कबीर साहब का अनुभवाश्रित ईश्वर—ज्ञान --आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का साक्ष्य

 

कबीर साहब का अनुभवाश्रित ईश्वरज्ञान

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का साक्ष्य

डॉ. एम. डी. थॉमस

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परमतत्व के ज्ञान के विषय के ‘परमतत्व’ शब्द ही मूल तथ्य है। परमतत्व ‘परम’ तत्व होने के कारण अद्वितीय है। अत: परमतत्व का पूर्ण ज्ञान किसी के वश में नहीं है। साधक को उसका आंशिक ज्ञान मात्र उपलब्ध हो सकता है। उस आंशिक ज्ञान उपलब्धि की मात्रा उस तत्व के साधक की अनुभवात्मक समीपता पर अवलम्बित है। अनुभवाश्रित ईश्वर-ज्ञान ही प्रामाणिक है। सन्त कबीर अनुभवाश्रित ईश्वर-ज्ञान में पारंगत हैं और विश्वसनीय सिद्ध हुए हैं। सन्त साहित्य के तत्वान्वेशी और मेधावी आलोचक आचार्य श्री परशुराम चतुर्वेदी जी ने कबीर साहब की इन अनन्य उपलब्धि पर मौलिक साक्ष्य दिया है। उन्हीं के साक्ष्य पर कबीर साहब ने अनुभवाश्रित ईश्वर-ज्ञान पर संक्षेप में विचार किया जा रहा है।

कबीर साहब की सत्यान्वेषण-पद्धति: आत्मचिन्तन और स्वानुभूति

सत्य की पहचान मात्र उसे होती है जो अनवरत् सत्य की खोज करता है। लेकिन सत्य की उपलब्धि के लिए उचित पद्धति को अपनाना भी अत्यन्त आवश्यक है। कबीर साहब की सत्यान्वेषण-पद्धति की कुंजी है — आत्मचिन्तन् और स्वानुभूति ।

सत्यान्वेषण की पद्धति के रूप में आत्मचिन्तन और स्वानुभूति की भूमिका है — किसी भी सिद्धान्त को निभ्र्रान्त रूप से सर्वमान्य नहीं मानना। किसी भी सिद्धान्त का आधार होता है धर्मग्रन्थ या कोई आप्तवचन। कबीर साहब ऐसे किसी आधार को आँख मूँदकर मानने वाले नहीं थे। कारण यह है कि धर्मपुस्तकों में अधिकांश सद्वचनों के साथ-साथ साम्प्रदायिक आवेश से अतिरंजित कतिपय भ्रमात्मक बातें भी पाई जाती है जहाँ एक तरफ  उनके व्याख्याता इन भ्रान्तिपरक बातों के वाग्जाल को अधिक जटिल और व्यापक बना देते हैं, वहीं दूसरी तरफ उनका अनुसरण करने वाले अपनी अंध-भक्ति के कारण उन बातों को और अधिक स्थिर कर देते हैं। कबीर साहब के आविर्भाव-काल में धार्मिक-साम्प्रदायकि अनियामितताएँ चरम सीमा पर थीं। उनकी अनेक पंक्तियाँ अस्त-व्यस्त परिस्थितियों का चित्रण करती हैं।

