मदन मोहन मालवीय और देश-निर्माण
मदन मोहन मालवीय और देश-निर्माण
डॉ. एम. डी. थॉमस
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1. महामना मदन मोहन मालवीय एक स्वर्णिम नाम
‘महामना मदन मोहन मालवीय’ एक ऐसा नाम है जो भारत के इतिहास के पन्नों में हमेशा स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगा। काशी हिंदू विश्व विद्यालय, वाराणसी, जो कि देश और दुनिया में कई मायनों में मशहूर और प्रतिष्ठित है, की परिकल्पना और भव्य शुरूआत का पूरा श्रेय उन्नीसवीं-बीसवीं शतियों को कुछ विलक्षणता के साथ जोड़नेवाले इस महाशय के हिस्से में जाता है। इक्कीसवीं शती ने उन्हें ‘भारत रत्न’ की खिताब से नवाजा है। लेकिन, अपनी गुणात्मक जीवन-दृष्टि और अनूठे योगदान की वजह से वे अपने समय में ही स्वयं ‘भारत रत्न’ थे। अपनी जीवनी, कथनी और करनी से उन्होंने भारत को ही रत्न बनाने की साधना में प्रतिबद्धता से लगे रहे। ‘महामना’ की उपाधि से विभूषित महा मनवाले इस आदर्श पुरुष की यही महाशयता थी।
2. देश का निर्माण
अंग्रेजों के पहले यह भूभाग, जिसे हम भारत कहते हैं, एक नहीं था। शायद सहस्त्राब्दियों के लिये यह उन छोटे-बड़े राजाओं के चंगुल में था जो आपस में लड़ते-झगड़ते रहते थे और दूसरे की संपति को लूटते या तहस-नहस करते थे। अंग्रेजों ने टुकड़ों में बँटे हुए इस भूभाग को इक्कट्टा कर ‘भारत / इंडिया’ बनाया। अंग्रेजों की बदौलत यह विशाल भूभाग एक देश बना और अब यह अंग्रेजों से भी आजाद होकर स्वतंत्र बना हुआ है। ऐसे में, किसी को लग सकता है कि अब भारत के निर्माण का सवाल कहाँ उठता! लेकिन, सच्चाई यह है कि आजादी के करीब सत्तर साल बाद भी भारत एक सभ्य और परिपक्व देश नहीं बना है। इसका निर्माण अब बहुत बाकी है।
वर्तमान भारत के पास एक स्वतंत्र देश के लिये जरूरी भौगोलिक और राजनीतिक ढाँचा तो है। लेकिन, स्वशासन को सुशासन में बदलना अभी भी दूर की बात है। बहुसंख्यक जनता की जिंदगी में सामाजिक, सांस्कृतिक, लैंगिक, वैचारिक, धार्मिक, नैतिक, आदि क्षेत्रों में अभी तक सही मायने में आजादी आयी नहीं हैं। ‘जनता द्वारा, जनता के साथ, जनता के लिये’ ऐसी लोकतांत्रिक भावना का हकीकत में बदलने में बहुत वक्त लगेगा, ऐसा लगता है। अनेक नागरिक क्या शासन-प्रशासन के धुरंधर भी संविधान के ‘प्रियांबिल’ के मर्म की समझ नहीं रखते हैं। शासक-शासित, अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे-अनपढ़, ऊँच-नीच, अपने-पराये, आम-खास, आस्तिक-नास्तिक, यह धर्म-वह धर्म, आदि के बीच के भयानक फासले ने भारत को बुरी तरह खेमों में बाँटकर रखा है। जाहिर है, देश का असली निर्माण अभी भी एक सपना है, जिसे साकार करने के लिये महामना मालवीय जी की प्रेरणा जरूरी है।
भारतीय संस्कृति, धर्म, सत्यमेवजयते, राष्ट्रवाद, सर्व धर्म समन्वय, सामाजिक समता, सुशासन, संपूर्ण आजादी, आदि ऐसे कुछ तत्व हैं, जो देश के निर्माण की दिशा में अहम् महत्व रखते हैं। इन बिंदुओं पर मालवीय जी ने समय-समय पर बहुत ही ठोस और शाश्वत उद्गार व्यक्त किये हैं। उनके इन प्रेरणादायक विचारों की रौशनी में वर्तमान भारत का विश्लेषण कर उज्ज्वल भारत के निर्माण के अलग-अलग पहलुओं पर संक्षेप में चर्चा की जा रही है।
