धार्मिक समन्वय और विश्वशान्ति
धार्मिक समन्वय
और विश्वशान्ति
डॉ. एम. डी. थॉमस
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एक से अनेक होना, अनेक से एक होना — यह जीवन की प्रक्रिया है। अनेकता सिर्फ तादाद का खेल नहीं है। उसमें विविधता का गुण छिपा हुआ है। विविध होने का मतलब है — कुछ अलग पहचान रखना। जितने अलग हैं, ठीक उतने ही प्रकार भी हैं। हर एक की अपनी-अपनी खासियत है, अपनी-अपनी पहचान भी। लेकिन यह पहचान पूरी तरह से स्वतन्त्र नहीं होती है। कटी हुई पहचान फटी हुई होती है। अलग होकर भी एक है। जैसे एक होकर भी अलग है! जीवन की इस बुनियादी हकीकत की नींव पर ज़िन्दगी की इमारत खड़ी होती है। उस रहस्य का अहसास लिए बिना ज़िन्दगी को समझना नामुमकिन है।
विविधता और एकता - देखने और समझने के दो तरीके हैं। विज्ञान की दृष्टि से गौर किया जाय तो भिन्नता दिखायी देगी। कला की दृष्टि से नज़र डाला जाय तो समरसता सामने आयेगी। करीब से देखिए, लगेगा कि अलग है। दूर से देखिए, एक निगाह में देखिए, तो एकता नज़र आयेगी। शरीर के भाव से सब कुछ भिन्न-भिन्न है, आत्मा के भाव से महसूस होगा कि एक है। बस, नज़रिया का फर्क है। दोनों नज़रिये एक सिक्के के दो पहलू के समान आपस में जुड़े हुए हैं। दोनों ऐसे हैं, मानो एक रस्सी के दो सिरे हों। विविधता और एकता दोनों चाहिए। दोनों के मेल-जोल से ज़िन्दगी बनती है।
विविधता में एकता और एकता में विविधता — यह रचयिता का करिश्मा है। प्राण की परिकल्पना इसी में निहित है। सृष्टि के सभी तत्व इसी तन्त्र के ताने-बाने से बने हुए हैं। यह रचना की खूबी है। संसार का कोई भी पहलू इस मन्त्र से नहीं बच सकता, चाहे वह वनस्पति हो, या जीव-जन्तु या इन्सान। इन्सानी समाज की खास गरिमा इस उदात्त भाव में पायी जाती है। भारतीय समाज की अहमियत खास तौर पर इसी अहसास पर टिकी हुई है।
भारत के राष्ट्रीय नारे के रूप में और उसकी राष्ट्रीय पहचान के रूप में विविधता और एकता का आपसी रिश्ता कुछ अनोखा ही है। भारत में जितनी बोलियाँ और भाषाएँ हैं, उतनी दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। उसके साहित्य की भिन्न-भिन्न धाराएँ हैं। कला, संगीत, नृत्य आदि की शास्त्रीय तथा लोकविधाएँ भाँति-भाँति की हैं। खाने और पीने का अपना-अपना अंदाज़ है, अपना-अपना स्वाद । वेशभूषा के असंख्य तरीके हैं। जनता की अनेक जातियाँ और जनजातियाँ हैं। ज़मीन और जलवायु में जगह-जगह बेहद फर्क पाया जाता है। विचारधाराओं की कोई गिनती नहीं है। आस्थाओं की अपनी-अपनी भावना है। विश्वासों का अपना-अपना तर्क है। धार्मिक अनुष्ठानों की भिन्नताएँ कल्पना के परे की बात है। धर्म की अपनी-अपनी परिभाषा है। मज़हब अनेक हैं। नीतिशास्त्र, जीवन मूल्य और व्यवहार के कई आयाम हैं। सँस्कृति की अनगिनत धाराएँ हैं। ऐसे में कौन कह सकता है — यह सही है और वह गलत है। इस नज़र से देखा जाय, तो कहना चाहिए, सभी में कुछ सही है और कुछ गलत भी। हर एक की अपनी-अपनी अहमियत है। भारत जैसे विशाल देश को इन सबों की सख्त जरूररत है। सब मिलकर, अर्थात् विविधताओं की एकता में, भारतीय संस्कृति बनती है। मतलब यह है, समन्वय-भावना में इन्सानी संस्कृति की असली झलक मिलती है।
