मूलसिद्धान्तवाद या रूढ़िवाद : आतंकवाद की बुनियाद

 

मूलसिद्धान्तवाद या रूढ़िवाद : आतंकवाद की बुनियाद

 डॉ. एम. डी. थॉमस

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

मूल के रूप में किसी सिद्धान्त का होना किसी भी व्यक्ति, समुदाय या आन्दोलन के अस्तित्व तथा विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है। यह मूल विचार या भाव किसी धार्मिक या सामाजिक सन्दर्भ में पनपता है। किसी परम्परा की शुरुआत इसी से होती है। उसकी दिशा भी इसी से बनती है। इसका स्रोत या तो किन्हीं महापुरुष की बुनियादी जीवनदृष्टि होता है या किन्हीं ऋषि-मुनियों का अनुभव सिद्ध ज्ञान। मूल सिद्धान्त एक स्वीकारात्मक उर्जा के रूप में जितना जरूरी है ठीक उतना अच्छा भी है। लेकिन, चलते-चलते यह सिद्धान्त रूढ़ हो जाता है और इसके अनुगामियों के सामाजिक व्यवहार को मंत्रस्वरूप प्रभावित करने लगता है। शनै:-शनै: यह सिद्धान्त लोगों की व्यावहारिक आदतों की सिराओं में उतरता है और एक अटल असाध्य प्रतिबद्धता बन जाता है। मूलसिद्धान्तवाद या रूढ़िवाद इसी का नाम है।

मूलसिद्धान्तवाद या रूढ़िवाद एक अतीतोन्मुख प्रवृत्ति है। यह किसी शुरुआती सोच को ही सब कुछ मानने का एक अतिरंजित मत है। स्तनपान बच्चों के लिए संजीवनी के समान है लेकिन एक निश्चित हद या उम्र के बाद बच्चे का अपनी माँ के स्तन से ज़कड़ कर रहना ठीक नहीं माना जाता। ठीक उसी प्रकार मूल सिद्धान्त में फँसे रहने से विकास अवरोधित हो जाता है। भूतकाल के गुलाम हो जाने पर वर्तमान और भविष्य अविकसित रह जाता है। रूढ़ियों के चक्रव्यूह में पड़ने से जीवन की दिशा ही छूट जाती है। मूलसिद्धान्तवाद ऐसी एक अस्वाभाविक विचारधारा है।

मूलसिद्धान्तवाद में एकतत्ववाद का भाव है। अनेकता के लिए उसमें गुंजाइश कतई नहीं है। अपने मूल से प्राप्त जीवनदृष्टि के प्रति, चाहे वह धार्मिक हो या सामाजिक, ऐसी आशक्ति रहती है कि दूसरे किसी तत्व की सम्भावना की कल्पना तक नामुमकिन हो जाती है। मूलसिद्धान्तवादी सत्य को पूर्णतया जानने का दृढ़ विश्वास और दावा करता है। जीवन के प्रति एकांतिक निष्ठा उसकी पहचान है। ‘मैं सही हूँ’ ‘मै ही सही हूँ’ — यह उसकी तीव्र भावना है। अपने मूल सिद्धान्तों के साथ अनुरूपता बनाये रखना उसके लिए एक नशा के समान है। अनन्य की भावना, श्रेष्ठता की ग्रन्थि और निरपेक्ष विचार मूलसिद्धान्तवाद के कुछ पर्याय हैं।

मूलसिद्धान्तवाद या रूढ़िवाद में वैचारिक और भावनात्मक संकीर्णता झल​कती है। कुँए के मेंढ़क​ के समान अपने में सन्तुष्ट रहना या ‘अहम्’ के भाव में मस्त रहना उसका स्वभाव है। आत्मा गतिशील है और अभिव्यक्ति मे विविधता है। अपने से भिन्न किसी बात या अभिव्यक्ति को नकारना आत्मा की अवमानना है। रूढ़िवाद का ऐसा दृष्टिकोण महज सांसारिक है और धर्म के अनुकूल नहीं है। हर एक के लिए जि़न्दगी का अपना-अपना हिस्सा है। दूसरे की ख़ासियत को नहीं मानना, उसका सम्मान नहीं करना, उसके हिस्से का अतिक्रमण है। अपने नजरिये को सर्वोच्च मानना या अपने को भ्रमातीत मानना दूसरों पर राज करने की टेढ़ी चाल है। सम्पूर्ण तथ्य की आड़ में मूलसिद्धान्तवाद सत्ता की राजनीति खेलता है। साथ ही, दूसरे में सत्य को नकारने के कारण वह सत्य को ही संकुचित कर देता है। जि़न्दगी बहु-आयामी है। यह बुनियादी समझ मूलसिद्धान्तवाद को नसीब नहीं आती