3. भारतीय संस्कृति की वकालत
मालवीय जी में भारतीय संस्कृति की चेतना बुलंद थी। वे मानते थे, ‘भारत की एकता का मुख्य आधार है संस्कृति, जिसका उत्साह कभी नहीं टूटा। यही इसकी विशेषता है। भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण है, क्योंकि भारतीय संस्कृति की धारा निरंतर बहती रही है और रहेगी’1। उनके इस उद्गार में विशेष बात है कि एकता को भारत की संस्कृति पर आधारित करना। संस्कृति और एकता एक-दूसरे के पूरक हैं। असली संस्कृति वह है जो एकता को मजबूत करती है। असली एकता भी वही है जो संस्कृति पर आधारित है। भारतीय संस्कृति की अहम पहचान उसकी ‘विविधता’ है। इस विशेषता की चरम परिणति है ‘एकता’ अर्थात् ‘विविधता में एकता’। विविध परंपराओं और समुदायों में एकता को मजबूत करने से भारतीय संस्कृति में भी निखार आयेगी और भारत सारी दुनिया में प्रतिष्ठा पायेगी, यह निश्चित है।
लेकिन, भारत का अतीत गवाह है कि ‘विविधता में एकता’ का कतिपय तरीकों से हनन हुआ है। वर्तमान भारत भी इस आदर्श को चुनौती देनेवाली कई परिस्थितियों से गुज़र रहा है। बहुतेरे लोग ‘विविधता’ को सही मायने में समझ नहीं पाते हैं और दूसरे के फर्क से घबड़ा जाते हैं तथा उन्हें बर्दास्त तक नहीं कर पाते हैं। स्वार्थ, संकीर्णता और गलतफहमियों के कारण समूहों और समुदायों के दरम्यान फासला बढ़ता हुआ नज़र आ रहा है। आपस में नफरत फैलाने और एकता के भाव को तोड़नेवाली आसुरी ताकतें सक्रिय हो रही हैं। ताकतवर समुदाय अपने को मुख्य-धारा के और ताकतहीनों को हाशिये के हकदार मानते हैं। कुछ लोग सामूहिक या दलीय तौर पर देश पर मालिकाना हक जताने की सनकी हौड़ में लिप्त दिखायी देते हैं। कोई किसी-न-किसी बहाने को लेकर औरों पर हमला करने पर तुला हुआ नज़र आ रहा है। विविधता से भरी-पूरी भारत की ‘इंद्रधनुष-सी’ भारतीय संस्कृति के साथ इन्साफ तभी होगा जब भारत के लोग साथी नागरिकों के साथ ‘हम की भावना’ और एकता बनाये रखें। ऐसी ‘मिल-जुलकर जीने की तहजीब’ पर अमल करने की ओर मालवीय जी का इशारा है। एकता से संस्कृति बनती ही नहीं, मजबूत भी होती है।
4. सत्यमेवजयते का आदर्श
‘सत्यमेवजयते’ को लोकप्रिय बनाकर देश का नारा बनाने में पण्डित मदन मोहन मालवीय का अहम् हाथ है।2 उन्होंने मुण्डकोपनिषद3 की इस बात को 1918 में इंडियन नैशनल कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन में प्रस्तुत किया था और समर्थन हासिल किया था। अब अशोक चिन्ह के साथ ‘सत्यमेवजयते’ का राष्ट्रीय मंत्र भी भारत की पहचान के रूप में बना हुआ है। ‘अंतत: केवल सत्य ही जीतेगा’ यह समस्त नैतिक आदर्शों की चरम सीमा है। महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘सत्य ही ईश्वर है’4। सत्य की जीत ईश्वर की जीत है और आत्मा की जीत है। सच्चाई की जीत अच्छाई की जीत भी है। इसका मतलब है, बुराई भले ही जीतती हुई दिखायी दे, वह असल में पल भर की जीत है। आखिर उसे एक दिन मात खाना ही है। ‘सत्यमेवजयते’ भारत का आध्यात्मिक मंत्र है और सभी भारतवासियों के लिये खास तौर पर प्रेरणा का स्त्रोत है। मदन मोहन जी की समग्र दृष्टि ने इस आदर्श को भारत के माथे पर ही स्थापित किया है।