समन्वय-भावना की सबसे अच्छी मिसाल संगीत - की दुनिया में पायी जाती है। स्वर, ताल और लय के मिलन से संगीत बनता है। पूरे संगीत के लिए गाने, बजाने और नाचने का मेल-जोल चाहिए। अलग-अलग साज, गायक आदि एक आधार स्वर पर आपस में मिले, एक ताल में बन्ध जायें- संगीत का यही बुनियादी मन्त्र है। ताल-मेल में संगीत होता है और वह सुनने वाले के दिल को झंकृत कर देगा, छू लेगा और उसे एक अलौकिक दुनिया में पहुँचायेगा ।
समन्वय-भावना की सबसे प्रेरणादायक मिसाल का बाइबिल में उल्लेख है— ‘एक शरीर, अनेक अंग’ (पवित्र बाइबिल, नया विधान, कुरिंथी 1:12-28, पृ. 265-66)। अलग-अलग और बहुत से अंग होने पर भी शरीर एक होता है। यदि सबके सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता? वास्तव में खुदा ने अपने इच्छानुसार शरीर में एक-एक अंग को अपनी-अपनी जगह रचा। सिर पैर से नहीं कह सकता, ‘मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं है।’ आँख हाथ से नहीं कह सकती, ‘मुझे तुम्हारी ज़रूरत नही’। शरीर के जिन अंगों को कम आदरणीय समझ्ते हैं, उनका अधिक आदर करते हैं। जो अंग दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं। यदि एक अंग को पीड़ा होती है तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है। यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं। समाज की विभिन्न इकाइयों के समन्वय के लिए, धर्मिक समन्वय के लिए, इससे ठोस और अच्छा प्रमाण कहाँ मिलता !
इन्सानी समाज में, समूची प्रकृति में भी, ताल-मेल हो, आपसी रिश्ता हो। असली ज़िन्दगी की शुरुआत वहीं होती है। एक दूसरे के बीच सद्भाव हो समभाव हो, सम्मान हो, सम्बन्ध हो, सहयोग हो, और समन्वय हो। यही है इन्सानी ज़िन्दगी की असली परिभाषा। इन्सानी समाज में एक परिवार होने का अहसास हो, एक समुदाय होने की चेतना हो — ऐसी समन्वय-भावना में ही इन्सानियत की निखार आयेगी।
भारत देश अपनी आध्यम्मिक विरासत के लिए मशहूर है। नमक यदि फीका पड़ जाय तो वह किसी काम का नहीं रह जाता । वह बाहर फेंका जाता और लोगों के पैरों तले रौंदा जाता है (पवित्र बाइबिल, नया विधान, सन्त मत्ती 5.3, पृ.6)। वर्तमान समाज में धर्म बडी मात्रा में फीकी हो गयी है। धर्म और अधर्म का फासला करीब-करीब नहीं रह गया है। मज़हबी खुदगर्जी और दूसरे पर शासन करने की होड़ दोनों मिलकर भारतीय समाज को बरबादी के कगार पर पहुँचा रहे हैं। साम्प्रदायिक तनाव और हत्या आम बात हो गयी हैं। अतीत की कितनी गारिमा, लेकिन वर्तमान की कितनी गिरी हुई हालत! कितना खूबसूरत देश, लेकिन, कितना बदनाम! कोई किसी और धर्म-समुदाय का सदस्य है और आस्था की किसी और धारा पर यकीन करता है, इस कारण उसे मारा जाता, तकलीफ पहुँचाया जाता या किनारे कर दिया जाता है! अधर्म की इससे बड़ी सबूत क्या है? धर्म के नाम पर पाखण्ड के लिए इससे बड़ी गवाही क्या चाहिए? आध्यात्मिकता की इससे ज्यादा घुटन क्या है? दुनिया के स्तर पर भी दूसरे पर सत्ता जमाने की धुन सवार है।, दूसरे को बेचकर मुनाफा ऐंठने का दौर चल रहा है। लग रहा है, गुण्डों का राज है। स्वार्थ और फि रकापरस्ती का बोल-बाला है। आम इन्सान को तड़पना पड़ रहा है। इन्सानियत किस हद तक बदहाल हो गयी है इसका बयान करना भी मुनासिब नहीं है। जो नेक इनसान इसके बारे में सोचता है और इस हालत को सुधराने के लिए कुछ करना चाहता है, उसे बड़ी तकलीफ होती है, बेचैनी होती है ।
