रूहानी परंपराओं में तालमेल

 

रूहानी परंपराओं में तालमेल

      डॉ. एम. डी. थॉमस 

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नर्सरी के विद्यालय की कक्षा के बगल से होकर गुजरना एक अनूठी खुशकिस्मती होती है। कक्षा के बच्चों को शिक्षिका के पीछे-पीछे ‘एक तितली, अनेक तितलियाँ’ का पाठ जोर से दुहराते हुए सुनना एक बेहद खुशनुमा एहसास होता है। ‘एक और अनेक’ के बीच मेल-जोल की बुनियाद पर ही जिंदगी की इमारत खड़ी होती है। इस नजर से देखा जाया, इन दो शब्दों की मिली-जुली हकीकत में इस कायानात का राज पाया जाता है। दूसरे ल्फ्जों में कहा जाय, एक और अनेक खुदाई रचना की दो दिशाएँ हैं या वे दो पटरियाँ हैं, जिन पर इन्सानी जिंदगी की गाड़ी सुचारू रूप से चलती है।  

‘एक और अनेक’ जिंदगी की दो नजरिये होते हैं। भाषा, जाति, प्रजाति, मजहब, तहजीब, विचारधारा, आदि को लेकर सामाजिक जीवन में बेशुमार विविधताएँ पायी जाती हैं। ‘एक’ की तरफ से देखा जाय, इनमें एक बुनियादी एकता है। ‘अनेक’ की तरफ से देखा जाय, ये सब अलग-अलग हैं। दोनों नजरिये अपनी-अपनी जगह एक-जैसे सही हैं। अगर दोनों पहलुओं पर कुछ और करीब से गौर किया जाय तो पता चलेगा कि सहज तौर पर एक का रुझान अनेक की ओर है और अनेक का, एक की ओर। एक और अनेक एक दूसरे के खिलाफ कतई न होकर सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक दूसरे के पूरक हैं। आपस में जुड़े रहने में दोनों पहलुओं की सार्थकता है। उनके आपसी तालमेल में ही इन्सानी जिंदगी की कामयाबी और खुशी भी हैं।

‘अनेक’ का मतलब महज एक से ज्यादा होना नहीं है। अनेक के हर पहलू की अपनी-अपनी अहमियत होती है। हर पहलू में आपस में ‘फर्क’ है। फर्क के बारे में किसी-किसी को गलतफहमी होती है। लेकिन, फर्क गलत या बुरा न होकर सही और अच्छा है। फर्क का होना जरूरी भी है। मसलन, नर और मादा में जो कुदरती फर्क है वह खुदा की अहम योजना है, जिसके बगैर जीने-बढ़ने की कल्पना तक कदापि मुनासिब नहीं होती। दोनों में जो फर्क है, वह उनकी खासियत है, खूबी भी है। सामाजिक जीवन की विविधताओं के दरमियान पाये जानेवाले भाँति-भाँति के फर्क किंचित भी नकारात्मक नहीं है। फर्क शाश्वत रूप से सकारात्मक गुण है। फर्क में ही जिंदगी की मलाई है और उसके रस से ही जीने का रूहानी राज उजागर होता है।

रूहानी जज्बात इन्सानी जिंदगी की रीढ़ है। उसी के बलबूते और इर्द-गिर्द जीवन का खेल चलता है। इसमें भी एक और अनेक की आँखमिचौली चलती रहती है। रूहानी सोच मजहबी और गैर-मजहबी दोनो हो सकती है। दोनो रूह की साधना की दो राहें हैं। पहली राह मजहब के तौर-तरीकों को अपनाते हुए निजी भावनाओं के सहारे रूह को तलाशती है। दूसरी राह बाहरी हकीकतों की खोजबीन से भीतरी तत्व​​ को टटोलती है। दोनों की पद्धति कुछ अलग होने पर भी, सच में, वे बराबर महत्व के हैं। रूहानी जज्बात दोनों में एक-जैसी सक्रिय रहती है।

