आखिर, ‘मर्यादा’ में रहना ही धर्म है

 

आखिर, ‘मर्यादा’ में रहना ही धर्म है

डॉ. एम. डी. थॉमस

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उज्जयिनी की धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

वे तो जवानी के दिन थे। केरल में पैदा होकर भी उज्जयिनी में जाकर बसे। एक सांस्कृतिक और नैतिक मिशन था इसकी वजह। उज्जयिनी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक नगरी थी, है भी। विक्रमादित्य की प्राचीन कोठियों से मानो तवारीख के सारे पन्ने खुले ही रह गये। हज़ारों मंदिरों से घंटियों की गूंज भरी-पूरी थी। उनकी चरम सीमा थी शिवमंदिर महाकालेश्वर। गिरजा घर, मज़जिद, गुरुद्वारा, आदि भी मिलकर शहर की एक ‘सर्व धर्म’-सी शोभा थी। लोग मिलनसार और अपनापन लिए हुए थे। कुल मिलाकर, एक ‘मिली-जुली संस्कृति’ की झलक क्या एहसास भी चारों ओर थी। इतना ही नहीं, उज्जयिनी की सांस्कृतिक शान रही मशहूर विक्रम विश्व विद्यालय। ऐसे में, वहीं से स्नातक-स्नातकोत्तर की उपाधियाँ हासिल करना नसीब की बात नहीं तो क्या है! 

तुलसीदास और मर्यादापुरुषोत्तम

एम. ए. की कक्षाएँ खास थीं। गोस्वामी तुलसी दास के ‘राम चरित मानस’ में मेरी बेहद दिलचस्पी रही। उनकी ‘विनयपत्रिका’ तो विशेष थी। राम के चरित्र चित्रण के भीतर ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ की उपाधि ने मुझे बहुत आकर्षित किया। मैं तो ईसा की मूल्य-परंपरा में पला-बढ़ा था। फिर भी, मैं सोचता ही रह गया ‘क्या गज़ब का चरित्र है’ राम का! तुलसीदास की कल्पना और भावना के भी क्या कहने! ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ वह पुरुष है ‘जो सदैव मर्यादा में रहता हो’। वही ‘उत्तम’ पुरुष भी है। पुरुष तो मूल रूप से ‘ईश्वर’ है ही। ‘उत्तम पुरुष’ तो असल में ईश्वर क्या परम ईश्वर है। ईश्वर का ही नहीं, इन्सान का भी इससे बड़ा चरित्र क्या है! मुझे बहुत मज़ा आया। आगे, मैं अपनी पढ़ाई और शोध में मर्यादा पुरुषोत्तम के इस चरित्र के अलग-अलग पहलुओं को किताबों में ही नहीं, ज़िंदगी के गलियारों में भी ताउम्र तौर पर टटोलता रहा। 

मर्यादापुरुषोत्तम का चरित्र-गुण 

‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ से कई बातें उभर आती हैं। पहली, ‘पुरुष’ का मतलब ईश्वर से भी है, इन्सान से भी है। दूसरी, ‘पुरुष’ इन्सान के तौर पर पुरुष भी है, स्त्री भी है। तीसरी, ‘उत्तम’ याने ‘श्रेष्ठ’ ईश्वर की या इन्सान की ‘गुणता’, ‘महानता’ और ‘पूर्णता’ की ओर इशारा करता है। चौथी, ‘मर्यादा’ का अर्थ ‘सीमा या हद’ या ‘लाज’ है। मर्यादा का अर्थ ‘गौरव, प्रतिष्ठा, मान’, आदि भी हैं। पाँचवी, ‘मर्यादा’ का तात्पर्य ‘अनुशासन’ से है। छठी, ‘अनुशासन’ का मतलब ‘नियंत्रण, नियमबद्ध आचरण, समचित्तता’, आदि हैं। इन सभी बातों का एक समाहार है ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’। हाँ, ‘उपर्युक्त गुणों से युक्त होना’ या ‘मर्यादा में रहना’ राम का चरित्र है। तात्पर्य है, ईश्वर के साथ-साथ इन्सान का चरित्र भी यही है। निचौड़ में, ईश्वर और इन्सान की, बस, यही मर्यादा है, समचित्तता है, अनुशासन है, श्रेष्ठता है, गुण है, आदर्श है, धर्म है, नैतिकता है, संस्कृति है, पूर्णता है और पहचान है, चरितार्थता भी। यही इन्सानी समाज की ‘समावेशिता, समरसता, समन्वय’, आदि भी है। 

