देश के निर्माण में युवाओं का योगदान

 

देश के निर्माण में युवाओं का योगदान

डॉ. एम. डी. थॉमस

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समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा युवाओं का है। बावज़ूद इसके, समाज को चलाने में युवाओं की सहभागिता बहुत ही कम है। आजकल, कतिपय राजनीतिक दलों की युवा-शाखाएँ बनी हुई हैं। कई समुदायों में भी युवा संगठनों का सक्रिय रूप देखने को मिलता है। फिर भी, युवाओं के नयेपन का सकारात्मक असर सामाजिक जीवन पर हो, समाज के कानून और नीतियों पर हो तथा नेता-प्रशासकों पर हो, इसके लिए, मुझे लगता है, इन्तज़ार की घड़ी अब खतम नहीं हुई है।

जहाँ भी देश के निर्माण की चर्चा होती है, हिन्दी साहित्य के मशहूर सन्त कवि दादूदयाल की दो पंक्तियाँ कतई नहीं भुलायी जा सकती हैं — ‘दादू पूरन ब्रह्म बिचारिए, तव सकल आत्मा एक। काया का गुण देखिए, तव नाना बरन अनेक।।’  मतलब है, शरीर के स्तर पर अनेकता है और आत्मा के स्तर पर एकता है। एक पहलू पर ध्यान केन्द्रित करने से बिखराव आता है और सम्पूर्ण पर विचार किये जाने से आत्माएँ आपस में जुड़ जाती हैं। इसलिए शरीर के स्तर से ऊपर उठकर आत्मा के स्तर पर सोचना चाहिए। भारत देश की, बस यही कहानी है। ‘विविधताओं के संगम में एकता है। एकता में विविधताओं की समृद्धि भी है’।

भारत देश अपनी विविधताओं के लिए समूची दुनिया में एक खास जगह रखता है। वास्तव में भारत एक देश न होकर अनेक देशों का एक विशाल समूह है। भौगोलिक खूबसूरती की तरह-तरह की परिभाषाएँ यहाँ मिलती हैं। जातियों, प्रजातियों और जनजातियों की बेशुमार भिन्नताएँ भी हैं। राष्ट्रभाषा और अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के साथ-साथ पन्द्रह राष्ट्रीय स्तर पर अंगीकार-प्राप्त प्रादेशिक भाषाएँ और हजारों जन-बोलियाँ भारत की खूबी है। दुनिया की सभी बड़ी-बड़ी मज़हबी परम्पराएँ भारत में मौजूद हैं। भारत की बड़ी और छोटी विचारधाराओं के साथ-साथ विश्व की करीब सभी विचारधाराएँ भारत में मौज़ूद हैं ।

 

भारत की हिन्दुस्तानी और कर्नाटकीय संगीत-पद्धतियाँ बहुत ही अनुभवात्मक और मोक्षदायिनी हैं। शास्त्रीय नृत्य की सातों परम्पराएँ और लोकनृत्य की सैकड़ों परम्पराएँ ‘एक से बढ़क​र एक अच्छी’ के तौर पर मनमोहक हैं। साहित्य की विविध विधाएँ हों, वेश-भूषा के रंग-बिरंगे तौर-तरीके हों, खान-पान के बेशुमार पकवान हों या सामाजिक रीति-रिवाज़ के भिन्न-भिन्न अंदाज़ — ये सब भारतीय समाज की विविधताओं के अलग-अलग आयाम हैं। भारत की एक सँस्कृति न होकर भारत में अनेक संस्कृतियाँ साथ-साथ रहती-बढ़ती हैं। उपर्युक्त सभी विविधताएँ भारत देश की सामाजिक धरोहर हैं। इन विविधताओं को एक सूत्र में पिरोने वाली चीज़ है एकता का भाव। भारत बेशुमार मामलों में अनेक होकर भी एक है, एक होकर भी अनेक है। ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ का सारतत्व, बस ऐसी पारिवारिक भावना है। ऐसी अनोखी विशेषता वाले देश का नागरिक होने की खुशकिस्मती पाकर हमें अपने आप पर नाज़ होना चाहिए।

राष्ट्र के रूप में भारत की इमारत भारत के संविधान की नींव पर खड़ी है। विश्व के समस्त संविधानों में भारत के संविधान की अपनी पहचान है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के लायक होना ही इस संविधान का अनूठापन है। पंथरिपेक्षता इस संविधान की जान और शान है। यही दृष्टिकोण लोकतन्त्र की बुनियाद भी है। इसके मुताबिक भारत देश जितना रामभक्त का है, ठीक उतना ईसाभक्त का भी है। वह जितना जैन का है, ठीक उतना मुसलमान और पारसी का भी है। भारत की सभी प्रजातियाँ और भाषाएँ देश के लिए समान महत्व की हैं। नागरिक के रूप में ब्राह्मण और शूद्र, पढ़े-लिखे और अनपढ़ और अमीर और गरीब के समान हक और फर्ज़​ हैं। कानून के सामने सब बराबर हैं। भारत देश किसी एक समुदाय विशेष की बपौती नहीं है। लोकतन्त्र के मुताबिक हर शख्स, वर्ग और समुदाय की अपनी-अपनी जगह है। सब मिलकर भारत देश बनता है। भारत के संविधान के कारण भारत की संस्कृति एक मिली-जुली संस्कृति साबित होती है। इसलिए पंथनिरपेक्षता के नज़रिये के मुताबिक सोचना और बर्ताव करना भारत के हर नागरिक का फर्ज बनता है।