तथाकथित धर्मपण्डितों में अधिकांश धर्मग्रन्थों के रहस्यों को पूर्णत: जानने का दावा करते हुए भी उनके मर्म से अनभिज्ञ रहते हैं। इस प्रकार मनुष्य धार्मिक बातों में आस्था रखते हुए भी भ्रमरूपी जंजीर से बन्धा रहता है। ‘शट् दर्शन’ और ‘छानबे पाषंडों’ के आधार पर तर्क-वितर्क करने वाले भी सदा व्याकुल व बेचैन रहा करते हैं। उन्हें सच्च ज्ञान नहीं हो पाता और न उनके संशय का निराकरण ही होता है। काजी तो अपनी किताब ‘कुरान’ के पढऩे में पूरा समय देने पर भी किसी गति से परिचित नहीं होता। पण्डित, काजी आदि धर्मग्रन्थों के शब्दों का पाठ करते हैं, बल्कि उसके अर्थ की ओर ध्यान नहीं देते हैं। इसलिए उनके धर्मपाठ और अनुष्ठान प्रयोजनहीन ही नहीं, हानिकारक भी साबित हो जाते हैं। अत: कबीर साहब का कथन है कि धर्मग्रन्थों तथा धर्मपण्डितों के उपदेशों के अन्धानुसरण की परतन्त्रता से मुक्त होना तथा स्वतन्त्र रूप से अपने निजी अनुभव पर अवलम्बित होकर विचार करना ईश्वर-ज्ञान के अन्वेषण के लिए मूलभूत तौर पर आवश्यक है। आत्मचिन्तन या सोच-विचार करने से अनुभवजनित ईश्वर-ज्ञान में वृद्धि होगी और स्वानुभूति के बल पर अन्वेषक उस ज्ञान की गहराइयों का स्पर्श करने में कृतकार्य होगा। तभी निजी अनुभव पर अवलम्बित सत्यान्वेषण का विश्वसनीय मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी इस बात को अपने शब्दों में परिपुष्ट करते है: ‘‘वास्तव में कबीर साहब की विचार-पद्धति की भित्ती स्वानुभूति पर ही खड़ी है और इसी कारण ये जहाँ कहीं भी अवसर पाते हैं, वहाँ निजी अनुभव के महत्व का गान करते नहीं अघाते, और न कभी परावलम्बन द्वारा प्राप्त तथाकथित ज्ञान की निन्दा करने से न चूकते है’’।

आत्मचिन्तन तथा स्वानुभूति से जनित ईश्वर-ज्ञान के समर्थन में उनकी पक्तियाँ हैं। ईश्वरान्वेषण में कहीं जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी, विचार करने पर वह स्वयं मन में उत्पन्न हुआ। कबीर को आत्म-मन्थन के माध्यम से परम तत्व के ज्ञानरूपी निर्मल जल प्राप्त हुआ। यह उन्हें शीतल रामजल’ के रूप में अनुभूत हुआ। आत्मविचार और निजी अनुभव से उत्पन्न इस ईश्वर-ज्ञान ने कबीर की जिज्ञासा की पिपासा को तृप्त करने वाले सक्षय आनन्द का भण्डाररूपी सुखसागर को उपलब्ध किया। कबीर साहब ने अपने सत्यान्वेषण में ऐसी प्रभावशाली पद्धति अपनायी और विश्वसनीय ईष्वर-ज्ञान पर अद्भुत अधिकार कर लिया।

कबीर साहब का अनुभवजन्य परमतत्वविषयक ज्ञान

सन्तजन ‘कागज की लेखी’ पर नहीं, ‘आँखिन की देखी’ पर विश्वास करते हैं, और उसके लिए तत्वदर्शी द्वारा उपदिष्ट साधना का अनुसरण करते हैं। सत्य के स्वरूप का जो उद्घाटन कबीर साहब ने किया है, वह उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभव के बल पर किया है। वह अनुभूत सत्य है। कबीर साहब की यह स्वानुभूतिपरक ईष्वर-धारणा व्यावहारिक होकर वाद-विवाद के घेरे से परे प्रतिष्ठित है। यह उनके स्वतन्त्र व्यक्तित्व तथा प्रतिभा का फल है। किसी विशेष तत्ववाद का सम्प्रदाय से कबीर साहब का कोई सम्बन्ध नहीं है। कबीर साहब अनुभव-पंथी थे। उनमें अपने अनुभव का बल था। वो जो कुछ कहते थे ‘तह’ से कहते थे। इसलिए उनके कथनों में एक विशेष प्रभाव था, जो अन्यथा असम्भव था। कबीर साहब के ईश्वर-ज्ञान का प्रमाण है — वैयक्तिक तत्व-साक्षात्कार या प्रत्यक्ष अनुभूति। 