मर्यादापुरुषोत्तम की दिशाएँ

ज़ाहिर है, ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ के आदर्श से एक अनोखी चेतना उभरती है, जो इन्सान, परिवार, समुदाय, देश और समाज को समग्र और तल्लीन तौर पर अपने आगोश में लेती है। ऐसी चेतना सिर्फ विद्यालय, महा विद्यालय और विश्व विद्यालय के साहित्य, काव्य और चिंतन की कक्षाओं में कैद रहे, यह काफी नहीं है। आदर्श की आसमान का व्यवहार की ज़मीन से मेल करवाना होगा। यह चेतना बुलंद होकर इन्सान की ज़िंदगी के कोने-कोने में धर्म, संस्कृति और नैतिकता का व्यवहार बनकर हावी रहे, यही करणीय है। ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ की यह परिभाषा, ईश्वर की हो या इन्सान की, किसी खास समुदाय से मतलब नहीं रखते हुए सभी समुदायों पर बराबर रूप से लागू होती है। यही, मैं समझता हूँ, इस नज़रिये की सार्वभौम अहमियत है। ‘समुदाय-निरपेक्ष भावना’ से प्रेरित होकर उपर्युक्त ‘मर्यादा-भाव’ को देश और समाज के बहु-आयामी पटल पर लागू करना ही, वह भी नैतिक और सांस्कृतिक मिशन के मद्देनज़र, श्रेयस्कर होगा।     

‘धर्म’ की अवधारणा का मर्यादापुरुषोत्तम से मेल

‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ की उपर्युक्त धारणा से भारतीय परंपरा में मौजूद ‘धर्म’ की अवधारणा पूरी तरह से मेल खाती है। ‘धर्म’ शब्द संस्कृत के ‘धृ’ धातु से निकलता है, जिसका मतलब है ‘धारण करना, निभाना, ज़िम्मेदारी लेना, व्यवहार करना’, आदि। धर्म किसी भी जीव या चीज़ का भीतरी ‘भाव’ या ‘स्वभाव’ भी है। इस नज़रिये से, जैसे पानी का स्वभाव ‘तरलता’ और पत्थर का स्वभाव ‘दृढ़ता’ है या नमक का स्वभाव ‘सलोनापन’ और चीनी का स्वभाव ‘मिठास’ है, ठीक वैसे ही इन्सान का स्वभाव ‘इन्सानियत’ है। ‘धर्म’ के अर्थ की उपर्युक्त दो दिशाएँ ‘होने’ और ‘करने’ में ज़ाहिर होती हैं। साथ ही, इन्सान व्यक्ति भी है, समाज भी है। ‘होने’ के तौर पर वह व्यक्ति है और ‘करने’ के तौर पर वह समाज है। व्यक्ति के रूप में जहाँ एक ओर उसकी ‘निजता’ है, ‘गुणता’ है, ‘आज़ादी’ है,‘अहमियत’ है, ‘मान’ है और ‘अधिकार’ है, वहाँ दूसरी ओर समाज के  रूप में उसकी ‘ज़िम्मेदारी’ है, ‘सीमा’ है, ‘नियंत्रण’ है, ‘कर्तव्य’ है और ‘समावेशिता’ है। दोनो मिलकर ‘मर्यादा, अनुशासन, नियम, स्वभाव, शिष्टता, संस्कृति, नैतिकता’, ‘समन्वय’, आदि, इन्सान के लिए ‘धर्म’ बनता है। दूसरे श्ब्दों में, ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ और ‘धर्म’ आपस में पर्यायवाची होकर इन्सान की ज़िंदगी की मज़बूत पटरियाँ बिछाते हैं।

