वंचित वर्ग और मानव अधिकार : ईसाई दृष्टिकोण
वंचित वर्ग और मानव अधिकार : ईसाई दृष्टिकोण
डॉ. एम. डी. थॉमस
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1. वंचित वर्ग और मानव अधिकार
1.1. वंचित वर्ग का संदर्भ
‘वंचित वर्ग’ मानव समाज का वह वर्ग है जो किसी-न-किसी प्रकार से धोखे में आया हुआ हो या ठगा गया हो। यह कुछ ऐसे लोगों का समूह है जो किसी काम, चीज़ या बात से अलग किया गया हो या रहित हुआ हो। यह वे लोग हैं जो वांछित पदार्थ प्राप्त न कर सका हो या जिसे प्राप्त करने से रोका गया हो।1 वंचित वर्ग वंचित वर्ग इसलिये है किवह किसी-न-किसी प्रकार के छल का शिकार हुआ है और इस कारण असुविधाओं से ग्रस्त है। वंचित वर्ग में शुमार लोग हाशिये पर सरकाये हुए होकर लगभग सभी मामलों में पिछड़े और कमज़ोर रह गये हैं। दूसरे शब्दों में, वंचित वर्ग जिंदगी की पटरी से उतरा या उतारा हुआ जन-समूह है, जिसके जीवन की गति की चर्चा ही काफी हद तक हास्यास्पद लगती है। वंचना की गिरफ्त में आकर अनेक प्रकार की कमियों से होकर गुज़ना वंचित वर्ग की बदकिस्मती है और यही इस शब्द से द्योतित है।
1.2. वंचित वर्ग के विविध आयाम
वंचित वर्ग में सभी तबकों के लोग शामिल हैं। पुरुष की अति-सत्ता के मारे स्त्री अपने हक से वंचित रह जाती है। कुछ लोगों की अति-अमीरी की वजह से बहुत लोगों को आजीविका के आर्थिक संसाधनों से रहित होकर रोटी, कपड़ा और मकान के लिये बुरी तरह से तरसना पड़ता है। ज़रूरत से बहुत कम आमदनी पाकर करोड़ों लोग बिजली, पानी, शौचालय, दवाई, आदि बुनियादी ज़रूरतों के लिये संघर्ष करते रहते हैं। अपने को ऊँची जाति और ऊँचे वर्ग के समझनेवाले लोगों के अहम् के भाव के कारण अनेक लोग सामाजिक तिरस्कार के साथ-साथ बहिष्कार के भी शिकार होते हैं। कुछ लोगों के मज़हबी घमण्ड और गलतफहमी की वजह से कई लोग गलत और नियति के बोझ से दबे हुए माने जाते हैं या निकृष्ट दृष्टि से देखे जाते हैं।
साथ ही, आर्थिक कारण से बच्चे लाखों की तादाद में अनपढ़ और अशिक्षित रह जाते हैं और मज़बूरन बाल-मज़दूरी में लग जाते हैं। लैंगिक तौर पर बीमार पुरुषों के हवस के शिकार होकर बहुतेरे बच्चे और महिलाएँ यौन-शोषण की पीड़ा ताउम्र भोगते रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सांप्रदायिक, लैंगिक, आदि कतिपय कारणों से करोड़ों लोग अपने बहुविध हकों से वंचित होकर समाज के किनारे पर जीने के लिए मज़बूर हो जाते हैं तथा असुविधाओं और तकलीफों से लड़ते रहते हैं। वंचित वर्ग के दुख-तकलीफों की तालिका इतनी लंबी है और इसके तहें इतने जटिल हैं कि उनका पुख्ता ब्योरा नामुमकिन है।
1.3. वंचित वर्ग घोर मानव अधिकार के हनन का शिकार
बुनियादी सुविधाओं से लैस होना नागरिक होने के नाते हर इन्सान का अधिकार है। लेकिन, कुछ लोगों के पास आय से या ज़रूरत से बहुत अधिक संपत्ति के मालिक होने पर बहुतेरे लोग अपनी जरूरतों की पूर्ति की सीढ़ी के सबसे निचले चरण तक भी नहीं चढ़ पाते हैं। सम्मानपूर्वक हालातों में जीने का अवसर मुहैया होना हर इन्सान का संवैधानिक हक है। किंतु, सामाजिक और आर्थिक कारणों से करोड़ों लोग धिक्कार का पात्र बने हुए हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर देखा जाय, शासक वर्ग आम आदमी के प्रति जवाबदेह नहीं है। विगत दो दशकों में डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है। घोटालों की रकम बढ़ती जा रही है। आदिवासियों को जल, जंगल और ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है। आदिवासी, किसान, युवा और ग्रामीण लोग उपेक्षित तबकों में शुमार हैं।2
इसके अलावा, कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, पारिवारिक तनाव, निकम्मापन, बेकारी, भिखारीपन, भ्रष्टाचार, आदि बढ़ते हुए नज़र आते हैं और उन कदाचारों का खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ता है। बहुसंख्यक लोगों की मानसिक और व्यावहारिक भ्रष्टता के कारण इस देश के ज्यादातर लोग किसी-न-किसी प्रकार से वंचित वर्ग में शामिल हुए हैं। यह हालात वास्तव में इन्सान और नागरिक होने के नाते मानव अधिकार का घोर हनन ही है। व्यक्ति और समुदाय के रूप में हर एक की अपनी-अपनी जगह है, हक है। जब इस पुनीत जगह को जबरन छीना जाता है और हक को भंग किया जाता है, सामाजिक जीवन में असन्तुलन पैदा होता है। सामाजिक जीवन का सन्तुलन बिगड़ जाने का दुष्परिणाम है समाज में वंचित वर्ग की मौज़ूदगी। वंचित वर्ग अपने आप में मानव अधिकार का सबसे अहम् और चुनौतीपूर्ण मुद्दा है।
1.4. वंचित वर्ग के साथ कर्तव्य-पालन में भारी चूक