लेकिन, असल में, यह एक शोध का विषय है कि यह मंत्र भारतवासियों के रोजमर्रा की जिंदगी पर कितना असर कर रहा है और कितना नहीं। लगता है झूठ इन्सान का अभिन्न अंग है। सब लोग कभी-कभार झूठ बोलते हैं। कुछ लोग करीब-करीब हमेशा ही झूठ बोलते हैं। काफी लोग हल्के-फुल्के झूठ से काम चलाते हैं, जबकि कुछ लोग भयंकर और खतरनाक झूठ बोलने के आदी हैं। बहरहाल, झूठ ज्यादातर लोगों की आदत में काफी गहराई में उतर चुका है। और तो और, एक सर्वेक्षण के अनुसार ‘पढ़े-लिखे लोग ज्यादा झूठ बोलते हैं’5। इस पर बहस हो सकता है। फिर भी, सहज रूप से यह लगता है कि यदि अनाड़ी लोग झूठ बोलें तो अगले पल ही ये पकड़ में आ सकते हैं, क्योंकि वे काफी हद तक मन के सीधे और भोले-भाले हैं। लेकिन, शिक्षित लोग दिमाग के इतने तेज हो गये हैं कि एक झूठ को साबित करने के लिये सौ झूठ भी पेश करने के काबिल हैं। कुछ लोग झूठ पैदा करने में पेशेवर तरीके से भी माहिर हैं। कम से कम कहा जाय, तो रोजमर्रा की जिंदगी में जिन लोगों के साथ संपर्क होता है उनमें ज्यादातर बड़ी मात्रा में बेहिचक झूठ के सहारे अपना-अपना काम चलाते दिखायी देते हैं। यदि ये बातें सच हैं, तो, मुझे लगता है, खास तौर पर भारतीय समाज को मालवीय जी द्वारा समर्थित ‘सत्य-मंत्र’ से नये सिरे से प्रेरणा और ऊर्जा लेने की जरूरत है।
5. धर्म का मर्म
धर्म के विषय में मालवीय जी की दृष्टि बहुत ही सुलझी हुई है। उन्होंने कहा है, ‘हम धर्म को चरित्र-निर्माण का सीधा मार्ग और सांसारिक सुख का सच्चा द्वार मानते हैं। हम देश-भक्ति को सर्वोत्तम शक्ति मानते हैं जो मनुष्य को उच्चकोटि की निस्वार्थ सेवा करने की ओर प्रवृत करती है’6। दो बातें खास हैं -- एक, धर्म को चरित्र-निर्माण का साधना मानना, और दो, भक्ति से देश-भक्ति की ओर चलना। मालवीय जी ने चरित्र के निर्माण को धर्म की मंजिल के रूप में स्थापित किया, जिससे मूल्य-चेतना को मानवीय जीवन के केंद्र में महत्व मिले। साथ ही, भक्ति का प्रौढ़ और विकसित रूप देश-भक्ति के तौर पर राष्ट्र-भावना में परिणत होता है। इसलिए अलग-अलग परंपराओं के धर्म-ग्रंथों के परे नागरिक होने के नाते सभी नागरिक ‘भारत के संविधान को देश का सबसे पवित्र ग्रंथ’ मानें, यह दरकार है। और तो और, देश-भक्ति धर्म-परंपराओं से उभरते मूल्यों पर आधारित हो, यह भी जरूरी है, जिससे कोई उन्माद से भटक न जाये। मालवीय जी की दोनो बातें धर्म के मर्म के साथ उसकी बुलंदियों को छूनेवाली हैं।