भारत एक धार्मिक देश

हमारा भारत देश धर्म के लिए जाना जाता है। काफी तादाद में लोग भारत को ‘धार्मिक देश’ भी मानते हैं। विविध बड़ी-छोटी धार्मिक परंपराएँ भारत में मौजूद हैं। उनमें से कुछ भारत में ही पैदा हुईं और कुछ बाहर से भारत आईं, ऐसा माना जाता है। वैदिक, जैनी, बौद्ध और सिख परंपराएँ पहले समूह में और यहूदी, ईसाई, इस्लामी, पारसी और बहाई धाराएँ दूसरे समूह में गिनी जाती हैं। भूजनांकिकी के अनुसार द्रविड, जनजातीय और आर्य सभ्यताएँ भी इतिहास के किसी-न-किसी समय पर बाहर से आकर भारत की मिट्टी पर पैर रखी थीं। अफ्रीकी, पारसी और मंगोली मूल उन सबकी मुख्य जड़ें हैं, यही अत्याधुनिक शोध का मानना है। खैर, भारत में पैर जमाने के समय को लेकर भारत की वर्तमान धर्म-परंपराओं को बाँटना किसी भी मायने में सही नहीं लगता है। कुछ समय पहले और कुछ समय बाद में महज समयांतर है। ‘भारतीय और गैर-भारतीय’ के पसोपेश से उभरकर आज भारत में मौजूद सभी धार्मिक परंपराओं को भारतीय समझना समीचीन होगा। इस लिहाज़ से, उपर्युक्त घोषित धर्म-समुदायों के अलावा, सभी जातीय, गैर-जातीय, जनजातीय, दलित, आदि, परंपराओं को तथा शिंटो, कन्फ्यूशस, धर्म-निरपेक्ष और नास्तिक विचारधाराओं को भी मौटे तौर पर भारत की धर्म-परंपराओं के समुच्चय में शामिल करना भारत कीसमग्र और सम्यक ‘धर्म-भावना’ के लिए जायज और श्रेयस्कर होगा।   

धर्म-परंपराओं का कारोबार 

उपर्युक्त करीब-करीब तमाम धर्म-परंपराओं के अपने-अपने देव हैं, देवालय हैं, पैगंबर हैं, धर्म-ग्रंथ हैं, तीर्थ-स्थान हैं, उपासना-पद्धतियाँ हैं, व्रत हैं, आदि-आदि। देश के तकरीबन एक चौथाई लोगों के गरीब और अतिगरीब होने के बावजूद देश में विविध देवों के नाम पर करोड़ों-करोड़ों की लागत के एक से बढक़र एक दिखाऊ देवालय बने हुए हैं। कितना समय धर्म-गुरुजन और भक्त गण उनमें पूजा, धर्म-ग्रंथ-पाठ, प्रार्थना, उपासना, इबादत, अर्ज़​, तीर्थ-यात्रा, व्रत, ध्यान, आदि, में वक्त व्यतीत करते हैं, इसकी कतई कोई गिनती नहीं हो सकती। लोग ईश्वर से अपने-अपने काम निकालने के बहाने या सही-गलत कमाई के लिए धन्यवाद के तौर पर या फोकट की कमाई का हिस्सा देने के लिए कितने सोना, चाँदी, नगद और अन्य चीज़ों को मंदिरों, मज़जिदों, गिरजा घरों, गुरुद्वारों, आदि में भेंट करते हैं, इसकी भी कोई गिनती नही हैं। यह बात ज़रूर है कि ऐसी रिवाज़ें उनके आविष्कर्ता नेताओं और ठेकेदारों के लिए अपनी नेतागिरी और लौकिक गुज़ारे निभाने केलिए ही नहीं, बेहिसाब सुख-सुविधाओं को भोगने के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं। काश, असल में, इन सभी अजीबोगरीब धार्मिक व्यवहारों का कितना ‘फल’ भक्तों को मिलता है, इसका अपनी-अपनी निजी ज़िंदगी, परिवार, समुदाय, देश और समाज ही खुल्लम-खुल्ला ‘आईना’ है। ऊपर बताये गये तमाम धार्मिक आडंबर के बावजूद, इन्सान की ज़िंदगी में ‘धर्म’ का सही मतलब कुछ है, यह समझने के लिए ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ के नज़रिए से देश व समाज की गंभीर परख करना बेहद ज़रूरी है।