समृद्ध वर्ग की कर्तव्यहीनता के कारण वंचित वर्ग का मानव अधिकार एक मसला बनता है। अधिकार और कर्तव्य एक सिक्के के दो पहलू के समान आपस में पूरक हैं। ये दो बातें गाड़ी के दो पहिये के समान एक दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं। अधिकार और कर्तव्य के पलड़े बराबर नहीं होने पर समाजरूपी तराजू का सम-तोलन के साथ-साथ तालमेल भी बिगड़ जाता है। भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों की भी चर्चा हुई है। इन पहलुओं में आपसी संतुलन बनाये रखने में भूलचूक होने की वजह से ही समाज में वंचित वर्ग रूप लेता है। एक अपने कर्तव्य का पालन करे, तभी दूसरे को अपना अधिकार हासिल होगा। किसी को अपने ओहदे की आज़ादी हासिल हो, उसकेलिए अपने हक़ की आज़ादी दूसरे को भी मिले, यह दरकार है। आत्मसम्मान का हक हर इन्सान के हिस्से में है। कोई इससे किसी को वंचित नहीं करे, यह बुनियादी तौर पर ज़रूरी है।
इतना ही नहीं, किसी का शोषण करना, किसी को पीड़ा पहुँचाना, किसी को अपने से छोटा समझना, किसी को हीनभावना से देखना, किसी पर हमला करना, आदि अपने कर्तव्य-पालन में चूक ही नहीं, उसके अधिकार का घोर हनन भी है। अति-स्वार्थी होकर ज़रूरत से ज्यादा चीज़ें बटोरना और उन्हें अपने पास रखना भी मानव अधिकार के विचार से दण्डनीय है। अनेक प्रकार से अपने जीने के अधिकार से वंचित लोग, हकीकत में, मानव अधिकार से वंचित हैं। संविधान का आदेश है ‘राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा’।3 इसके बावजूद, शासन, प्रशासन और कानून की तरफ़ से भारत के करोड़ों नागरिकों को समान व्यवहार प्राप्त नहीं होता। उनकी हालत अभी भी ज्यों-का-त्यों ही नहीं, बदतर है। वंचित वर्ग के लोगों को जीने, सीखने, बढ़ने, आदि के लिए समान संसाधन और अवसर हासिल नहीं होते हैं और वे भारत देश के निकम्मापन, कर्तव्यहीनता, स्वार्थ, लालच, मूल्यहीनता और हृदयशून्यता की जीवंत मिसाल के तौर पर जिये जा रहे हैं। साथ ही, ये हालात भारत में चला रहे धर्म-भाव और नैतिकता से विहीन जंगल-राज की तस्वीरें भी पेश करते हैं। अपने कर्तव्य-पालन में हो रही भारी चूक के कारण औरों के मानव अधिकार के घोर हनन की अनगिनत मिसालें वास्तव में भारत की संस्कृति पर गहरा कलंक ही नहीं, महाशक्ति बनने की हौड़ में लगे हमारे देश के लिये बेहद लज्जास्पद भी है।
2. वंचित वर्ग का मानव अधिकार और ईसाई नज़रिया
2.1. वंचित वर्ग को थामना धर्म का विशेष कर्तव्य
धर्म का मकसद कोरी अलौकिक उसूलों को पेश करना या महज मज़हबी अनुष्ठानों में लगे रहना नहीं है। मानव अधिकार की रक्षा ही ‘धर्म’ की अहम् भूमिका है। हर तबके के लोगों से ‘जुड़ना-जोड़ना’ धर्म का काम है। कोई ईश्वर से जुड़े और इन्सान से न जुड़े, यह असल में कोई धर्म नहीं हुआ। धार्मिक कहलानेवाले लोग अपने समुदाय की चहारदीवारियों में कैद रहे और दूसरे समुदायों से अछूता रहे, इसमें भी कतई कोई तुक नहीं है। धर्म सिर्फ अपना बेड़ा पार करवाने का साधन नहीं है। सामाजिक जीव होने के नाते कोई इन्सान अकेले भला कैसे पार हो सकता है! यदि किसी का बेड़ा पार भी हो जाये, वह किस काम का है! औरों का खयाल करना और सभी समुदायों से मिल-जुलकर रहना ही वाकई धर्म-कर्म है। खुदा की इबादत, पूजा, प्रार्थना, अर्ज, आदि आध्यात्मिक समझ और ऊर्जा को हासिल करने का ज़रिया मात्र है, जो खुदा की औलाद से जुडऩे के लिये आवश्यक है।
आपस में प्यार-मुहब्बत का रिश्ता कायम रहे, हर एक के साथ बराबरी का बर्ताव हो, इस के लिये अधिकारों और कर्तव्यों का पुख्ता इन्तज़ाम चाहिए। धर्म बहुसंख्यकों और ताकतवरों का खेल नहीं होकर हर इन्सान को, हर तबके को, हर समुदाय को, थामने की पद्धति है। आखिर, धर्म का तात्पर्य भी ‘कर्तव्य’ से है। कर्तव्य का चयनित इस्तेमाल गलत ही नहीं, अनैतिक और खतरनाक भी है। राजा और प्रजा का अपना-अपना कर्तव्य-धर्म है। माता-पिता और बेटे-बेटी के भी धर्म होते हैं। भाई-बहन, दोस्त-यार और साथी-सहेली आपसी धर्म के बंधन में है। अजनबी और दुश्मन के प्रति भी धर्म होते हैं। शासक और शासित तथा हर व्यक्ति और समुदाय एक दूसरे के प्रति जब अपना कर्तव्य निभाये, तभी हर इन्सान का अधिकार सुरक्षित रहेगा। धर्म मानव कर्तव्यों की प्रणाली मात्र है।