कबीर साहब का यह अनुभवाश्रित ईष्वर-ज्ञान व्यक्ति सापेक्ष है। वह पूर्णगम्य नहीं है। यह उनके निजी अनुभव में समाविष्ट है। यह निजी अनुभव आध्यात्मिक दृष्टि से महत्व का है, क्योंकि वह भीतर का तत्व है। उसके प्रति तीव्र जिज्ञासा, उसकी प्राप्ति के लिए तज्जन्य बेचैनी तथा उसकी उपलब्धि पर शीतल जल की भाँति अनुभूत होती पूर्ण शान्ति उसकी आन्तरिक विद्यामानता के प्रमाण हैं।

परमतत्व का वास्तविक रूप सामूहिक या साम्प्रदायिक नहीं है, वह व्यक्तिगत है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए सत्य के स्वरूप का ज्ञान केवल उतना हो सकता है। जितना उनके निजी अनुभव में आ सके। यह अनुभव विश्वसापेक्ष भी है, क्योंकि इसकी अन्तिम सीमा अधिक से अधिक विश्व की सम्पूर्ण कल्पना तक व्यापक या परिसीमित है। ईश्वरानुभव के इस विश्वसापेक्ष विस्तार के बावजूद कबीर साहब के मत में यह कहना पूर्णत: संगत है कि निजी अनुभव में जितना ईश्वर है उतना ईश्वर निॢववाद रूप से सत्य ही है।

निर्गुण-दृष्टि अपनाई जाने से ईश्वर से ही ईश्वर का यह अनुभवगम्य स्वरूप साधक मन को दृष्टिगोचर होगा। इस अनुभवगम्य आलम्बन में ही साक्षात्कार का सूक्ष्मतम स्वरूप सुरक्षित है। लेकिन कबीर साहब कि रचनाओं में निर्गुण के साथ सगुण का भी वर्णन करने वाली पंक्तियाँ मिलती है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार, ‘‘ऐसे कथनों को हम अनुभूत सत्य के स्पष्टीकरण के प्रयत्र में प्रकट किए गए इनके उद्गारों के अतिरिक्त और कुछ नहीं कह सकते। इनके कारण ये न तो निर्गुणवादी कहे जा सकते हैं और न सगुणवादी ही माने जा सकते है। इनके अपने सिद्धान्तों के अनुसार सत्य निर्गुण एवं सगुण इन दोनों से परे हैं।’’ सगुण ब्रहा्र सम्प्रदायसापेक्ष है। इसलिए उसका अनुभव सीमित और आंशिक है। निर्गुण ब्रहा्र सम्प्रदायातीत है। इसलिए उसका अनुभव अधिक विस्तृत और पूर्ण है। परन्तु कबीर साहब के अनुसार सगुण-निगुर्णातीत ब्रहा्र असीम और पूर्ण है। उसके अनुभव-संसार में पूर्ण विस्तार के लिए अवकाश सदैव बना रहता है। कबीर साहब का साध्य सगुणनिर्गुणातीत है। अत: उनके ईश्वरानुभव की गहराई नापतौल की सम्भावना से परे प्रतिष्ठित है।