देशीय समाज में ‘मर्यादा और धर्म’ की तलाश 

चर्चित विषय पर सच्चाई को उज़ागर करने की लिहाज़ से, हमारे देशीय समाज की ईमानदारी से छान-बीन करना सख्त ज़रूरी है। हमारे तथाकथित ‘धार्मिक देश’ में धर्म रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कितना असरदार है? लोगों के निजी और सार्वजनिक जीवन में धर्म ‘मूल्यों’ के तौर पर कितना अवतरित हुआ है? धर्म की वजह से देश का सामाजिक जीवन कितना बेहतर, गुणात्मक और शांतिपूर्ण हुआ है? और साफ शब्दों में, अपने देश में धर्म लोगों के अपनी निजी और सार्वजनिक जीवन में ‘मर्यादा में रहने’ के लिए कितना सहायक हुआ है और कितना नहीं? सही मायने में, निजी और सार्वजनिक जीवन दो अलग-अलग चीज़ें न होकर एक हकीकत के दो पहलू ही होते हैं। जो निजी जीवन में धर्म-मूल्यों पर अमल करते हैं वह सार्वजनिक जीवन में भी वैसा ही करते हैं। उलटे, जो सार्वजनिक जीवन में धाँधलियाँ करते हैं, वह निजी जीवन में भी मर्यादा को भंग करने का ही आदी होगा। ‘शिष्टता और मर्यादा’ ‘पारदर्शी’ होती हैं, होनी ही चाहिए। मर्यादित या अनुशासित व्यक्ति हर जगह, हर वक्त, हर काम में और हर व्यक्ति के साथ मर्यादित और अनुशासित ही होते हैं। मर्यादित होने में ही सही अर्थ में इन्सान की ज़िंदगी की कीमत है। हमारे देशीय समाज में धर्म-सम्मत आचरण कोई आम बात कतई नहीं बनी है। धर्मानुष्ठान और ‘मर्यादा’-रूपी धर्माचार के बीच कोई ज़रूरी रिश्ता हो तथा वे आपस में मिले हुए चलते हों, ज्यादातर ऐसा नहीं लगता है।   

नैतिक जगत में ‘मर्यादा और धर्म’ 

मर्यादा या अनुशासन का सीधा नाता ‘नैतिकता’ से है। लेकिन, ज्यादातर लोगों की ज़िंदगी में ‘नैतिक मूल्य’ कोई खास मायना नहीं रखते हैं। मसलन, सत्य की निष्ठा नैतिकता के लिए अहम् और बुनियादी है। इस मामले में, यह तो गौरव की बात है कि ‘सत्यमेवजयते’ हमारे देश का पुनीत आदर्श है। लेकिन, यह भी ज़ाहिर बात है कि भारत की निजी और सार्वजनिक जगत में जितना ‘झूठ’ बोला जाता है वह उतना ज्यादा है कि, मुझे लगता है, कोई भी देश उसका कतई मुकाबला नहीं कर पायेगा। क्या विरोधाभास है! दैनिक जीवन के लेन-देन में आम लोगों द्वारा झूठी और फिसलन बात, व्यवहार भी, आम बात है। इससे भी खतरनाक बात यह है कि छोटे-बड़े तौर पर ज़िम्मेदार पदों को सँभालने वाले लोग भी कमोबेश बेहिचक और निठल्ले से झूठ बोले जाते हैं और खोखला व्यवहार करके लोगों को ठगतेे हैं। बुनियादी जीवन के किए ज़रूरी सामान क्या, खाना और दवाई तक, मिलावट और बेईमानी के शिकार हैं। विश्वसनीय चीज़ें बाज़ार में बेरोक-टोक कम होती जा रही हैं। सीधे, ईमानदार और सच बोलेने वाले लोगों की तादाद भी घटती हुई ही नज़र आ रही है। हकीकत में, नीतिकता ही धर्म, अनुशासन और मर्यादा का सबूत है। लेकिन, बस, उसी की बड़ी किल्लत है।