साथ ही, सही मायने में, धर्म का मतलब ‘धारण करना’ है। कर्तव्यों और अधिकारों दोनों को धारण करना होता है। धारण करने का मतलब ‘ज़िम्मेदारी लेना’ है। धर्म-तंत्र की ज़िम्मेदारी अपनी-अपनी परंपरा में आस्था रखनेवालों को अपने ‘कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सजग’ करना है। हर व्यक्ति और समुदाय दूसरों से अपनी ‘अपेक्षाएँ’ रखने से पहले या उसके साथ-साथ उनके प्रति अपनी ‘ज़िम्मेदारियाँ’ भी निभाएँ, यही धर्म का मर्म है।4 व्यक्ति और समुदाय के स्तर पर इन्सान के अति-स्वार्थ की वजह से बहुत बेकसूर लोग हाशिये पर सरकाये जाते हैं। वे अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। तरजीही तौर पर उन बेसहारों और कमज़ोरों को थामना धर्म-प्रणाली और धर्म-भावना से ओतप्रोत लोगों का स्वभाव होना चाहिये। बार-बार देवालयों की शरण लेना, तीर्थ-स्थानों की ओर खिसक जाना और व्रतादि कर्मकाण्डों में मस्त रहना जीवन की ज़िम्मेदारियों से पलायन करने का रवैया है।
असल में, हर इन्सान के अधिकारों की रक्षा करने की दिशा में धर्म अपने आप में ‘अंतरात्मा की बुलंद आवाज़’ बन जाये, यही धर्म का आखिरी लक्ष्य है। असल में धर्म मानव अधिकारों की दिशा में एक ‘बुलंद चेतना’ है। दूसरे शब्दों में, यह ‘मानव अधिकारों की स्वीकृति एवं रक्षा की पुख्ता व्यवस्था’ है। धर्म-परम्पराओं से उभरे सार्वभौम मूल्यों के बलबूते इन्सान को, खास तौर पर वंचित वर्ग के बदकिस्मत भाई-बहनों को, अपनी ज़िंदगी में अपने अधिकारों को हासिल करने में मदद करे, धर्म-परम्पराओं की यही सार्थकता है। वंचित वर्ग को विशेष रूप से थामना ही धर्म का बुनियादी कर्तव्य है। यही नज़रिया ईसाई धर्म की रीढ़ की हड्डी है।
2.2. वंचित वर्ग में ‘ईश्वर की सदृशता और मौज़ूदगी’ज्यादा बुलंद
र्ईसाई परंपरा में मानव दृष्टि की नींव यह मान्यता है कि ‘इन्सान ईश्वर का प्रतिरूप’ है। बाइबिल में इस बात की चर्चा साफ तौर पर हुई है। इन्सान ‘ईश्वर का प्रतिरूप’ बनाया गया है और वह ‘ईश्वर के सदृश’ है।5 इस लिये ईश्वर का स्वभाव मनुष्य पर छाया रहता है और उसके सात्विक विचारों और आचारों में बखूबी प्रतिफलित है। बाइबिल की कुछ पुस्तकों के लेखक पौलुस के शब्दों में, इन्सान ‘ईश्वर का मन्दिर’ हैं और ‘ईश्वर की आत्मा उसमें निवास करती’ हैं’।6 ईश्वर इन्सान में वास करता ही नहीं, वह इन्सान के ‘साथ सदा सफऱ करता’ भी है।7 ईश्वर का प्रतिरूप होकर, ईश्वर के सदृश होकर, ईश्वर का वास-स्थान या घर होकर और ईश्वर का हमसफर होकर, इन्सान उस ‘प्रतिष्ठा और गरिमा के लायक’ है, जो ईश्वर को दिया जाता है। ईश्वर का ‘प्रतीक और प्रतिनिधि’ होकर हर इन्सान ‘इज़्जत और सम्मान का हक़दार’ है। खुदा को पूजा या इबादत की ज़रूरत नहीं होती है। इन्सान के साथ किया जानेवाला सद्व्यवहार ही है खुदा की असली पूजा या इबादत। इसलिये ईसा कहते हैं कि ‘तुम मेरे इन भाइयों या बहनों के लिए, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, जो कुछ करते हो, वह तुम मेरे लिए ही करते हो’।8
मतलब यह है, ‘इन्सान की सेवा’ ‘ईश्वर की पूजा’ के बराबर है। यह बात सिर्फ उन लोगों पर लागू नहीं होती जो समाज के ऊँचे तबके के हैं, बल्कि उन लोगों पर भी जिन्हें समाज ने दबाकर या किनारे पर सरकाकर रखा है। इतना ही नहीं, आवाज़हीनों और कमज़ोरों में खुदा का रूप, सदृशता और मौज़ूदगी ज्यादा झलकती है। धिक्कार के पात्र हुए उन लाचारों और ज़रूरतमंदों में खुदा का रूप ज्यादा बुलंद रहता है। इस ईसाई मान्यता की बुनियाद यह है कि खुदा का अवतार होकर भी ईसा गरीब के रूप में कमतरों के बीच गौशाला में पैदा हुए और उन्हें इज्ज़त दिलाने हेतु उनके दोस्त बनकर उनके साथ घूमे-फिरे और मरे। किसी भी कारण से वंचित वर्ग में शुमार अभागे इन्सान तरज़ीही तौर पर खुदाई तवज्जो और आदर के लायक है, यही ईसाई नज़रिया है। यह क्रांतिकारी मान्यता मानव अधिकार की चर्चा में बुनियादी तौर पर बेशकीमती है।
2.3. वंचित वर्ग के साथ ‘समभाव’ की गुहार
समभाव ईसाई जीवन-दृष्टि का केन्द्रीय मूल्य है। ईसा ने ईश्वर को ‘पिता’ के रूप में महसूस किया और खुद को उस पिता का बेटा समझने के साथ-साथ सब मनुष्यों को भी उस ‘पिता की सन्तान’ मानी। अपने अंतरंग ईश्वरीय ज्ञान की कसौटी पर उन्होंने यह उद्घाटित किया कि पिता ईश्वर के लिए अपनी समस्त इंसानी औलाद बराबर महत्व की है। समभाव वास्तव में ‘ईश्वरीय गुण’ है। ईसा ने अपने स्वर्गिक पिता के इस अनुपम गुण को इन शब्दों में चित्रित किया कि ‘अपने स्वर्गिक पिता भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है’।9 ईसा ने अपने आदर्श पिता की मानसिकता को पूरी तरह से अपनाया और ‘पूर्ण समभाव की वकालत’ करते हुए अपने शिष्यों से कहा,‘तुम पूर्ण बनो, जैसे तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है’।10 समभावपूर्ण व्यवहार ही ‘पूर्णता’ की सही परिभाषा है। इसी में ‘धर्म और आध्यात्मिकता की चरम सीमा’ भी पायी जाती है।