कबीर साहब ने अपने अनुभूत सत्य को अभिहित करने के लिए धर्म-सम्प्रदायादि का भेद किए बिना अनगिनत नामों का प्रायोग किया है। गुनअतीत, गुनबिहूंन, निरगुन, निराकार, अलख, निरंजन निरभै, जो सक्ष्म नहीं, जो स्थूल नहीं, जिसकी कोई रूपरेखा नहीं, जो दृश्य नहीं, जो अदृश्य नहीं, जो गुप्त नहीं, जो प्रकट नही, जिसके नाम-ग्राम को कोई ठिकाना नहीं, तत, परमतत, अनुपतत, निजतत, आतम, आत्मा, आप  आपन, सार शब्द, अनहद, अंतरधुनि, परमपद, चौथापद, अभैपद, सहज, सुनि, सति, ग्यान, अनंत, अमृत, उन्मन, गगन, ज्योति, ब्रहा्र आदि उन अभिधाओं में मात्र कुछ हैं। इन विविध अभिधाओं के विषय में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की मान्यता है, ‘‘ऐसे शब्द वास्तव में इनके द्वारा अनुभूत सत्य के उन प्रतीकों के ही द्योतक हैं जिन्हें इन्होंने अपनी अनुभवाश्रित धारणाओं के अनुसार निर्धारित किया है। इस प्रकार के नामों की लम्बी सूची से भी स्पष्ट जान पड़ता है कि उन्होंने उस वस्तु के रहस्य को वक्त करने के लिए कितने प्रकार की चेष्टाएँ की है ।’’ कबीर साहब की मूल मान्यता है कि परमतत्व की गुणावली लिखी नहीं जा सकती है। उसके लिए सात महासागरों की स्याही, सभी जंगलों की लेखनी तथा सम्पूर्ण पृथ्वी का कागज पर्याप्त नहीं है। कबीर साहब ने अपने अनुभूत सत्य की झलकमात्र से यह बात जान ली। कबीर साहब साक्षी है परमतत्व इतना विशाल और असीम है। कबीर साहब के अनुभवजन्य ईश्वर-ज्ञान को सिद्ध करने वाली इससे बड़ी क्या उक्ति हो सकती है।

कबीर साहब की ईश्वर-ज्ञान सम्बन्धी उक्तियाँ

कबीर साहब ने अपने निजी अनुभव से अनुप्रेरित कतिपय उक्तियाँ ईश्वर के विषय में प्रस्तुत की हैं। अनुभव की उक्त दशा में आकर आनन्द के अतिरेक द्वारा कबीर साहब विभोर हो जाते हैं। परमतत्व से अपनी तन्मयता से तरंगायित होकर उनके विषय में वे विविध प्रकार के उद्गार प्रकट करते रहते है। ये उद्गार अनुभूत सत्य के वर्णन हेतु कबीर साहब की संकल्पबद्ध चेष्टाएँ माने जा सकते हैं। परम तत्व के विषय में लोग कुछ तो कहते रहते हैं। लेकिन जैसा वह है वैसा कोई नहीं जानता है। यह जैसा है वैसा ही है। वह जैसा है वैसा अभिव्यक्त नहीं हो सकता है। यद्यपि सत्स के वास्तविक स्वरूप के विषय में किए गए वर्णन अन्तत: अपूर्ण ही रह जाते हैं, किन्तु उनके आधारभूत निजी अनुभव आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और लाभदायक हैं। सतगुरू के विचारपूर्ण कथन को कबीर साहब ने अपने अनुभव के अनुसार ग्रहण किया। कबीर ने परमतत्व को अपनी कल्पना के अनुसार स्मरण करके ही जाना।  

कबीर साहब ने अपने हृदय-स्थल पर अनुभव किया कि जिस प्रकार पानी से हिम और हिम से वापस पानी बन जाता है ठीक उसी प्राकर कबीर साहब परमतत्व में विलीन हो गए और कुछ कहने की स्थिति में नहीं रह गए है। परमतत्व की शोभा वर्णन का नहीं, अनुभव का विषय है। कबीर ने जब आँखें खेली, सम्पूर्ण सृष्टि में परमतत्व के सिवा और कुछ दृष्टिगोचर नहीं हुआ।