धार्मिक जगत में ‘मर्यादा और धर्म’ 

अब सीधे धर्मों की दुनिया पर नज़र डाला जाय। इन्सानी ज़िंदगी को सुचारू रूप से चलाने के लिए ऋषि और महापुरुषों के नाम पर धर्म की किस्म-किस्म की परंपराएँ प्राचीन काल से बनी हुई हैं या तवारीख के अलग-अलग पड़ावों पर बनती रही हैं। लेकिन, उन परंपराओं के व्याख्याता, ठेकेदार और नेतागण, कुल मिलाकर, खुदा की या दैवी-देवताओं की काफी काल्पनिक और अजीब तस्वीरें गढक़र और भक्तों में उसका डर पैदा कर उन्हें गुलाम बनाकर रखने में माहिर हुए हैं। साथ ही, वे भक्तों द्वारा स्वेच्छा से या मज़बूरन चढ़ायी गयी भेंट पर बखूबी ऐश भी करते हैं। वे खुदा की आड़ में खुद की पूजा करवाकर और खुदगर्जी व चालाकी के बलबूते अजीबोगरीब कहानियाँ और व्याख्याएँ के सहारे आम लोगों को बेवकूफ बनाते तथा लूटते हैं। जवाब में, लगता है, ज्यादातर भक्तगण अपने लिए खुद सोचना बद कर लिया है और खोखली अनुष्ठानों के मक्कड़-जाल में फँसकर अपनी ज़िंदगी को चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी अपने तथाकथित ‘मानवीय खुदा या देवी-देवताओं’ को सौंप दिया है। ऐसे में, असली अर्थ में धर्म और उसके नतीजे के तौर पर मर्यादा और अनुशासन देखायी दे, यह इतना आसान नहीं है।

राजनीतिक जगत में ‘मर्यादा और धर्म’ 

सरसरी निगाह से ही राजनीतिक दुनिया की गतिकी समझ में आती है। वैसे तो, भारत का संविधान ही शासन-प्रशासन की आधार-शिला है, होनी ही चाहिए। लेकिन, ऐसा लगता है कि संविधान के मूल्यों पर अमल करने की बजाय उसे अपने फायदे में इस्तेमाल करना ही सियासत की बुनियादी नीति और समझदारी है। इतिहास गवाह है, सियासत और शासन ही एक अकेला क्षेत्र है जहाँ कमोबेश उम्र-सीमा से मुक्ति के साथ-साथ आपराधिक और मूल्यहीन प्रवृत्ति सबसे अहम् योग्यता मानी जाती है, वह भी खास तौर पर भारत में। बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, इस दल के-उस दल के, मेरे काम के-नाकाम, मेरे साथ-मेरे खिलाफ, बिकाऊ-नहीं बिकाऊ, देशभक्त-देशद्रोही, आदि को लेकर चलना राजनीति का गणित है। ताकतवर, बुलंद आवाज़वाले, कुतर्क करने वाले, विषय को टालने वाले, सुननेवाले नागरिकों को लुभाकर ‘स्वर्ग-सा’ अहसास कराने वाले, आदि सियासत के असली और कामयाब सिपाही हैं। नतीजतन, आम नागरिकों को बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के ‘मनमोहक नारों’ से काफी कुछ संतुष्ट होना पड़ता है। ‘सत्ता से पैसा, पैसे से सत्ता’, ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’, ‘झूठ को सच के रूप में पेश कर और उसी को बार-बार दोहराकर उसी को ही सच के तौर पर मनवाना’, ‘खुद को ही सही और सफल के रूप में विग्यापित करना’, आदि तौर-तरीके ठोस राजनीति के साथ-साथ शासन-प्रशासन की भी पहचान है, ऐसा लगता है। ऐसे में, सियासती दुनिया से ‘मर्यादा या धर्म’ की उम्मीद रखना ही शायद बेमानी होगी। 