लेकिन, भारत देश का धुआँदार पहलू इतना तेज़ है कि उससे रूबरू होकर कोई भी नागरिक खौफ से भरे बिना नहीं रह सकता। कुछ लोग अभी भी अपने आपको ऊँची जाति के और दूसरों को नीची जाति के समझ्कर छुआछूत का भाव पालते हैं। कहीं दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा है, कहीं जनजातियों और आदिवासियों के साथ बेइन्साफी की जा रही है। कुछ लोग दकियानूसी सोच से ग्रस्त होकर मज़हब और साम्प्रदायिकता के गुलाम बनकर जी रहे हैं। कुछ कट्टरवादी लोग दूसरे समुदायों के लोगों को पराये कहकर उनके साथ हत्या-बलात्कार आदि की धिनोनी गुनाह करते रहते हैं। कोई मज़हब के नाम पर राजनीति करते हैं और कानून के साथ खिलवाड़ करके भी दूसरों को किनारा करने की कोशिश करते हैं। कुछ लोग ‘धर्मान्तरण’, ‘घर-वापसी’ और ‘बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक’ की बेतुक नारों को लेकर सत्ता हथियाने का धंधा करते हैं। कुछ लोग ‘हिन्दुत्व’ आदि की बे-सिर-पैर की विचारधाराएँ गढ़क​र भारतीयता का ठेका लिए हुए हैं और संविधान के साथ भारी जुल्म करते हैं। कोई जीने-बढऩे के संघर्ष में लगे हैं, तो कोई दूसरों पर अपनी ताकत जमाने की नाजायज़ हौड़ में लगे हैं। ज़्यादातर राजनेता पैसे या मुट्ठी की ताकत से सत्ता पर काबिज होकर देश के पहरेदार बने हुए हैं और भ्रष्ट तरीकों से अपनी-अपनी मंजिल पहुँचने में लगे हैं। कई धर्म-नेता ‘सिर्फ मैं और मेरी’ के खुदगर्जी-भरे आदर्श के जाल में फँसकर अपना निजी स्वर्ग बनाने में व्यस्त हैं।

एक मशहूर और जबरदस्त शायर हैं, जिनको मैं करीब से जानता हूँ। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का हवाला देते हुए अमीर और गरीब का रेखाचित्र खींचा है, जो कि गौरतलब है। उन्हीं के लफ्ज़ों में, ‘‘सम्पन्ना और विपन्नता तो सचमुच भाग्य-रेखाओं का चक्कर ही लगता है। क्योंकि मैं स्पष्ट देख रहा हूँ, जिनके पास कुछ नहीं है वे बहुत बड़े बन गये हैं और जिनके पास बहुत कुछ है वे अकिंचन-से बने हैं।’’ उच्च वर्ग के लोग ज़्यादा धन-दौलत के कारण बुरी तरह से बीमार हो गये हैं, जबकि निम्न वर्ग के लोग अपने पास कुछ नहीं होने या जरूरत से कम होने से बेतहाशा परेशान हैं। जीने-बढ़ने के जीतोड़ संघर्षों की मार-काट प्रतियोगिता तलवार के धार पर चल रही है। मूल्य-व्यवस्था हार गयी है, ऐसा लगता है। धर्म के आचार्यगण मन्दिर-मस्जिद के ताकत-परीक्षण में लगे हैं और आम लोग अंधविश्वास की अघाता खाई में फँसे हुए हैं। प्रशासन बड़ी मात्रा में गैर-इन्तज़ामी और निष्क्रियता की हालत में है। देश की असली हकीकत जब गाँवों की जनता से जुड़ी है, नेता-अभिनेता शहरीय धुन पर ही देश को समझने-चलाने पर तुले हैं। बड़े-बूढ़े लोग आखिरी साँस तक अपने परिवार, संस्था, समुदाय और देश को अपनी मुट्ठी में बाँधे रखकर उसका फायदा भोगने की कोशिश में है और युवा पीढ़ी को साथ लेकर उसे नेतृत्व के गुणों से सक्षम बनाने में कम दिलचस्पी लेते हैं। ऐसे उल्टे-पुल्टे हालात में बेशुमार सवाल उठते हैं, जिनका जवाब देना भी किसी भी शरीफ़ नागरिक के लिए, एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है।