कबीर साहब द्वारा अनुभूत परमतत्व एक ‘रहस्य’ है। उस अनुपम का वर्णन असम्भव है। गूँगा मनुष्य मिठाई के मधुर स्वाद का अनुभव करते हुए भी उसे व्यक्तनहीं कर पाता है। इसी प्रकार कबीर साहब परमतत्व के मिठास या स्वरूप का संकेतमात्र ही कर पाता है। परमतत्व का स्वरूप अकथ कथा है। उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। उसमें समा रहना ही एक मात्र उपाय है।

संत कबीर ने पूर्ण सत्य को पूर्ण से स्वयं जानने का वादा नहीं किया। इन सन्दर्भ में विनम्र रहने पर भी दूसरों द्वारा ऐसा दावा बर्दाश्त भी नहीं करते थे। ईश्वर जैसा है वैसा मात्र ईश्वर जानता है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि ईश्वर जैसे भी रहे, मनुष्य के लिए उसका गुणकीर्तन ही श्रेयस्कर और पर्याप्त है। अपने हृदय में स्थित इस परमात्मा को अन्तमुर्खी भावना के बलबूते पर कबीर साहब ने टटोला और उसकी सूक्ष्म पहचान की। रहस्य साधना के सहारे उस अनुपम परात्पर की गहराई और ऊँचाई का स्पर्श का साथ एक चरम ज्ञानोपलब्धि की। ब्रहम-निरूपण में बुद्धि की निरर्थकता को समझ्ते हुए अनुभूति पर आश्रित होकर कबीर साहब ने उसके आध्यात्मिक स्वरूप की सिद्धि की। इस रहस्यरूप ईश्वर की रहस्यानुभूति में कबीर साहब की श्रेष्ठतम तथा उदात्ततम अनुभूति अभिव्यक्ति भी हुई है।

परम तत्व के इस सूक्ष्म स्वरूप का साक्षी कबीर स्वयं है। आत्मचिन्तन से आलोक्ति कबीर साहब की हृदयानुभूति जानती है वह मूल मन्त्र — ‘कोई न सारिख राम’। कहतों कह्या न जाई, ‘कुछ कही न जाई,’ ‘गूँगे जानि मिठाई,’ ‘अकथ कहाणी’ आदि कबीर साहब की ईश्वरानुभूति की विशिष्ठोक्तियाँ हैं। उस निर्विशेष और निरपेक्ष परमेश्वर का वर्णन करने का एकमात्र तात्पर्य है — ‘कहत सुनत सुख उपजौ।’ या बोलन के सुख कारनै। यही है कबीर साहब के अनुभवाश्रित ईश्वर-ज्ञान की विश्वसनीय कहानी। यही है परमतत्व का प्रामाणिक वर्णन भी।

कबीर साहब ने अनुभवाश्रित ईश्वर ज्ञान की प्रामाणिकता सिद्ध करने में आचार्य परशुराम का योगदान:  

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहब के अनोखे व्यक्तित्व के विविध पक्षों को उजागर करने तथा उनके द्वारा उपलब्ध ईश्वर-ज्ञान को प्रामाणिक सिद्ध करने में मौलिक योगदान दिया है। यह अंश उस योगदान के विभिन्न पक्षों पर एक निष्कर्षमूलक अवलोकन है।

कबीर सन्त थे। सन्त वह है जिसने सत्य के अस्तित्व का पूर्णत: अनुभव किया है। कबीर साहब ने सत्य का गहन अनुभव किया है। सन्त साधु और साधक दोनों हैं। कबीर साहब परमात्मा की साधना में अनवरत् लगे रहे और उसके अनुभव से मानवीय और आध्यात्मिक तौर पर सन्त बने। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहब के इस मूल सन्त व्यक्तित्व को अकाट्य रूप से स्थापित किया है। कबीर साहब के ईश्वर-ज्ञान की प्रमाणिकता उनके व्यक्तित्व की इस आधारभूत विशेषता पर आधृत है।