भारत धार्मिक देश के रूप में जाना जाता है। दुनिया की करीब-करीब सभी मुख्य धार्मिक परंपराएँ भारत में मौजूद हैं। सभी धाराओं के देवालय, तीर्थस्थान, व्रत-पूजा-पर्वादि के साथ-साथ दैविक कथाएँ और सांस्कृतिक मूल्य भी भारत के अंग हैं। धर्म के नाम पर भारत में जितना समय व्यय होता है और दान दिया जाता है, उसका, मुझे नहीं लगता, दुनिया में भारत का कोई मुकाबला हो सकता है। लेकिन, सच तो यह है कि अक्सर लोग कथाएँ, पूजापाठ, व्रत, तीर्थयात्रा, आदि को ही धर्म समझते हैं। धर्म को चरित्र-निर्माण से जोड़कर समझनेवाले दुर्लभ हैं। ऐसे हालात का नतीजा यह है कि जीवन के गलियारों में नैतिक मूल्यों का संचार नहीं के बराबर है। और तो और, धर्म श्रद्धालुओं को बेहतर नागरिक बनने और बेहतर देश के निर्माण के लिये प्रतिबद्ध होने की दिशा में सशक्त करता हो, ऐसी स्थिति भी नहीं दीखती है। इतना ही नहीं, कुछ लोग देश-भक्ति को संकीर्ण दायरे में रखकर समझते हैं और सनकी व्यवहार करने लगते हैं। जाहिर है, अंधविश्वासों के माया-जाल में पड़े भारत के बहुसंख्यक लोग धर्म के असली फल की दिशा में चल सकें और देश को बेहतर बनाने में काम आ सकें, इसके लिये महामना जी का धर्म-विषयक उद्गार प्रेरणा की बुलंद आवाज है।
6. राष्ट्रवाद का सर्वसमावेशी रूप
राष्ट्रवाद के संदर्भ में मालवीयजी ने ‘हिंदू’ शब्द का इस्तेमाल किया करते थे, जैसे काशी हिंदू विश्व विद्यालय के नामकरण में किया था। लेकिन, उनकी दृष्टि पर कोई संकीर्ण, एकांतिक, राजनितिक, कट्टर और सांप्रदायिक आवरण रहा हो, जो कुछ समय से ‘हिंदू राष्ट्र’ को लेकर उभरा हुआ है, ऐसा तो कतई नहीं लगता। जिस प्रकार काशी हिंदू विश्व विद्यालय सबके लिये रहा है, जिसमें ईसाई और मलयालम् का मैं भी हिंदी साहित्य का विद्यार्थी रहा, ठीक उसी प्रकार ‘हिंदू’ शब्द भी उनके लिये अपवर्जक नहीं था, बल्कि सिर्फ एक विविधता-बहुल और विशाल समुदाय का सूचक मात्र। उन्होंने इंडियन नैशनल कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में 1933 में कहा, ‘मैं हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी और समस्त देशवासियों से अनुरोध करता हूँ कि सांप्रदायिक फर्क को किनारे कर सभी समूहों के बीच राष्ट्रीय एकता स्थापित करें’7। इस कथन में निहित कतिपय विचार-बिंदु सोचनीय है। सहस्त्राब्दियों से भारत में रह रहे विविध समूह ‘समुदाय’ बने रहें, ‘संप्रदाय’ नहीं। वे समुदाय-समुदाय में किसी भी बात को लेकर फर्क न करें। वे एक-दूजे से जुड़कर, मनमुटाव से दूर रहकर, एकता की भावना के साथ एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में रहें। असली राष्ट्रवाद सर्वसमावेशी है। उनके इस उद्बोधन में चिंतन और भावना की उदात्तता ही नहीं, राष्ट्रीयता की परिपक्व और संपूर्ण परिकल्पना है। राष्ट्रवाद की यह खुली और सर्व-समावेशी सोच उनकी महनीयता का परिचायक है।