राजनीति और धर्म का मिला-जुला रूप

दुनिया गवाह है कि राष्ट्रों के इतिहास में सता और धर्म करीब-करीब साथ-साथ चले हैं। अपने देश के मुख्य धर्म-समुदाय का सहारा लेना राजनीति के लिए और राजनीति का सहारा लेना धर्म केलिए भी अपने पैर जमाने लिए और खूब प्रगति करने के लिए बेहद फायदेमंद होता है। शासक कौन बने, यह तय करने में धर्म के प्रमुख या प्रमुखों का काफी बड़ा हाथ है। ठीक उसी प्रकार, धर्म-प्रमुख अपने लायक शख्स बनें और बने रहें, इसे सुनिश्चित करने के लिए शासक भी हरमुमकिन अपनी ताकत जताते हैं। यह इसलिए है कि दोनो एक-दूसरे के खिलाफ हो या कम  से कम साथ न हो तो दोनों को परेशानियों का सामना करना पड़ सकता हैं। खैर, इससे धर्म और शासन दोनों का नापाक होना तय है। ज़ाहिर है, हमारा देश प्रखर रूप से ऐसे पेचीदा और नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है। मसलन, अयोध्या में बाबरी मज़जिद का बनना, उसे तुड़वाने के लिए आंदोलन चलाना, फिर राम मंदिर का बनना, उसके भूमिपूजन उस देश के प्रधान मंत्री द्वारा होना, जिसका संविधान का अहम् भाव ‘पंथ-निरपेक्षता’ है, आदि आदि उपर्युक्त नज़रिए से देखा जाना चाहिए। ‘संविधान’ असल में भारत का धर्म-ग्रंथ है जिसकी ‘मर्यादा’ पर चलना ज़ाहिर तौर पर नागरिकों के साथ-साथ शासन-प्रशासन का भी फर्ज है। इतना ही नहीं, विविध समुदाय, धार्मिक हो या अन्य, बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, जाति-लिंग-भाषा-खानपान-पहनावा-विचारधारा-संस्कृति आदि के समुदाय हो या राष्ट्रीय दल, एक दूजे के बीच ‘शालीनता-रेखा’ का भंग न करे, यह बुनियादी मर्यादा की माँग हैं। तभी मर्यादा का मेल सही मायने में धर्म या धर्माचार से होगा। खेद की बात यह है कि ऐसे आज़ाद भारत को तामीर करने के लिए नागरोकों को बड़े पैमाने पर प्रबुद्ध होना और एकजुट होना अब बाकी है।         

आर्थिक जगत में ‘मर्यादा और धर्म’ 

आर्थिक जगत की ओर नज़र डाला जाय तो हालात और विचित्र है। एक तरफ, गिने-चुने अति-धनी लोग जो देश की संपत्ति और सुख-सुविधाओं के ज्यादातर हिस्से भोगते हैं। दूसरी तरफ, कुछ बीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे, सडक़-गलियारे या पुल-फ्लाईओवर के नीचे, भिखारी बनकर या झोंपड़-पट्टियों में रह-बसर करने को मज़बूर हैं। काफी लोग ज्यादा खाने से बहुत बीमार होते हैं, जब बहुत ज्यादा लोग खाने के लिए कुछ नहीं होने से मर जाते हैं या मरा-मरा-सा जीते हैं। बहुत लोग रोटी, कपड़ा, मकान ही नहीं,  सफाई, स्वास्थ्य और चिकित्सा-संबंधी बुनियादी ज़रूरतों की कमी से अकाल मौत के शिकार होते हैं, जब कुछ लोग देश-विदेश में ज़रूरत से बहुत ज्यादा चिकित्सा-संबंधी सुविधाएँ भोगते-भोगते ऊब जाते हैं। छोटे-मोटे काम कर ज़िंदगी गुज़ारने वाले निचले तबके के और रोज़गार तथा कुछ बेहतर रोज़गार के लिए भटकने वाले निम्न-मध्य वर्ग की परेशानियों की भी कहानियाँ भी बहुत कम दर्दनाक हो, ऐसा तो नहीं है। अमीर-गरीब के दम्र्यान मौजूद आसमान-पाताल-सी खाई के चलते ‘मर्यादा’ कहाँ टिकेगी, लवलेश भी? जहाँ लोग, पैसेवाले ज्यादा भी, तंगदिल और खुदगर्ज हैं, जहाँ औरों के लिए जगह नहीं के बराबर है या बहुत कम है, वहाँ ‘धर्म’ सही मायने में कैसे पैर जमायेगा?