कबीर साहब द्वारा उपलब्ध ईश्वर-ज्ञान विश्वसापेक्ष और व्यक्तिसापेक्ष दोनों है। परमतत्व अपने शुद्धतम रूप में निरपेक्ष होने पर भी व्यावहारिक चिन्तन के अन्तर्गत विश्वसापेक्ष है। विश्व-स्तर पर उसके निरूपण की अन्तिम सीमा अधिक से अधिक विश्व की कल्पना तक ही परिमित रह सकती है। सत्य के जो भी नाम और रूप होंगे, प्रतीकात्मक तौर पर विश्वसापेक्ष ही होंगे। अतएव विश्व के समस्त नाम सम्मिलित रूप से भी उस निरपेक्ष के स्परूप-वर्णन को नि:शेष नहीं कर सकते। ईश्वर-ज्ञान व्यक्तिसापेक्ष भी है। विश्व का निरूपण काल्पनिक है। विश्व-कल्पना का आधार व्यक्ति ही है। ईश्वर की परिकल्पना और अनुभूति का वास्तविक स्थल व्यक्ति ही है। कबीर साहब का परमतत्व-विषयक धारणा में विश्वस्तर का विस्तार तथा व्यक्तिस्तर की गहराई दोनों सुरक्षित है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहब की ईश्वर-कल्पना में विश्वसापेक्ष तथा व्यक्तिसापेक्ष पहलुओं के साथ उनमें अनुपातिक सन्तुलन भी दर्शाकर कबीर साहब की ईश्वर सम्बन्धी दृष्टि की प्रामाणिकता को सिद्ध किया है।

कबीर साहब ईश्वर-चिन्तन पारम्परिक तौर पर निर्गुण शाखा के अन्तर्गत स्थापित है। लेकिन कबीर साहब की रचनाओं में विद्यमान ‘सगुण’ पक्ष को तिरस्कृत नहीं किया जा सकता है। कबीर साहब ने ‘निर्गुण’ की अपर्याप्तता पर भी विचार किया है। उनके अनुसार परमतत्व ‘सगुण-निगुर्णातीत’ है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहब में विद्यमान ईश्वर-धारणा के सगुण, निर्गुण तथा सगुणनिर्गुणातीत तीनों पक्षों को स्पष्ट रूप से उजागार किया। उन्होंने कबीर साहब की ईश्वर-दृष्टि में विद्यमान सगुण-निर्गुण की शब्दावली की निरर्थकता की ओर संकेत कर सगुण-निगुर्णातीत की व्यापक ईश्वर-धारणा को कबीर साहब की मूल उपलब्धि के रूप में स्थापित किया है। इसमें ईश्वर के व्यक्ति सापेक्ष ही नहीं, विश्वसापेक्ष और उससे भी परे की विशालतम ईश्वर-स्वरूप के लिए अवकाश है। इसके अतिरिक्त, कबीर साहब की ईश्वर धारणा में सगुण और निर्गुण के सूक्ष्म स्वरूप को स्पष्ट कर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर द्वारा शवित सगुण-निर्गुण की नई परिभाषा को भी व्यक्त किया है। इस प्रकार कबीर साहब के सगुण-निर्गुण से परे प्रतिष्ठित ईश्वर के स्वरूप को रेखांकित कर आचार्य जी ने कबीर साहब की समीक्षा में अमर योगदान किया है।

सत्यरूपी ईश्वर की उपलब्धि सत्यान्वेषण की पद्धति पर आधारित है। कबीर साहब की सत्यन्वेशण-पद्धति में आत्मचिन्तन तथा स्वानुभूति का सम्मिश्रण है इसमें बुद्धि और हृदय दोनों का पूर्ण प्रयोग है। विचार और भाव अथवा कल्पना और अनुभूति अथवा विस्तार और गहराई का परिपक्व समन्वय कबीर साहब के ईश्वर-चिन्तन की विशेषता है। दोनों के सन्तुलित अनुपात में कबीर साहब का ईश्वर-ज्ञान पूर्णत: विश्वसनीय साबित हुआ है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहब की इस उपलब्धि के साथ समीक्षागत तौर पर विशेष न्याय किया है।