ज़ाहिर तौर पर, ईसा की इस सर्वसमावेशी दृष्टिकोण से उपर्युक्त ईसाई मान्यता की शुरूआत हुई कि तथाकथित वंचित वर्ग भी बराबरी के भाव के हकदार है। आखिर, ऊँच-नीच की धारणा पर आधारित अलगाववादी व्यवहार की वजह से ही मानव समाज में वंचित वर्ग ने रूप लिया है। लेकिन, ईश्वरीय योजना में छोटे-बड़े के बीच फर्क नहीं रहा। हर एक का अपना बराबर अधिकार है और हर एक को दूसरे के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना ही होगा। ईश्वरीय स्वभाव को धारण करना और ईश्वरीय व्यवस्था को समाज में सबके लिये लागू करना ही धर्म-विशेष का फर्ज है और ईसाई परंपरा इस मामले में अहम् है। अन्य शब्दों में, वंचित वर्ग के भाई और बहनों के साथ बराबरी का भाव ही धर्म की गुणवत्ता की सही परख है।
2.4. वंचित वर्ग भी ‘प्रेम’ का हकदार
प्रेम ही इन्सानी ज़िन्दगी का रस है। यह है जीवन का खास नियम भी। यदि सब कोई इस नियम का पालन करे, तो ज़िन्दगी में दूसरे किसी नियम की ज़रूरत नहीं होती। पौलुस इस नियम को ‘हृदय पर अंकित नियम’ और ‘अन्त:करण का साक्ष्य’ कहते हैं।11 ईसा ने प्रेम को परिभाषित करते हुए उसके प्रमाण को औरों के लिये ‘अपने प्राण अर्पित करना’ बताया।12 ईसाई परंपरा की ‘बुनियादी तालीम’ के रूप में उन्होंने ‘अपनी मिसाल’ को ही पेश करते हुए कहा कि ‘जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो’। 13
जब ईश्वर सब का पिता है, तब सब मनुष्य एक दूसरे के लिये ‘भाई और बहन’ लगते हैं। प्यार के इस ताने-बाने से कोई भी इन्सान बाहर नहीं है। बगैर फर्क किये सब को शामिल करने का यह भाव ईसाई आस्था की पहचान है। अपनेपन और आत्मीयता के ऐसे माहौल में कोई इन्सान अपने हक से वंचित भला कैसे रह सकता! ज़रूरत इस बात की है, इन्सान ऐसे स्वच्छ और सात्विक प्रेम को अपना स्वभाव ही बनाये, जिससे वह प्रेम पहले और अधिक मात्राओं में पिछड़े और ज़रूरतमंद की तरफ सहज भाव से प्रवाहित हो सके, जैसे निचले इलाकों में सबसे पहले बाढ़ का पानी भर जाता है। इन्सानियत और धर्म-भाव की परिष्कृत दशा यही है और प्रेम के इस कुदरती नियम को अमलीजामा पहनाने से ही वंचित वर्ग का मानव अधिकार सुरक्षित होगा।
2.5. वंचित वर्ग के साथ ‘आदर्श व्यवहार’ हो
समाज की अलग-अलग इकाइयों में ‘आपसी व्यवहार’ की कसौटी पर ही मानव अधिकार के निर्वाह की स्थिति का पता चलता है। इन्सान इन्सान से, परिवार परिवार से, समुदाय समुदाय से, संस्था संस्था से और कोई एक इकाई अन्य किसी इकाई से कैसा जुड़े और उसके साथ कैसा व्यवहार करे, उसी तर्ज पर मानव अधिकार के मुद्दे के भिन्न-भिन्न पहलू उभरकर सामने आते हैं। ईसा ने आपसी व्यवहार का एक ऐसा ‘स्वर्णिम नियम’ पेश किया है, जोकि इन्सानी ज़िंदगी को समग्र रूप से अपने में समेट लेता है। उनका कहना है कि ‘दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो’।14 जाति, प्रजाति, भूगोल, रंग, भाषा, विचारधारा, संस्कृति, धर्म, रीति-तिवाज़, रष्ट्रीयता, आदि को लेकर बने विविध समुदायों के दरमियान आपसी लेन-देन की यही बुनियादी नीति है। दूसरों के प्रति अपनी ‘ज़िम्मेदारियाँ निभाने’ के बाद ही उनसे ‘उम्मीदें रखना’ जायज है। ऐसा व्यवहार ही न्यायसंगत है। यही ‘नीतिशास्त्र’ की सार्वभौम आधार और मानदण्ड भी है।
उपर्युक्त स्वर्णिम नियम में ‘हक़ और फ़र्ज़ के बीच तालमेल और सन्तुलन’ भरपूर कायम है। फ़र्ज़ को निभाने की प्राथमिकता पर ज़ोर लगने से हक़ को हासिल करने की प्रक्रिया सहज और निश्चित हो जाती है। ‘कर्तव्य का मूल्य’ चुकाने पर ही ‘अधिकार पर दावा’ किया जा सकता है। व्यक्तियों और समुदायों की सम्मिलित जीवन की सफलता के लिए ही नहीं, वंचित वर्ग के उत्थान और कल्याण के लिये यह नियम बाकायदा स्वर्णिम है। कोई नहीं चाहता कि वह किसी भी कारण से दबाया जाय या किनारे किया जाय। वंचित वर्ग के प्रति अनेक मायनों में दुव्र्यवहार और अन्याय हुए हैं, जिन्हें दुरुस्त करने के लिये कारगर कदम उठाने होंगे। इस दिशा में सबसे पहले ऐसे स्वर्णिम या आदर्श व्यवहार की मानसिकता को अपनाना ही करणीय है। दुर्व्यवहार के लिये ज़िम्मेदार लोग आगे दुर्व्यवहार नहीं करें, अपनी-अपनी आस्था से प्रेरणा पाकर प्रतिबद्ध लोग आगे आयें और शासन-प्रशासन वंचित वर्ग की भलाई के लिये अपना नेतृत्व और ताकत का करिश्मा दिखाये, यही वंचित वर्ग के उज्ज्वल भविष्य की आदर्श राहें हैं।
2.6. वंचित वर्ग के प्रति संवेदनशील रुख के लिये ‘एक शरीर, अनेक अंग’ की मिसाल