मूलसिद्धान्तवाद एक पूँजीवादी जीवन शैली है। इसमें दुनिया का मालिक बनने की होड़ पायी जाती है। नेता, चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक, प्राय: अपने अनुयायियों को सोचने के हक से वंचित कर उन्हें गुलाम बना लेते हैं। सोचने की क्षमता के क्षीण हो जाने के कारण अनुयायी जनता रूढ़ियों में सहज रूप से अपनी विश्वास-रूपी पूँजी जमा करते हैं। उसमें अन्धविश्वास रूपी मोर्चा लगता है और नेता-रूपी चोर सेंध लगाकर चुराता है। बिना सोचे-समझे किया जाने वाला निश्चय ही, स्थिर किया हुआ मत ही, अन्धविश्वास है। यह स्वार्थ से कलंकित नेताओं की चालबाजी से दूषित होकर मूलसिद्धान्तवाद का रूप लेता है। रूढ़ियों का संकल्प हमेशा आत्मघाती साबित होता है। निरंकुश शासन-तंत्र इस पद्धति का मेरुदण्ड है। धर्मशास्त्री या राजनीतिज्ञ और पुरोहित या मंत्री रूढ़िवाद के लिए भोगी-पक्ष में गिनाये जाते हैं। समाज जितना संगठित है, शासन-तंत्र ठीक उतना भ्रष्ट भी होगा। इस तंत्र से जुड़े स्वार्थपरस्त तथा सत्ताधारी लोग परम्पराओं की छत्रछाया को स्वीकार नहीं करने वाले को काफ़िर घोषित किया करते हैं। परम्पराओं से चली आयी हुई धारणा, चाल, प्रथा, निश्चय आदि दकियानूसी लोगों के लिए सर्वेसर्वा है।

रूढ़िवाद उसकी मानसिक कमजोरी का परिचायक है। जि़न्दगी गत्यात्मक है। प्रगतिशील रहना उसका स्वभाव है। प्रगतिशीलता से अभिप्रेरित नये विचार, मूल्य और व्यवहार के प्रभाव में जो टिक नहीं पाता हो, उसका कछुए के समान अपने कवच में खिसक जाना स्वाभाविक है। जो निश्चित और स्पष्ट हो, जिससे आदी हो चुका हो, उसमें लगे रहने में सुरक्षित भावना रहती है। नयेपन के साथ हमेशा जोखिम जुड़ा हुआ है। उसमें अनिश्चितता और अव्यवस्था है। उसमें अकेलापन और असुरक्षा की भावना है लेकिन, जो जोश्मि नहीं उठा पाता, जो नयेपन की ओर छलांग नहीं लगा सकता, वह असामयिक बुढ़ापे का शिकार होता है। उसमें मुर्दे की भावना है। यह स्थिति अकाल क्या, अपमानजनक मृत्यु के समान है। यह आदत की लाचारी है, जो ऐसी दुर्बलता के कुहासे में फँसा है, वह जि़न्दगी में कोई तरक्की नहीं कर सकता। एक भँवर-जाल-सी कमजोरी के रूप में रूढ़िवाद अपना दुश्मन खुद है। यह दुर्दशा रूढ़िवादी के लिये एक अपरिहार्य नियति बन जाती है।

रूढ़िवाद एक मौलिक विकृति है। इसमें प्राकृतिक नियमों का विपर्यय पाया जाता है। पराभिमुख होना, अर्थात एक दूसरे की ओर उन्मुख होना, प्राणी का स्वभाव है। रूढ़िवाद आत्म-केन्द्रित चिंतन है। अपने मूल की परम्परा ही सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरती है, उसकी ऐसी मान्यता है। अन्य विचारों और विश्वासों से वियुक्त रहने में उसकी अपनी गरिमा है। यह पृथक पहचान उसकी खण्डित मानसिकता का ही सबूत है। ऐसी हठधर्मिता, वैचारिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर, उसके लिए एक लाइलाज बीमारी साबित होती है। साथ ही, रूढ़िवाद अतीत के पर्याय के रूप में और एकतत्ववादी दर्शन के रूप में अकेले रहने के समान है। महात्मा ईसा का कहना है — ‘‘जब तक गेहूँ का दाना मिट्टी मे गिरकर नहीं मर जाता, तब तक वह अकेला ही रहता है। परन्तु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल देता है।’’ इसी प्रकार जो अतीत मरकर वर्तमान में परिवर्तित न हुआ हो और जो तत्व दूसरे तत्वों से समन्वय स्थापित करते हुए आपसी समृद्धि के मार्ग को नहीं अपनाया हो, वह अकेले में मर जाता है, फल उत्पन्न नहीं कर पाता। जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया के विपरीत होना प्र​कृति की विकृति है, जो कि मौत से बदतर जि़न्दगी है।