ईश्वर-ज्ञान की सिद्धि वैयक्तिक है। व्यक्ति-केन्द्रित चिन्तन, अनुभूति और व्यवहार इस सिद्धि की त्रिविध शक्तियाँ हैं। इस सिद्धि के अन्तर्गत तीन बातें कबीर साहब के व्यक्तित्व में दृष्टिगोचर होती हैं। कबीर साहब ने आत्मचिन्तन और स्वानुभूति के सहारे ईश्वर-ज्ञान को उपलब्ध किया था। यह अपने सामथ्र्य पर अवलम्बित उनकी सिद्धि है। लेकिन सिद्धि की उच्च दशा में पहँुचकर वे अपने द्वारा अनुभूत गुड़तुल्य ईश्वर-मिठास को गूँगे के समान अभिव्यक्ति की असमर्थता को विनम्र बन जाते हैं कि मानते हैं: ‘जैसे वह वैसा कोई नहीं जानता है।’ अर्थात् वे ईश्वर-ज्ञान की पूर्णता का दावा नहीं करते हैं। पूर्ण सत्य पर पूर्ण अधिकार नहीं होने की वास्तविकता की यह स्वीकृति आगे की वैयक्तिक तथा वैश्विक साधना के लिए अवकाश छोड़ती है। कबीर साहब की वैयक्तिक सिद्धि, पूर्ण अभिव्यक्ति की समर्थकता तथा परमतत्व की ऊँचाई की स्वीकृति तीनों बातों में कबीर साहब के ईश्वर-ज्ञान की विश्वसनीयता प्रभावशाली है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कबीर साहब की साधना में विद्यमान इन महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डालने में सशक्त भूमिका निभाई है।   

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि कबीर साहब के ईश्वर-ज्ञान को प्रामाणिक घोषित करने में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के आधार-बिन्दु हैं कबीर साहब की ईश्वर-धारणा में व्यक्तिसापेक्ष तथा विश्वसापेक्ष स्वरूप, सगुण-निर्गुण की पुरर्परिभाषा के साथ सगुण-निर्गुणातीत की मुक्त परिकल्पना, परमतत्व की अन्वेषण-पद्धति के अन्र्गत आत्मचिन्तन, स्वानुभति तथा उसमें समन्वय एवं वैयक्तिक सिद्धि, पूर्ण अभिव्यक्ति की असमर्थता तथा परमतत्व की स्वरूपगत उच्चता में सन्तुलन। कबीर के अनुभवाश्रित ईश्वर-ज्ञान के इन समस्त पक्षों में पूर्ण सन्तुलन स्थापित करने तथा उन्हें स्पष्ट अभिव्यक्ति प्रदान करने के माध्यम से आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने सन्त कबीर के प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व के साथ पूर्ण न्याय किया है। ‘सत्य के प्रति पूर्ण आस्था, उसके साथ तादात्म्य की मनोवृत्ति तथा उसी के आदर्शों पर निश्चित व्यवहार की प्रवृत्ति’ को कबीर साहब के सन्त-व्यक्तित्व पर घटित करके उनके ईश्वर-ज्ञान को आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने पूर्णत: विश्वसनीय और प्रमाणिक घोषित किया है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का यह अमर योगदान कबीर-दर्शन के लिए ही नहीं, सन्त साहित्य और हिन्दी साहित्य के लिए भी मील का पत्थर सिद्ध हुआ है। वे कबीर-समीक्षा के ध्रवनक्षत्र के रूप में चिरस्मरणीय रहेंगे।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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सुन भाई साधो (त्रैमासिक), गोरखपुर, पृष्ठ संख्या 28-33 में -- जनवरी 2006 को प्रकाशित 

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