पौलुस एक ऐसी मिसाल पेश करते हैं जो कि सामाजिक संवेदनशीलता के लिये अहम् है। वह है ‘एक शरीर, अनेक अंग’।15 शरीर के अनेक अंग होते हैं, लेकिन शरीर एक है। अंग शरीर नहीं है और शरीर अंगों के समुच्चय से ही बनता है। एक ही अंग की बहुतायत से शरीर नहीं बनता है, वरन् भिन्न-भिन्न अंग चाहिए। अंगों के रूप और आकार अलग हैं; उनके स्वभाव अलग है; उनकी जगह और भूमिकाएँ भी अलग हैं। हर अंग की अपनी खासियत है। शरीर का कोई एक अंग दूसरे से कह नहीं सकता कि मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं। शरीर के किसी एक अंग की जीत या खुशी सभी अंगों की जीत या खुशी है। ठीक उसी प्रकार, शरीर के किसी एक अंग में होनेवाला दर्द सभी अंगों में महसूस होता है। शरीर का कोई भी अंग बड़ा या छोटा नहीं है। सभी अंग बराबर आदर के पात्र हैं। शरीर का कोई भी अंग कमज़ोर नहीं है। यदि कोई अंग अपने आपको दूसरे से ज़्यादा ताकतवर समझता है, तो उसका फ़र्ज़ है, जो कमज़ोर समझा जाता है उसके लिए सहारा बनना। यदि कोई सोचता है कि शरीर का कोई अंग अशोभनीय है, वही अंग दूसरों से अधिक महत्वपूर्ण है। अंग एक दूसरे की सेवा करती है। विविध होकर ही आपस में सहयोग करना शरीर की गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने के लिये ज़रूरी है। सबका अपना-अपना कर्तव्य और अपना-अपना अधिकार है। शरीर के विविध अंग आपस में पूरक हैं और शरीर की एकता में ही अंगों की प्रासंगिकता निहित है।
बेशुमार विविधताओं से भरे-पूरे इन्सानी समाज में ‘एक और अनेक’ के बीच तालमेल बिठा नहीं पाना ही सामाजिक जीवन की अहम् समस्या है। इस समस्या का कारण मनुष्य की सामाजिक संवेदनहीनता है। मनुष्य ने समाज को समृद्ध वर्ग और वंचित वर्ग के दो खेमों में बाँटकर रखा है, जो कि अतार्किक और अप्राकृतिक है। समाज के अलग-अलग इकाइयों में तथा व्यक्ति-व्यक्ति और समुदाय-समुदाय में आपसी संवेदनशीलता कैसी हो, इसके लिये सहज, सार्वभौम और सर्वोत्तम मिसाल है ‘शरीर’ की संरचना और गतिशीलता की उपर्युक्त मिसाल। यह आदर्श अधिकार और कर्तव्य के मध्य सामंजस्य के लिये भी प्रेरणाप्रद है। लेकिन, क्या हमारे समाज के समृद्ध वर्ग के लोग इतने संवेदनहीन हो गये हैं कि वे वंचित वर्ग के दर्द महसूस नहीं कर पाते हैं? शरीर-रूपी हमारा समाज भावनाशून्य होकर बीमार और असंतुलित हो गया है। वंचित वर्ग के कुचले हुए अधिकारों को दुरुस्त और पुनर्जीवित करने की नयी कोशिशों के ज़रिये समाज को फिर से संतुलित और स्वस्थ करने के लिये तथाकथित समृद्ध वर्ग के लोग संवेदनशील हो जायेंगे? इस मुश्किल सवाल के जवाब में वंचित वर्ग का ही नहीं, मानव समाज का भी भविष्य निहित है।
2.7. वंचित वर्ग की ‘जि़म्मेदारी लेना’ इन्सानियत और अध्यात्म की पहचान
बाइबिल के दो किस्से हैं, एक पुराने विधान का और दूसरा नये विधान का। पुराने विधान का किस्सा है, ‘काईन और हाबिल’ का। वे आदम और हेवा के पुत्र थे। काईन खेती करता था और हाबिल भेड़-बकरियों को चराता था। खुदा हाबिल से ज़्यादा प्रसन्न थे। इस पर काईन नाराज़ थे। जलन के मारे एक दिन काईन ने हाबिल पर वार किया और उसे मार डाला। खुदा ने काईन से पूछा, ‘तुम्हारा भाई हाबिल कहाँ है’? काईन ने खुदा से उल्टा सवाल किया, ‘क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ’।16 यह सवाल गैर- ज़िम्मेदाराना होकर भी बुनियादी है। नये विधान का किस्सा है, ईसा और उनकी माता मरियम का। ईसा अपने शिष्य और माता मरियम के साथ ‘काना नगर के एक विवाह-समारोह’ में शरीक हुए। समारोह में अंगूरी परोसने की प्रथा थी। यकायक अंगूरी खत्म हो गयी और मेज़बान परेशान हो गये। माता मरियम को इस बात का पता चला। उन्होंने मेज़बान से चर्चा किए बगैर ही अपना बेटा ईसा से कुछ करने का आग्रह किया। ईसा ने अपनी अलौकिक ताकत से पानी को अंगूरी में बदल दिया। माता मरियम और ईसा ने इस प्रकार उस मेज़बान की लाज रखी। ‘बगैर पूछे ही’, सोच-समझकर और दूसरे को ‘अपना भाई मानकर’ उसकी ‘ज़रूरत की पूर्ति’ करते हुए माता मरियम ने यह साबित किया कि ‘वह अपने भाई की रखवाली है’।17 पुराने और नये विधानों के ये किस्से सवाल और जवाब के रूप में पेश आते हैं। पुराने विधान के सवाल का जवाब नये विधान ने व्यवहार में दिया।
दूसरे की ज़िम्मेदारी लेना और मौका आने पर उसकी मदद करना सामाजिक जीव होने के नाते इन्सान का फ़र्ज़ है। इस फ़र्ज़ को निभाने में दूसरे के अधिकारों की रक्षा अपने आप हो जाती है। दूसरे की बदहाली के लिये हर एक किसी-न-किसी तौर पर जि़म्मेदार है। उसके साथ हमदर्दी रखना और उसके लिये अपने को ज़िम्मेदार मानकर उसके लिये कुछ करना मानवीय संवेदना और रिश्ते का पुख्ता सबूत है। यही इन्सानियत और सामाजिकता की पहचान भी है। ऐसे ज़िम्मेदाराना रवैये में ही असली अध्यात्मिकता और इन्सानियत झलकती हैं। लेकिन, समृद्ध वर्ग के तथाकथित पढ़े-लिखे, धर्मपरायण, ताकतवर और मालदार लोग इस हकीकत को कब समझेंगे? हमारे सामाज के वंचित वर्ग के साथ बेहिचक हो रही वंचना से उन्हें कब राहत मिलेगी? हमारे सामाज में अध्यात्म के मूल्य और इन्सानियत के गुण कब राज करने लगेंगे?