सामाजिक जगत में ‘मर्यादा और धर्म’ 

सामाजिक जगत की कहानी इससे भी हेय और दर्दनाक है। प्राचीन काल से लेकर उँच-नीच का भाव, फिर्कापरस्ती और असमानता इस देश की विरासत-सी रही है। विरोधाभास की बात यह है कि इस विरासत को धर्म का ठोस समर्थन हासिल था। इसी परंपरा में लोग एक दूसरे को अपना-पराया, बड़ा-छोटा, सही-गलत, आदि माना करते थे। उँची जाति के लोग नीची जाति के लोगों को गुलाम-जैसे मानते और उनसे हर प्रकार की सेवा लेते ही नहीं, उन पर कई प्रकार के अत्याचार भी करते थे। वे कुछ लोगों को जाति की सीढ़ी से बाहर कर उन्हें अछूत मानते और लाखों की तादाद में उनका कत्ल भी किया करते थे। भूजनांकिकी के मुताबिक, ज्यादातर रंग को लेकर किया गया यह श्रेणीकरन भारत में बाद में आये आर्यों द्वारा पहले आये द्रविड़ों को दबाने, भगाने, किनारा करने या खतम करने के इरादे से किया गया था। खैर, कुछ लोग अपने आप को पहले दर्जे के और औरों को दोयम दर्जे के मानना आम बात रही। यह परंपरा आज भी तरह-तरह के तरीकों में मौजूद है, यह, हकीकत में, धिक्कार की बात है। सामाजिक जगत की यह खुदगर्जी, गैर-बराबरी और दुर्भाव धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों पर भी असर करता हुआ ‘मर्यादा’ और ‘धर्म’ की धज्जियाँ उड़ाती हुयी दिखायी देना, वास्तव में, खेद की ही नहीं बड़े धक्के की बात है। चूँकि किसी-किसी मायने में हमारा देश कुछ बेहतर ज़रूर हुआ है, सामाजिक समानता की जगत में अति पिछड़ा हुआ रहना अभी भी इसकी नियति है, ऐसा लगता है।         

‘अच्छा इन्सान’ मर्यादा और धर्म का प्रतीक

कवि, दार्शनिक और समाज-सुधारक श्री नारायण गुरु ने वर्तमान केरल को बनाने की दिशा में एक अहम् योगदान दिया है। उनका कहना है, ‘मज़हब हो कोई भी, इन्सान भला सो भला’। कोई शख्स किसी भी मज़हब या विचारधारा का पालन करे या न करे, यह उसकी आज़ादी है। यदि वह ‘अच्छा इन्सान’ है तो वह बहुत काफी है। इन्सान के लिए अच्छा इन्सान होना ही आखिरी मूल्य है। अच्छा इन्सान वह है जो मूल्यों पर अमल करने को अपना धर्म समझता हो। अच्छा इन्सान वह है इन्सानियत ही जिसका स्वभाव हो। अच्छा इन्सान वह है जो अनुशासन में रहता हो। अच्छा इन्सान वह है जो अपने और औरों के दम्र्यान शिष्टता रेखा का खयाल करता हो। अच्छा इन्सान वह है जो भीतर-बाहर के बीच पारदर्शिता रखता हो। अच्छा इन्सान वह है जो नैतिक मूल्यों पर अमल करता हो। अच्छा इन्सान वह है जिसका स्वभाव ही मर्यादा है। अच्छा इन्सान वह है जो ‘मर्यादा में रहने को ही अपना धर्म’ समझता हो। ‘आखिर, मर्यादा में रहना ही धर्म है’। 

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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संदेश (मासिक), पटना, वर्ष 71, अंक 11, पृ.सं. 14-15 – नवंबर 2020 में प्रकाशित 

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