लेकिन, वर्तमान भारत राष्ट्रवाद को लेकर एक बहुत ही नाजुक दौर से गुज़र रहा है। कोई-कोई देश को दूसरे देशों से कटी हुई एक पूरी तरह से स्वतंत्र सत्ता के रूप में समझते हैं। कई लोग दूसरे देशों को पड़ोसी और दोस्त मानने के बजाय दुश्मन समझ बैठते हैं। किसी-किसी को देश में खूबियाँ ही खूबियाँ नज़र आती हैं और नजीजतन, सपनों की दुनिया का यह अतिरंजित रूप जमीनी हकीकत से कतई मेल नहीं खाता है। कोई-कोई राष्ट्रीयता को ‘भारत माता की जय’ जैसे नारों, झंडा फहराने-जैसे प्रतीकों, आदि के सीमित दायरे में लागू करने की कोशिश करते हैं। सत्ता का यह गणित जाहिर तौर पर संविधान की ‘पंथ-निरपेक्षता’ के आदर्श पर जबर्दस्त वार है, यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है। देश-भक्ति और देश-द्रोह को लेकर काफी गलतफहमियाँ भी हो रही हैं। निहित स्वार्थों की बाजारी शोरगुल के कारण लोकतंत्र और पंथ-निरपेक्षता की स्वस्थ आवाजों को सुनाई नहीं मिल पा रही है। कुछ लोग देश की एकता के ताने-बाने को तोड़नेवाली बातें करके विविध समुदायों के दर्मियान नफरत के साथ-साथ फासला भी बढ़ाते हैं। देश की अखंडता और एकता को चुनौती देनेवाले ऐसे हालात में राष्ट्रवाद की संतुलित समझ के लिए एक बार फिर मालवीय के नब्ज को महसूस करना देश की वजूद के लिये अत्यंत आवश्यक है।
7. सामाजिक समता औत समरसता
देश में विद्यमान सामाजिक विषमता, छुआछूत और अलगाववाद को लेकर मालवीय जी चिंतित थे। छुआछूत की समस्या से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने दो स्तरों पर मुहिम चलायी। एक, तथाकथित नीचों का सामाजिक उन्नयन, और दूसरा, तथाकथित उच्चों का भावनात्मक उद्धार। वे अछूतों को ‘मंत्र-दीक्षा’ दिया करते थे, जिससे वे सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक उच्चता हासिल कर सकें। साथ ही, वे उच्च जाति के लोगों को कहा करते थे, ‘यदि आप लोग भीतर से साफ रहें तो किसी भी व्यक्ति के संपर्क से अछूत नहीं हो सकते’8। उनका यह प्रयास सामाजिक समता की दिशा में एक प्रभावशाली अभियान से कम नहीं था। समाज में सभी जाति, भाषा, लिंग, वर्ग और समुदाय के लोग समरसता से रहे, इस उद्देश्य से महामना ने कहा, ‘देश सशक्त और विकसित तभी होगा जब भारत के लोग सद्भाव और समन्वय के साथ जियेंगे’9। मतलब है, सद्भाव और समन्वय की भावना ही सामाजिक समता और समरसता के भीतरी तत्व हैं। साथ ही, ये तत्व विकसित और शक्ति से संपन्न देश बनने का एकमात्र माध्यम भी है। समाज में ताल-मेल बना रहे, इसके लिये ऊँच-नीच के भाव को खतम करना अनिवार्य है। मालवीय जी की सोच ऊँची ही नहीं, क्रांतिकारी और समग्र भी थी, इसमें कोई शक नहीं है।
वर्तमान भारत की सबसे बुलंद समस्या है दलितों पर अत्याचार और उनका एकजुटता के साथ बढ़ता विरोध। हाल ही में, कई जगह कुछ मांसाहारियों के खानपान या जानवरों के खाल-व्यवसाय को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने दलितों की कुछ क्रूर प्रताड़ना की थी। राजनीतिक फायदे के लिये कुछ शरारती ताकतों ने विश्व विद्यालयों में भी दलितों और अन्य समुदायों के विद्यार्थियों को तोड़ने-मरोड़ने की सुर्खियाँ भी अभी ताजी हैं। इन घटनाओं के पीछे सवर्ण-अवर्ण की जाति-व्यवस्था में छिपी सामाजिक विषमता और अन्याय की पेचीदगियाँ साफ नज़र आती हैं। मौजूदा समय में भारत के तथाकथित अवर्णों और नीची जाति के लोगों की तरफ से न्याय और इन्सानी इज्जत की आवाज बुलंद होती जा रही है। अगर मालवीय जी आज रहे होते, मंत्र-दीक्षा-जैसे अनुष्ठानपरक कदम से भी बढ़कर बात करते, जो 21वीं शती के लिए ज्यादा कारगर है। मालवीय जी द्वारा प्रस्तुत ‘सवर्णों का मानसिक परिवर्तन’ मुझे लगता है, छुआछूत के निदान के लिये ही नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समरसता कायम करने के लिये आज सर्वाधिक कारगर उपाय है। जाति, प्रजाति, रंग, वर्ग, मजहब, विचारधारा, संस्कृति, खान-पान, वेश-भूषा, आदि को लेकर कई मायनों में धृवीकृत विविध समूहों के बीच समता और एकता की भावना देश के समग्र विकास और उज्ज्वल भविष्य के लिये अनिवार्य है। इस दिशा में, बहुत कुछ करना अब शेष है। जाहिर है, मालवीय जी द्वारा सुझाया गया नुस्खा अत्यंत महत्वपूर्ण है।
8. सुशासन के विविध आयाम
मालवीय जी के समय पर लोकतंत्र बना नहीं था। लेकिन, लोकतंत्र की चेतना उनकी आत्मा में बहुत ही बुलंद थी। जाहिर तौर पर, शासन की खूबियाँ लोकतंत्र से ही उभरती हैं। शासन-प्रशासन की क्या-क्या बुनियादी माँगें हैं, इस बात को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था, ‘शासन लोगों के द्वारा हो, यह जितना जरूरी है, ठीक उतना ही जरूरी है, शासन लोगों के हित में हो’10। यह लोकतंत्र की बहुत ही सुस्पष्ट परिभाषा है। 1947 में लोकतंत्र बने भारत में चुनाव की प्रक्रिया से ‘लोगों के द्वारा शासन’ की व्यवस्था लागू है। ‘लोगों के हित में शासन’ उससे भी महत्वपूर्ण है। लेकिन, यह बात तभी सार्थक होगी जब देश में सुशासन कायम हो। सुशासन के लिये लोगों की भागीदारी जरूरी है और लोकतंत्र की भावना संपूर्ण शासन-प्रक्रिया में झलकनी चाहिए। और तो और, सुशासन के लिये शासन-प्रशासन में ‘अनुशासन’ की जरूरत है। विशाल दृष्टि, साफ नीयत, पारदर्शिता, प्रतिबद्धता, आदि गुणों के साथ-साथ देश और जनता के प्रति ईमानदारी एवं देश को तरक्की की ओर ले जाने का दृढ़ संकल्प ‘सुशासन’ की पहचान है। मालवीय जी की सोच देश की भलाई के मर्म को गहराई में छूनेवाली है।
लेकिन, भारत की हकीकत यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने के बावजूद भारत में लोकतंत्र की चेतना काफी कमज़ोर है। इस वजह से सुशासन का आदर्श कुल मिलाकर काफी दूर का सपना है। सुशासन के क्षेत्र में भारत ने कोई खास उपलब्धि हासिल की हो, ऐसा तो नहीं है। यह इसलिए है कि शासन-प्रशासन में मूल्य-चेतना की बड़ी किल्लत है। सभी समूहों, समुदायों और नागरिकों की आवाज़ की ओर तवज्जो नहीं दिया जा रहा है। आम लोगों की कई प्रकार की मज़बूरियों के साथ-साथ ऊपरी दबाव के कारण चुनाव-प्रक्रिया में भी शुद्ध लोकतंत्र काम नहीं करता। साथ ही, चुनाव के बाद नुमाइंदे अक्सर लोगों को भूल जातें हैं, जैसे ऊपर चढ़ने के बाद सीढ़ी को भूलाया जाता है। ऐसे में, लोगों के हितों का नजरंदाज किया जाना स्वाभाविक है। चुनाव के बाद भी लोगों