2.8. वंचित वर्ग की खातिर ‘ईसा की बुलंद चेतना’
जिस यहूदी समाज में ईसा पैदा हुए थे, वह कई प्रकार के भ्रष्ट आचारों से चरमरा रहा था। समाज के ताकतवर लोगों की मनमौज़ी का ऐसा ताण्डव नृत्य चल रहा था कि आम लोगों का जीना करीब-करीब हराम हो गया था। वंचित वर्ग के अधिकारों का उल्लंघन धर्म के क्षेत्र में सबसे अधिक था। धर्म-नेता खुद को पुण्यात्मा और भला समझते थे और दूसरों को पापी और बुरा। धर्म के धुरंधर एक ओर पाखण्डी, खुदपरस्त और ऊँच-नीच के भाव से ग्रस्त थे, दूसरी ओर खुदा के नाम पर आम लोगों को कर्मकाण्डी बोझ से दबाया करते थे। भेदभावपूर्ण व्यवहार के ज़रिये वे ताकतहीनों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ ही नहीं, खुदा के साथ गुस्ताखी भी करते थे। दूसरों के जायज हिस्से का घोर अतिक्रमण ईसा को बहुत खलता था और वे उन पाखण्डियों पर जमकर बरसे। मानव अधिकारों से वंचित अभागों के दर्द को महसूस करते हुए पापियों को हकीकत में दिल का साफ़ और खुदा के नज़दीक कहा।
और आगे, नाकेदार-जैसे समाज के निम्न वर्ग के लोगों तथा पापियों के साथ उठना-बैठना, खाना-पीना और दोस्ती करना जैसे ईश्वर-तुल्य व्यवहार से ईसा ने समाज के कमज़ोरों के अधिकारों की रक्षा की।18 सौ भेड़ों में से निन्यान्बे को छोड़कर एक खोये हुए की तलाश में निकलने वाले भले गड़रिये का जीवन्त रूप बनकर ईसा ने जीने के हक़ से वंचित लोगों के साथ खड़े हुए।19 साथ ही, ईसा ने गरीब, दीन-हीन, नम्र, दुखी, गुनहगार, आदि में छिपे अलौकिक बड़प्पन को उज़ागर करके उन्हें ईश्वर-सदृश इज्ज़त दिलायी।20 उन्होंने कमज़ोरों, ताकतहीनों, आवाज़हीनों और हाशिये पर सरकाये हुओं को मज़बूत करने और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की अनूठी बीड़ा उठायी। ईसा की यह बुलंद चेतना भारत के वंचित वर्ग को एक नयी जिंदगी दिलाने में प्रेरणादायक सिद्ध होगी, यह उम्मीद है।
2.9. वंचित वर्ग की ‘ईसा द्वारा वकालत’
मानव अधिकार के विषय में ईसा की बुलंद चेतना ने सामाजिक जीवन के समूचे गलियारों को टटोला। उन्होंने वंचित और शोषित वर्ग के साथ, खास तौर पर ‘महिला, बच्चे और नगण्य’ लोगों पर, होनेवाले पक्षपातपूर्ण व्यवहार के खिलाफ डटकर खड़े हुए। उन्होंने पुरुषों के अन्यायपूर्ण हरकतों से महिलाओं को निजात दिलाकर उन्हें न्याय दिलायी। इस दिशा में दो किस्से उद्धृत किये जा सकते हैं। पहला, कुछ पुरुष व्यभिचार में पकड़ी गयी एक स्त्री को यहूदी कानून के अनुसार पत्थर से मार डालने जा रहे थे। ईसा ने उन ढ़ोंगी पुरुषों की असलियत को समझकर उन्हें व्यभिचार के साथी होने के कारण किसी को दण्ड देने के अधिकार से विहीन बताया।21 दूसरा, ईसा ने पश्चाताप करनेवाली पापिनी स्त्री को खुदा की माफ़ी और स्वीकृति के योग्य होने का करार दिया और पुरुषों की हुकूमत की मज़बूरी भोग रही स्त्रियों को पुरुषों के बारबर का दर्जा दिलाया।22
इसी प्रकार, ईसा ने बच्चों में असली बड़प्पन का अहसास करा कर उन्हें अपने अधिकार से युक्त किया एवं वयस्कों को नसीहत दी कि बच्चों को छोटा और अपने को बड़ा नहीं माने तथा बच्चों से सीखें।23 ईसा की बात को आगे बढ़ाते हुए पौलुस ने दुनिया की दृष्टि में मूर्ख, दुर्बल, तुच्छ और नगण्य लोगों को खुदा के विशेष प्यारे घोषित किया और ज्ञानी, शक्तिशाली, कुलीन और गणमान्य लोगों को अपने घमण्ड और विशिष्ट अधिकार-भावना से च्युत कर दिया।24 ईसा ने वंचितों और शोषितों पर बीत रहे अन्याय की पीड़ा का एहसास लिया और उनके मानव अधिकार की रक्षा की वकालत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
2.10. वंचित वर्ग के लिये ‘ईसा की तरजीह’
सामाजिक समभाव की मंजिल पर पहुँचने के लिये निचले या कमज़ोर तबके के लोगों को तरजीही तवज्जो देने की ज़रूरत है। ‘गरीब, गुनहगार, विकलांग, रोगी और सेवा करने वाले’ के अधिकारों को बुलन्द करने के लक्ष्य को मद्देनज़र ईसा ने मानव अधिकारों की रक्षा की एक सशक्त मुहिम ही चलायी। ईसा को धन-सम्पत्ति की असन्तुलित व्यवस्था बहुत खलती थी। लाज़रुस और अमीर की कहानी के ज़रिये अमीर को घोर दण्ड के लायक बताया जो गरीब के बुनियादी हक़ की ओर बेरहम रहे।25 बड़े-छोटे के बीच की गलतफ़हमी को धराशायी करने के लिये ईसा ने मन्दिर के खज़ाने में महज एक पैसा डालने वाली बहुत ही गरीब विधवा को सबसे अधिक डालने वाली बताया। इस प्रकार उन्होंने बहुत अधिक सिक्के डालने वाले अमीरों के खोखले दावे को खारिज किया और उन्हें खुदा के सामने असली बड़प्पन की निशानी क्या है इस संदर्भ में पाठ पढ़ायी।26
