कई धर्म-नेता ‘सिर्फ मैं और मेरी’ के खुदगर्जी-भरे आदर्श के जाल में फँसकर अपना निजी स्वर्ग बनाने में व्यस्त हैं।
एक
मशहूर और जबरदस्त शायर हैं, जिनको मैं करीब से जानता हूँ। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का
हवाला देते हुए अमीर और गरीब का रेखाचित्र खींचा है, जो कि गौरतलब है। उन्हीं के लफ्ज़ों
में, ‘‘सम्पन्नता और विपन्नता तो सचमुच भाग्य-रेखाओं का चक्कर ही लगता है। क्योंकि
मैं स्पष्ट देख रहा हूँ, जिनके पास कुछ नहीं है वे बहुत बड़े बन गये हैं और जिनके पास
बहुत कुछ है वे अकिंचन-से बने हैं।’’ उच्च वर्ग के लोग ज़्यादा धन-दौलत के कारण बुरी
तरह से बीमार हो गये हैं, जबकि निम्न वर्ग के लोग अपने पास कुछ नहीं होने या ज़रूरत
से कम होने से बेतहाशा परेशान हैं। जीने-बढ़ने के जी-तोड़ संघर्षों की मार-काट प्रतियोगिता
तलवार के धार पर चल रही है। मूल्य-व्यवस्था हार गयी है, ऐसा लगता है। धर्म के आचार्यगण
मंदिर-मस्जि़द के ताकत-परीक्षण में लगे हैं और आम लोग अंधविश्वास की अघाता खाई में
फँसे हुए हैं। प्रशासन बड़ी मात्रा में गैर-इन्तज़ामी
और निष्क्रियता की हालत में है। देश की असली हकीकत जब गाँवों की जनता से जुड़ी है,
नेता-अभिनेता शहरीय धुन पर ही देश को समझने-चलाने पर तुले हैं। बड़े-बूढ़े लोग आखिरी
साँस तक अपने परिवार, संस्था, समुदाय और देश को अपनी मुट्ठी में बाँधे रखकर उसका फायदा
भोगने की कोशिश में है और युवा पीढ़ी को साथ लेकर उसे नेतृत्व के गुणों से सक्षम बनाने
में कम दिलचस्पी लेते हैं। ऐसे उल्टे-पुल्टे हालात में बेशुमार सवाल उठते हैं, जिनका
जवाब देना भी किसी भी शरीफ नागरिक के लिए, एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है। वास्तव में
भारत अनोखी खूबियों और अजीब चुनौतियों के बीच झूल रहा है। खूबियों में निखार आये, इसके
लिए चुनौतियों का सामना करना ज़रूरी है। देश को जिम्मेदार नागरिकों की कारगर पहलों
का इन्तज़ार है।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
निम्नलिखित माध्यमों
के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p),
‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’
(p) and ‘www.ihpsindia.org’
(o); सामाजिक
माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’
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(p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).
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भारतीय विचारक (पुस्तक), गगन स्वर, गाजियाबाद, पृष्ठ संख्या 180-183 -- मार्च 2012 में प्रकाशित
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