धार्मिक समन्वय से ही विश्व समाज में, खास तौर पर भारतीय समाज में, अमन और शान्ति कायम हो सकती है। यह बेहद जरूरी है कि धर्मालु जन अन्धविश्वास में बह न जाये, रूढि़वादी और कट्टर न बने, कर्मकाण्ड से उपर उठकर इन्सानियत के लायक गुणें को हासिल करें। वे मानवीय मूल्यों पर अमल करते हुए धर्माचार करें। वे अपने भीतर यह चेतना जगाये कि सभी धर्म-परम्पराएँ भाषाएँ, विचारधाराएँ, सँस्कृतियाँ आदि एक ही खुदा की देन है। ये सब किसी भी खास समुदाय की बपौती न होकर मानव समाज की सम्मिलित विरासत है। अपने आप में वे सब अधूरी और सीमित हैं। सबकी अपनी-अपनी खूबियाँ ज़रूर हैं, लेकिन खमियाँ भी। सब कोई एक इसरे के पूरक हैं। सब को एक दूसरे की ज़रूरत है। सभी धर्म-परम्पराएँ एक दूसरे के लिए आईने के समान हैं। एक दूसरे की मौज़ूदगी में वे अपनी-अपनी कमियों को पहचानेंगी, उनसे उपर उठेंगी और अपनी खूबियों से दूसरे को समृद्ध करेंगी। इस प्रकार वे सब इन्सानी समाज को बेहतर बनाने में काम आ सकती है।
धार्मिक समन्वय के लिए धर्म-नेताओं की पहल- निहायत ज़रूरी है। मज़हब अपनी-अपनी अहमियत को बनाये रखते हुए दूसरे मज़हब से रिश्ता जोड़े हुए रहे। अपनी बनायी हुई चहारदीवारियों से उपर उठकर दूसरे की ओर हाथ बढ़ाना वक्त की ज़रूरत है। दूसरी धर्म-परम्परा में, दूसरे धर्मालु व्यक्ति को, एक ही मूल से आने वाले और एक ही गन्तव्य की ओर जाने वाले मुसाफिर के रूप में पहचानकर उसके साथ मिलकर चलना चाहिए। उसके कन्धे से कन्धा लगाकार, कदम में कदम मिलाकर, ज़िन्दगी के सफर को तय करने में जीने की कला निहित है । दूसरे की रहनुसाई करने के बजाय उससे सीखने और प्रेरणा लेने की राह चलना चाहिए। खुद जीये और दूसरों को जीने दें — यह ज़िन्दगी का आम नियम है। साथ ही, दूसरों की जीने की मदद करनी चाहिए। इन्सानियत का तकाज़ा यह है। हरेक को दूसरों के प्रति, समूची ज़िन्दगी के प्रति, सकारात्मक मानसिकता को धारण किये हुए रहना चाहिए। मानवीय समाज को अधिक जीने लायक बनाने के लिए, बेहतर समाज की रचना के लिए, लिये गये संकल्प पर ईमानदारी से अमल करते हुए खुदा की दी हुई अपनी-अपनी ज़िन्दगी को जिया जाना चाहिए। यही असली धर्म है। धर्म-परम्पराओं और आस्थाओं के आपसी ताल-मेल में धर्म की सार्थकता निहित है। धार्मिक समन्वय में ही इन्सानी समाज में, चाहे वह भारत में हो या सारे विश्व में, शांति हासिल होगी।
महात्मा कबीर ने धार्मिक समन्वय द्वारा विश्व
शान्ति- को हकीकत बनाने के
लिए एक बहुत ही कारगर नुस्खा पेश किया है। बहता पानी निर्मला, बन्दा गन्दा होय। साधू
जन रमता भला, दाग न लागे कोय।। हर धर्म-परम्परा, हर आस्था, हर भाषा, हर संस्कृति, हर
इन्सान, बहते पानी के समान दूसरे की ओर बहते रहे, स्वच्छ और शान्त भाव से एक साथ खुदारूपी
सागर की ओर साथ-साथ बहते रहे। सरिताएँ मिलकर नदी बन जायें और अपनी मंजिल का सफर तय
करें। यों कहा जाय, चलते रहें चलते रहें, इसी का काम ज़िन्दगी। मिलके चलें साथ चलें,
इसी में ज़िन्दादिली।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
निम्नलिखित माध्यमों
के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p),
‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’
(p) and ‘www.ihpsindia.org’
(o); सामाजिक
माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’
(o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’
(p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).
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सन्देश (मासिक), पटना, अंक 06, पृष्ठ संख्या 23-25 में -- 07 अगस्त 2003 को प्रकाशित
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