साथ ही, ईसा की मान्यता थी कि गुनहगार भी क्षमा के अधिकारी है। इस लिये उन्होंने अपने शिष्यों को यह नसीहत दी कि उन्हें ‘सत्तर गुना सात बार’ माफ़ करना होगा।27 इस अनोखी उसूल को अमलीजामा पहनाते हुए ईसा ने क्षमा की सबसे अनोखी मिसाल खुद बनकर दिखाये। उन्होंने उन लोगों के लिये ऐसी प्रार्थना की कि ‘पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं’28, जिन्होंने अपने को सलीब पर चढ़ाकर बेरहमी से उनके साथ हीनतम व्यवहार किया था। इस प्रकार उन्होंने पश्चात्ताप और मानसिक परिवर्तन के ज़रिये एक नयी ज़िन्दगी शुरू करने के लिये गुनहगारों के अधिकार को रेखांकित किया। ईसा ने समाज के आधे-अधूरों को भी इज्ज़त के लायक घोषित करने के लिये यह तालीम दी कि भोज देते समय अपने मित्रों, कुटुम्बियों और अन्य धनी पड़ोसियों की जगह कंगालों, लूलों, लंगड़ों और अंधों को बुलाना चाहिये।29 बीमारों को चंगा कर और उन्हें नया जीवन प्रदान कर ईसा ने उनके भी जीने के अधिकार पर रोशनी फेरी।30 ‘जो तुम में बड़ा है वह सबसे छोटा-जैसा बने और जो अधिकारी है, वह सेवक-जैसा बने। ... मैं तुम लोगों में सेवक-जैसा हूँ’ ऐसा कहकर ईसा ने पेशे से या स्वेच्छा से दूसरों की सेवा करनेवालों को निचले स्तर के समझने की गलतफहमी पर तमाचा मारा ही नहीं उन्हें सामाजिक जीवन के लिये आदर्श भी ठहराया।31
वंचित वर्ग के लिये अपनी तरजीही भाव का निचौड़ पेश करते हुए ईसा ने यह भी कहा कि ‘कारीगरों ने जिस पत्थर को बेकार समझकर निकाल दिया था, वही कोने का पत्थर बन गया है’।32 इस प्रकार ईसा ने किसी-न-किसी प्रकार से शोषण के शिकार हुए और अपने अधिकारों से वंचित हुए लोगों को तरजीही प्यार और सेवा के हकदार घोषित कर उन्हें ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्ध किया। खास तौर पर कमज़ोरों की प्यार-भरी सेवा ही मानवमात्र के अधिकार की पुनस्र्थापना के लिए सही और कारगर कदम है। ईसा का यह विशिष्ट और बहुआयामी दृष्टिकोण अपने आप में एक समग्र आध्यात्मिक-सामाजिक क्रांति है। वंचित वर्ग को केंद्र में रखकर ईसाई समुदाय द्वारा शताब्दियों से चलाया जा रहा अभियान ईसाई परंपरा की खासियत भी है।
2.11. वंचित वर्ग के उत्थान के लिये ‘ईसाई समुदाय की कोशिशें’
वंचित वर्ग के मानव अधिकार के विषय में ईसाई दृष्टिकोण मूल रूप से ईसा की जीवन-दृष्टि पर आधारित है। ईसा का क्रांतिपूर्ण नज़रिया आगे चलकर एक परंपरा ही बन गयी। ईसा से प्रेरणा लेकर ईसाई समुदाय वंचित वर्ग को अपना अधिकार दिलाने के लिये, उन्हें जीने लायक सुविधायें दिलाने के लिये और उन्हें समृद्ध वर्ग के बराबर लाने के लिये कई परियोजनायें चलाता है। इस दिशा में ईसाई समुदाय की सेवायें जाति, प्रजाति, मजहब, भाषा, प्रदेश, पेशा, आदि का फर्क किये बगैर दी जाती हैं। गाँवों और झुग्गियों में साक्षरता और अनौपचारिक शिक्षा के साथ-साथ प्राथमिक उपचार और चिकित्सा की सुविधायें भी दिलायी जाती हैं। बेघरों और भिखारियों के लिये आवासीय कार्यक्रम तथा रोज़गार-शिक्षा चलायी जाती है। शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांगों के किये आवास, शिक्षा और रोज़गार की सुविधायें देने के साथ-साथ अनाथ बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं के लिये भी काफी इंतजाम किया जाता है।
और तो और, सडक़ों पर उपेक्षित बुजुर्गों और बच्चों की देखरेख, भिखारी बनकर आवारा घूम रहे बच्चों के लिये छात्रावास और आदिवासी, दलित, आदि गरीब और निचले तबके के लोगों के कल्याण के लिये भी बहुत योजनायें चलायी जाती हैं। प्राकृतिक त्रासदियों के अवसर पर करीब-करीब समूचा ईसाई समुदाय पीडि़तों की सेवा के लिए आर्थिक योगदान, सुनियोजित कार्यक्रम और स्वैच्छिक श्रमदान के रूपों में प्रतिबद्ध हो जाते हैं। सांप्रदायिक दंगों के अवसर पर खास सेवा के अलावा नियमित रूप से अलग-अलग समुदायों के दरमियान आपसी फासला कम करने और आपसी समझ, रिश्ता और सहयोग बढ़ाने के कतिपय पहल किये जाते हैं, जिससे राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सरोकार का रास्ता प्रशस्त हो सके। कुल मिलाकर, ये सेवायें शिक्षा-केद्रों, दवाखानाओं, समाज कल्याण केंद्रों और विशेष सेवा केंद्रों के ज़रिये वंचित वर्ग तक पहुँचाये जाते हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार से अपने अधिकारों से वंचित हुए वर्ग को एक नयी जिंदगी दिलाने के लिये ईसाई समुदाय की कोशिशें भारत-जैसे विशाल देश के बहुविध समस्याओं के लिहाज से नगण्य ज़रूर है। फिर भी, ईसाई समुदाय की विनम्र कोशिशें भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने की दिशा में एक प्रेरणादायक मिसाल है, ऐसा कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी।
निष्कर्ष
वंचित वर्ग की उपस्थिति किसी भी समाज या देश के लिये कलंक है। जिस समाज और देश में ऐसा वर्ग है जो बड़े पैमाने पर अपने अधिकारों से वंचित होकर हाशिये की जिंदगी जीने को मजबूर है, वह समाज और देश स्वस्थ, संतुलित और विकसित कदापि नहीं हो सकता। लेकिन, विडंबना यह है कि हर समुदाय और देश में कुछ लोग किनारे किये जाते हैं। इन्सान का स्वार्थ ही इसकी वजह है। फिर भी, देश और समुदाय के अनुसार समस्या की गंभीरता में फर्क है। इस मामले में भारत की हालत, धार्मिक देश कहलाने के बावजूद, बेहद खराब और निंदनीय है। असल में, वंचित वर्ग के उत्थान के लिये कारगर कदम उठाना धर्म का बुनियादी दायित्व है। समृद्ध वर्ग को प्रेरित किया जाना चाहिये कि वे लौकिक संसाधनों को इक्कट्ठा करने और इस्तेमाल करने में संयम बरते तथा वंचित वर्ग की भलाई के लिये अपने हाथ बढ़ाये। धर्म-संगठनों द्वारा इस ओर योजनायें भी चलायी जानी चाहिये। ईसाई समुदाय इस संदर्भ में अपने बहुविध योजनाओं और कोशिशों के लिये अव्वल है, इसमें कोई शक नहीं है।