से सलाह-मशविरा होते रहना चाहिए। यह तो दूर की बात है। देश की भलाई को सामने रखकर की जानेवाली लोगों की जायज आवाज़ को ताकत के बलबूते दबाया जाता है। पाँच साल के शासन-काल भी एक प्रकार का चुनावी प्रचार ही लगता है। अगले चुनाव में फिर वोट हाहिल करने के लिए लोगों को लुभाने में ही करीब-करीब पूरा समय बीत जाता है। ऐसे हालात में, लोगों के हित में शासन हो, यह बहुत मुमकिन नहीं लगता है। मालवीय जी से लोकतंत्र की बारिकियों के साथ-साथ सुशासन की तहजीब के मर्म को नये सिरे से सीखने की जरूरत है।
9. संपूर्ण आज़ादी की ओर
मालवीयजी जिस समय रहे, उस समय का भारत अंग्रेजी हुकूमत के अधीन था। उनके और लोगों के मन में अंग्रेजों से राजनीतिक आज़ादी पाने की तमन्ना जितना प्रबल थी ठीक उतना ही उसे पाने की योजनाबद्ध मज़बूत प्रयास भी। इसलिए वे लोगों को आह्वान किया करते थे, ‘निडर रहो और न्याय के लिये लड़ो। आज़ादी पाने का यही रास्ता है’11। उन्होंने लोगों को लड़ाई के तौर-तरीकों के बारे में भी याद दिलायी, ‘देश के प्रति प्रेम मानवीय मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। अन्याय किसी पर करना नहीं चाहिए, अन्याय को बर्दास्त भी नहीं किया जाना चाहिए’12। मालवीय जी के कथन में कई महत्वपूर्ण बातें हैं। ‘निडर रहें, न्याय के लिए लड़ें, आज़ादी पायें, अन्याय न करें, अन्याय होने न दें, देश-प्रेम अंधा न हो, देश-प्रेम मूल्य-समन्वित हो’ -- इन बातों में जिंदगी की जिजीविषा है, जीवन के मूल्य हैं, देश की विशुद्ध परिकल्पना है और देश के साथ नागरिक के नाते का सही अंदाज भी। मदन मोहन जी के कथन में सिर्फ राजनीतिक आज़ादी ही नहीं, सामाजिक, मानसिक, सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक आज़ादी भी साफ झलकती है। मालवीय जी द्वारा प्रस्तुत संपूर्ण और समग्र आज़ादी का यह मसौदा उज्ज्वल भारत के निर्माण के लिये सबसे कारगर उपाय है।
ज़ाहिर बात है कि वर्तमान भारत में राजनीतिक आज़ादी भी स्वार्थ, गलतफहमी, घमंड, तानाशाही, आदि की वजह से लड़खड़ा रही है। करीब-करीब एक तिहाई लोग गरीबी रेखा के नीचे या भिखारी के रूप में या रोटी-कपड़ा-मकान-इज्जत, आदि से वंचित होकर जीवन जी रहे हैं। कुछ पच्चीस-तीस फीसदी लोग अछूत या नीची जाति का दर्जा पाकर हाशिये पर जिंदगी जी रहे हैं। कुछ तीस-चालीस फीसदी लोग अनपढ़ हैं। कुल मिलाकर देश अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे-अनाड़ी, ऊँच-नीच, अपने-पराये, बड़े-छोटे, ताकतवर-ताकतहीन, आदि ध्रुवीकृत हकीकतों के पसोपेश में पिसा जा रहा है। धार्मिक परंपराओं के बहुत दिखावे और दावे के बावजूद जीवन में नैतिक मूल्यों का सख्त अभाव है। शासन-प्रशासन को लेकर सार्वजनिक जगत पर स्थापित लोगों में ज्यादातर लोग देश और जनता के प्रति वास्तव में प्रतिबद्ध नहीं लग रहे हैं। ऐसे में, जाहिर है, भारत के सामाजिक जीवन के तहों में आज़ादी की खुली और जीवनदायक हवा पहुँचना अभी तक बाकी है। मालवीय जी की संपूर्ण आज़ादी की दृष्टि और उसके चरणों पर भारत के हर तबके के लोगों द्वारा ईमानदारी से अमल करने की सख्त जरूरत है। मुझे लगता है, महामना मदन मोहन मालवीय जी के उदात्त सपनों के मुताबिक हमारे भारत देश के पुनर्निर्माण के लिये गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की प्रार्थना प्रेरणा देगी -- ‘हे पिता, आज़ादी के उस स्वर्ग की ओर मेरा देश जाग जाये’13।