रूहानियत की दो दिशाएँ होती हैं। एक लंबवत है और दूसरी समांतर। पहली व्यक्तिगत और दूसरी सामाजिक है। पहली निजी एहसासों को लिये चलती है और दूसरी औरों से जुड़ी हुई चलती है। एक अकेले और सीधे खुदा की तरफ चलने का रास्ता खोजती है और दूसरी साथी-सहेलियों के साथ और उनके जरिये खुदा के पास पहुँचने का रास्ता ढूढ़ती है। पहली अपना बेड़ा पार करवाने के चक्कर में फँसी रहती है और दूसरी औरों की भलाई करने में मशगूल है। पहली दिशा खुद को खुदा के चरणों पर पेश करने को जीवन की मंजिल समझ्ती है जबकि दूसरी दिशा अपने भाई-बहनों की मदद करने को जीवन का फर्ज मानती है। पहली दिशा अकेले चलने की है और दूसरी दिशा साथ चलने की। जिंदगी में कुछ समय के लिये और कुछ दूर चलने के लिये अकेले चलना ठीक माना जा सकता है। लेकिन पूरी जिंदगी और बहुत दूर चलने के लिये साथ-साथ चलना ही जायज है। रूहानियत की इन दोनों दिशाओं में संतुलन का होना जरूरी है।

रूहानियत सिर्फ एक है। अलग-अलग रूहानियत नहीं होती है। यह इसलिये है कि रूह एक है उसे बाँटी नहीं जा सकती है। यह बात जरूर है कि रूहानी जज्बात के अलग-अलग पहलू होते हैं। अलग-अलग मजहबी परंपराओं में और गैर-मजहबी विचारधाराओं में भाँति-भाँति के जज्बातों के माने जाने की पूरी गुंजाईश रहती है। लेकिन, उन्हें एक-दूसरे की खासियत को समेटते हुए ‘इंद्रधनुष’ सरीखे एक इकाई के रूप में बनी रहनी होगी। उन्हें इस तरह एक-दूसरे से मिले हुए चलना होगा, जिस तरह सरिताएँ मिलकर नदी बनकर सागर की ओर बहती हैं। जज्बातों के दरमियान आपसी सम्मान, बराबरी की भावना और साथ-साथ की भावना के होने से रूहानियत की सच्चाई परखी जाती है। विविध रूहानी परंपराओं के आपस में तालमेल से ही असली रूहानियत का रूप उभरता है।  

सारे कायनात में और खास तौर पर इन्सान के भीतर प्राण के रूप में खुदा मौजूद है। उपनिषद की बात ‘अहम ब्रह्मास्मि’ इस हकीकत की ओर इशारा करती है। जब बाइबिल कहती है कि इन्सान में ‘ईश्वर की छाया’ है तब यही बात कही जा रही है। ईंट-पत्थरों के मंदिर की जगह ‘इन्सान को ईश्वर का असली मंदिर’ माना जाना चाहिये, जैसे बाइबिल का मानना है। अल्लाह या अलख की नूर से सब कुछ उपजा है, यही मान्यता है गुरुग्रंथ और कुरान की भी। निचौड़ यह है कि इन्सान खुदा की औलाद है और हर इन्सान एक दूसरे के लिये भाई-बहन के समान है। साथ ही, खुदा का एहसास इन्सानी जिंदगी का मर्म है। मिल-जुलकर रहना, एक दूसरे से प्यार-मुहब्बत से रहना, एक दूसरे की मदद करना, कमजोरों को तरजीही तौर पर थामना, साथ-साथ चलना, आदि रूहानी जज्बात और एहसास की साफ निशानी है। ऐसी जीवन-शैली ही रूहानी परंपराओं में आपसी तालमेल मौजूद रहने का अमिट सबूत है।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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समृद्ध सुखी परिवार (मासिक), नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या 15 -- नवंबर 2013 में प्रकाशित

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