वंचित वर्ग के मानव अधिकार के प्रति ईसाई दृष्टिकोण ईसा की तालीम के साथ-साथ उनके जीवन की दृष्टि और शैली पर आधारित है। ‘ईसाइयत’ यदि कुछ खास है तो वह ‘वंचित वर्ग के प्रति तरजीही प्यार और सेवा’ है। सामाज में तालमेल स्थापित करने के लिये पहले निचलों को उठाना ज़रूरी है। ईसा की जिंदगी पैदाइश से मौत तक आवाज़हीनों, ज़रूरतमंदों, कमज़ोरों, दलितों और हाशिये पर सरकाये हुओं के साथ हमदर्द और हमसफर होना थी। ईसा की खुदाई प्यार की धारा ही है ईसाई समुदाय द्वारा वंचित वर्ग के लिये की जाने वाली सभी योजनायें और कोशिशें। शासन-प्रशासन के साथ-साथ सभी धर्म-समुदाय और समृद्ध वर्ग की अभी इकाइयों के सम्मिलित सहयोग से ही वंचित वर्ग को अपने हिस्से का मानव अधिकार दिलाकर उसे सामाजिक जीवन की मुख्य धारा में लाने की मुहिम एक सशक्त अभियान का रूप लेगा। जब हमारे देश के समाजिक जीवन के गलियारों से सामाजिक समभाव की इन्सानी संस्कृति उभरेगी तभी ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ का आदर्श एक हकीकत बनकर निखरेगा।
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अंत-टिप्पणियाँ
1. मानक हिंदी कोश, रामचंद्र वर्मा (प्रधान संपादक), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, सं. 2048, पाचवाँ खण्ड, पृ.सं. 1
2. ‘लोकतंत्र : एक व्यवस्था, एक संस्कृति’, डॉ. प्रमोद कुमार, अंतिम जन, वर्ष 1, अंक 2, मार्च 2012, गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नयी दिल्ली, पृ.सं. 23
3. भारत का संविधान, अनुच्छेद 15
4. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 7.12 पृ. सं. 10
5. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, पुराना विधान, उत्पत्ति 1.-26-27 पृ. 5; 5.1, पृ.सं. 9
6. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, 1 कुरिंथी 3.16, पृ.सं. 255; 2 कुरिंथी 6.16, पृ.सं. 279
7. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मारकुस 4.35, पृ.सं. 61
8. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 25.40, पृ.सं. 45-46
9. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 5.45, पृ.सं. 8
10. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 5.48, पृ.सं. 8
11. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, रोमी 2.15, पृ.सं. 233
12. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अन.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, योहन 15.13, पृ.सं. 172
13. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, योहन 13.34, पृ.सं. 169
14. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 7.12, पृ.सं. 10
15. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, 1 कुरिंथी 12.12-13, पृ.सं. 265-6
16. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, पुराना विधान, उत्पत्ति 4.1-10, पृ.सं. 7-8
17. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, योहन, 2.1-11, पृ.सं. 146
18. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, लूकस 19.1-10, पृ.सं. 129
19. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, लूकस 15.1-7, पृ.सं. 121-22
20. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 5.1-10, पृ.सं. 5-6
21. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, योहन 8.1-11, पृ.सं. 157-58
22. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, वही, लूकस 7.36-50, पृ.सं. 103
23. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 18.1-17, पृ.सं. 30
24. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, 1 कुरिंथी, 1.26-31, पृ.सं. 253
25. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, लूकस 16.19-31, पृ.सं.124
26. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मारकुस 12.41-44, पृ.सं. 77
27. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मत्ती 18.22, पृ.सं. 31
28. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, लूकस 23.34, पृ.सं. 139
29. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, लूकस 14.12-14 पृ.सं. 120
30. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मारकुस 5.1-43, पृ.सं. 61-63
31. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, लूकस 22.24-27, पृ.सं. 135
32. पवित्र बाइबिल, वाल्द-बुलके (अनु.), सत्प्रकाशन, इंदौर, 1990, नया विधान, मारकुस 12.10, पृ.सं. 76
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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हाशिये की आवाज़ (मासिक), नयी दिल्ली, वर्ष 14, अंक 3, पृ.सं. 15-18 -- मार्च 2019 में प्रकाशित
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