मूलसिद्धान्तवाद एक आत्म-रक्षात्मक प्रतिक्रिया है। वह जीवन के एक सिद्धान्त को सार्वभौम मानने-मनवाने का तंत्र है। वह जीवन के साथ एक स्वत्वात्मक रवैया अपनाता है। अनेक सिद्धान्तों या तत्वों के टक्कर से होती असफ लता को छिपाने के लिए कमजोर मन को अपने सिद्धान्त की मौलिकता और सम्प्रभुता की ताकत जतानी पड़ती है। जीवनदृष्टि में हुई गलतफहमी के कारण होती पराजय-भावना या हीनता-ग्रन्थि को ढकने के लिए श्रेष्ठता का अभिनय करना मूलसिद्धान्तवादी की मजबूरी है। कुछ। सुरक्षित रखने के चक्कर में वह सब कुछ को खो देता है। खो जाने के भय के कारण वह पाने की महान पूँजी से कतराता है। मूलसिद्धान्तवादी अपने चेहरे के दाहिने-बायें बँधे घोड़े के समान है। वह जीवन में एक संकुचित पटरी को लेकर चलता है।

रूढ़िवादी उस गधे के समान है, जो किसी बोझ् को, किसी के कहने पर अपने कार्य की व्यर्थता को नहीं समझते हुए ढोता है। ‘हल्का चलें, सुखी चलें’ — यह नीति रूढ़िवादी की नहीं है। सबसे पुराने को स्वर्णिम समझने की झूठी अस्मिता के कारण वह खेमेबाजी की काल्पनिक दुनिया में विचरण करता है। वह खुली सोच से वंचित होकर जीवन से धोखा खाता है और असली विश्वास, आध्यात्मिकता और इन्सानियत से हाथ धो बैठता है। वह अपने भ्रमात्मक सिद्धान्तों के बड़प्पन के कारण जीवन के रहस्य की परतों में प्रवेश नहीं कर पाता। वह सृष्टि की अनेकता और उसकी खूबियों से रूबरू नहीं हो पाता। मूलसिद्धान्तवादी अपने मूल धर्मपुरुष या महात्मा के लिए अपमानजनक है। उसके लिए बदनाम साबित होता है। वह उनके साथ विश्वासघात से बढक़र कुछ भी नहीं है। कुल मिलाकर, मूलसिद्धान्तवाद या रूढ़िवाद एक प्रतिक्रियावादी आत्मप्रवंचना होकर रह जाता जोकि परम दुर्भाग्यपूर्ण है।

मूलसिद्धान्तवाद या रूढ़िवाद आतंकवाद की जड़ है। जड़-मूल में फँसना एक पागलपन है। चलते-चलते रूढ़ियों का नशा उन्माद का रूप ले लेता है। अर्धसत्य को सम्पूर्ण सत्य तथा खण्ड को अखण्ड समझने का दावा मूलसिद्धान्तवाद को अहंकार से चूर कर देता है। अधूरे सत्य के अतिश्योक्तिपूर्ण रूप के कारण कट्टर होना उसके लिए एक अनिवार्य मजबूरी हो जाती है। वह सत्य के अन्य सभी आयामों की कठोर अवज्ञा करने पर तुला रहता है। सम्पूर्ण सत्य के तिरस्कार के कारण मूलसिद्धान्तवाद दूसरे के हिस्से का अतिक्रमण कर डालता है। अतिक्रमण हमेशा आक्रमणशील है और उग्र रूप को धारण करता है। इस प्रकार रूढ़िवाद एक अतिसंवेदनशील मामला होकर समाज के लिये खतरनाक साबित होता ही नहीं, प्रत्यक्ष आतंकवाद में परिणत होता है।

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

सन्देश (मासिक), पटना, अंक 5, पृष्ठ संख्या 09-11 में -- मई 2002 को प्रकाशित 

Comments