निष्कर्ष
महामना मदन मोहन मालवीय उन्नीसवीं शती से कहीं ज्यादा इक्कीसवीं शती में प्रासंगिक हैं, ऐसा कहना समीचीन लगता है। उनके विचार सार्वकालिक हैं। वे समय के साथ सोचते थे। उनकी सोच में गहराई और उँचाई दोनो एक साथ थी। उनके विचार में उदात्तता और खुलापन थे। उनकी दृष्टि विशाल और सर्व-समावेशी थी। सार्वभौमता और सार्वजनिकता उनके नज़रिये की खूबी थी। समग्र आज़ादी, लोकतंत्र, सुशासन, सामाजिक समता, राष्ट्रीय समरसता, धर्म, सत्य, देश की अखण्डता और एकता, भारतीय संस्कृति, आदि अनेक संदर्भों में उनके उद्गार बेहद मौलिक और प्रेरणादायक हैं। उनकी शताब्दी के पुनित अवसर पर उनके सपनों के भारत को चरितार्थ करने का दृढ़ संकल्प नये सिरे से किया जाना चाहिए और बेहतर भारत के निर्माण के लिए जी-जान से प्रतिबद्ध होना चाहिए। उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि बस यही होगी। बस, लेखक की यही मंगल कामनाएँ हैं, और प्रतिबद्ध प्रयास भी।
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ग्रंथ संदर्भ
1. डॉ. चन्द्रिका प्रसाद
शर्मा,
महामना
पं. मदनमोहन मालवीय, परमेश्वरी
प्रकाशन, नयी
दिल्ली, 2007, पृ.सं.43
2. https://www.en.wikipedia.org/wiki/मदनमोहन_मालवीय
3. स्वामी चिन्मयानंद, मुण्डकोपनिषद्, सेन्ट्रल चिन्मय मिशन
ट्रस्ट, मुंबई, 2005, पृ.सं.19
4. महेश शर्मा, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, प्रतिभा प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली, 2008, पृ.सं.207
5. http://www.cbc.ca/news/technology/rich-educated-people-more-likely-to-lie-cheat-1.1242480
6. मंजू ‘मान’, महामना पं. मदनमोहन मालवीय, ज्ञान विज्ञान एजूकेयर, नयी दिल्ली, 2014, पृ.सं.148
7. पूर्व-उद्धृत, पृ.सं.116
8. पूर्व-उद्धृत, पृ.सं.108
9. मिथिलेश पाण्डे, मदन मोहन मालवीय -- जीवन
दर्शन,
राधाकृष्ण
प्रकाशन, नयी
दिल्ली, 2007, पृ.सं.109
10. डॉ. चन्द्रिका प्रसाद
शर्मा,
महामना
पं. मदनमोहन मालवीय, पूर्व-उद्धृत, पृ.सं.39
11. मिथिलेश पाण्डे, मदन मोहन मालवीय -- जीवन
दर्शन,
पूर्व-उद्धृत, पृ.सं.133
12. मंजू ‘मान’, महामना पं. मदनमोहन मालवीय, पूर्व-उद्धृत, पृ.सं.148
13. रविन्द्रनाथ टैगोर, गीतांजलि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1997, पृ.सं.37
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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संदेश (मासिक), पटना, वर्ष 69, अंक 9, पृ.स. 06-11 -- सितंबर 2018 में प्रकाशित
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