बहता पानी निर्मला, बंधा गंदला होय
बहता पानी निर्मला, बंधा गंदला होय
डॉ. एम. डी. थॉमस
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर की विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक कृति गीतांजलि में एक अनोखी प्रार्थना है। हे प्रभु! तू यदि हमेशा एक ही रूप में मेरे सामने प्रकट होगा, तो हो सकता है मैं ऊब जाऊँ, और तुझे देखने की मेरी ख्वाहिश ही खत्म हो जाए। इसलिए तुझसे मेरी गुजारिश है कि तू रोज हर पल नए-नए रूपों में मेरे जीवन में आ। इस प्रार्थना का भाव है सदा नये पन की तलाश, सदा उसकी इच्छा।
अजीब बात है कि साहित्य में और धर्म में हम हमेशा नऐपन की बात करते हैं, उसकी सराहना करते हैं। लेकिन सामाजिक जीवन में उसे हतोत्साहित करते हैं। हम बदलाव का विरोध करते हैं, नए विचारों की अनदेखी करते हैं, और नए नेतृत्व को कुचलने की कोशिश करते हैं। हम उस नयेपन की अनुभवहीनता के नाम पर कुर्बान कर देते हैं, जिसकी ललक समूची प्रकृति में पाई जाती है। जिस प्रकार पेड़-पौधों में नई-नई कोपलें फूटकर निकलती हैं, ठीक उसी प्रकार युवाओं में नये-नये विचार और नये-नये भाव उभरते रहते हैं। नयेपन की तलाश युवाओं का केन्द्रीय भाव है। युवा नयेपन का जीवन्त प्रतीक है। उनमें नई ऊर्जा और नई लगन होती है। उनमें नये ढ़ंग से जीने की इच्छा, कुछ नया जानने की इच्छा, जमाने से अलग कुछ कर डालने की इच्छा होती है। उनके इस नयेपन को, इस उत्साह और जोश को सही अभिव्यक्ति मिले, यह उनका बुनियादी हक है। और मानव समाज को आगे बढ़ने के लिए उनके इस नयेपन की बेहद जरूरत है।
हमारे समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा युवाओं का है। बावजूद इसके, समाज को चलाने में युवाओं की सहभागिता बहुत ही कम है। आजकल अनेक राजनीतिक दलों की युवा शाखाएँ बनी हुई हैं। कई समुदायों में युवा संगठनों का सक्रिय रूप भी देखने को मिलता है। फिर भी उनमें नयापन नहीं दिखता, रचनात्मकता नहीं दिखती। युवाओं के नयेपन का सकारात्मक असर सामाजिक जीवन पर हो, कानून और नीतियों पर हो तथा प्रशासन पर हो — इसके लिए व्यवस्था बदलनी होगी।
संगीत की दुनिया में स्वरों के आरोह और अवरोह होते हैं। जैसे आरोह और अवरोह दोनों मिलकर राग-रागिनियाँ बनाते हैं, ठीक उसी तरह सामाजिक जि़न्दगी भी आरोह और अवरोह का मिला-जुला रूप है। बड़े-बूढ़ों की जि़न्दगी आरोह की सीढ़ियाँ चढ़ चुकी है और अब या तो स्थिर हैं या अवरोह की ओर हैं। उनका ज्ञान और जि़न्दगी का तजुर्बा समाज के लिए अमूल्य धरोहर है। समाज को सुचारू रूप से चलाने में बुजुर्गों की कुशलता, अनुभव और जिम्मेदारी पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन इसके बावजूद समाज के निर्माण में युवाओं की सहभागिता इससे बढ़कर होती तो आज हमारे समाज का रूप भी कुछ और बेहतर होता। भारत में एक मशहूर सन्त कवि हुए दादू दयाल, उनकी दो पंक्तियाँ हैं —
पूरन ब्रह्म बिचारिए तब सकल आत्मा एक।
काया का गुण देखिए तब नाना बरन अनेक।।
मतलब है शरीर के स्तर पर अनेकता है और आत्मा के स्तर पर एकता। एक पहलू पर ध्यान केंन्द्रित करने से बिखराव आता है और सम्पूर्ण पर विचार किए जाने से आत्माएँ आपस में जुड़ जाती हैं। इसलिए शरीर के स्तर से ऊपर उठकर आत्मा के स्तर पर सोचना चाहिए। बड़े-बूढ़े लोग आखिरी साँस तक अपने परिवार, संस्था, समुदाय और देश को अपनी मुट्ठी में बाँधे रखकर उसका फायदा भोगने की कोशिश में रहते हैं और युवा पीढ़ी को साथ लेकर उसे नेतृत्व में सक्षम बनाने में कम दिलचस्पी लेते हैं। कबीर ने यह सब देखकर कहा था —
बहता पानी निर्मला, बंधा गंदला होय। साधु जन रमता भला, दाग न लागे कोय।।
धर्म और इन्सानियत
साफ--सुथरे रहें, उसके लिए नेतृत्व को भी हर क्षण बहते पानी के समान हर पल नया और गतिमान
रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में समरसता लाने का यही है गुरुमंत्र।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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नवभारत टाइम्स (दैनिक), नयी दिल्ली -- 15 सितंबर 2006 को प्रकाशित
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