जग-ज़ाहिर चिन्तक बर्नाड शॉ का कहना है — ‘यदि तुम वास्तव में कुछ करना चाहते हो, तो तुम्हारा कोई धर्म होना चाहिए’। उनका मतलब यह कतई नहीं कि आप धार्मिक परंपराओं तथा साधनाओं से होकर गुजरें। उनका मतलब है — ‘धर्म प्रेरणा देनेवाला तत्व है’। मेरा धर्म मुझसे यह बात कहलवाता है। मेरा धर्म मुझसे यह काम करवाता है । मेरा धर्म ही मेरी ज़िन्दगी को दिशा देता है। धर्म का यह रूप भारतीय परम्परा में मौज़ूद धर्म की धारणा से मेल खाता है। धर्म का मूल अर्थ ‘धारण करना’ है। जो धारण करता है, वह खुद धर्म है। जिसे धारण किया जाय, वह भी धर्म है । धारण करने का मतलब है —ज़िम्मेदार लेना। हमें खुद की ज़िम्मेदारी लेनी है, साथ ही, दूसरे की ज़िम्मेदारी भी लेनी है। एक दूसरे की ज़िन्दगी को धारण करे, इसी में धर्म का असली भाव है।  

जैन-दर्शन में एक बहुत ही अच्छी बात है — ‘जीओ ओर जीने दो’। अपनी ज़िन्दगी खुद जीना पहला धर्म है। दूसरों को अपनी ज़िन्दगी जीने देना दूसरा धर्म भी। लेकिन मैं ईसाई नज़रिये से एक तीसरा धर्म भी जोड़ना चाहूँगा। वह है — ‘जीने की मदद करो’। एक दूसरे को जीने की मदद करे, इसी में बाकायदा दूसरे की ज़िन्दगी को धारण करने का भाव निहित है। ‘परहित सरिस धम्म नहिं भाई’। दूसरे की भलाई करने से बढ़क​र कोई धर्म नहीं है। तुलसीदास की इस बात का भी बस यही मतलब है। ईसा ने, गुरु और प्रभु होकर भी, अपने शिष्यों के पैर धोये और उन्हें एक दूसरे के पैर धोने की तालीम दी। सामाजिक जीवन को सुचारू रूप से जीने के लिए, आपसी लेन-देन में रिश्ते को मजबूत बनाये रखने के लिए, विनम्र पर-सेवा के इस पाठ से बढ़क​र कोई कारगर तरीका और क्या हो सकता है!

महात्मा कबीर की दो मशहूर पंक्तियाँ धर्म के सामाजिक पहलू को उजागर करने में बहुत ही प्रासंगिक हैं। ‘बहता पानी निर्मला, बन्दा गन्दा होय। साधू जन रमता भला, दाग न लागे कोय।।’ धर्म और इन्सानियत पर दाग नहीं लगे, वे साफ--सुथरा रहे, उसके लिए उनके विभिन्न पहलुओं को बहते पानी के समान एक दूसरे की ओर चलते रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में समरसता लाने का यही है गुरुमन्त्र। समाज में मौजदू भिन्न-भिन्न मज़हबी परम्पराएँ न द्वीप के समान रहें, न समान्तर रेखाओं-जैसे चलें भी। उनमें आपसी सरोकर और सहयोग की भावना रहे, यही वक्त की ज़रूरत है, तकाज़ा भी। विभिन्न महापुरुषों, धर्मग्रन्थों तथा धर्म-दर्शनों की बातें सबको जोडऩे लायक हैं। सांईबाबा ने ‘सबका मालिक एक’ कहकर ज़िन्दगी की हकीकत को निचौडक़र रखा है। श्री नारायण गुरु का मानना है — ‘मज़हब हो कोई भी, इन्सान भला सो भला’। अच्छा इन्सान बनना ज़िन्दगी का आखिरी सच है। महात्मा कबीर का आध्यात्मिक एहसास उतना ऊँचा था कि वे कह उठे — ‘जित देखूँ तित तूँ’। उन्हें सब में खुदा ही खुदा नज़र आता है। बौद्ध दर्शन के मुताबिक ‘मध्यम मार्ग’ को अपनाना ही फायदेमन्द है। जैन दर्शन ने ‘अनेकान्तवाद’ को मानकर हकीकत के बहुआयामीपन पर ज़ोर दिया है। भागवतगीता ने ‘निष्काम कर्म’ की बात करके जीने के अलौकिक अन्दाज़ को ज़ाहिर किया। ‘मेरे इन भाइयों या बहनों के लिए, वे चाहे कितना ही छोटा क्यों न हों, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया’ — ऐसा कहकर ईसा ने पूरी आध्यात्मिकता को सह-इन्सानों के साथ किये जाने वाले व्यवहार पर घटित किया। उपनिषद् ने ‘सर्वे भवन्तु: सुखिन:’ कहकर मानो सब कुछ कह दिया हो। ये सभी बातें किसी एक समुदाय विशेष का न होकर समूची इन्सानी समाज की आध्यात्मिक धरोहर है। इसलिए भिन्न-भिन्न परंपराओं में पले-बढ़े इन्सानों को एक दूसरे का सम्मान करना होगा, एक दूसरे से सीखना होगा और एक दूसरे से आपसी सरोकार और सहयोग की भावना बनाये रखना होगा। यही जीने की कला है। समाज के अलग-अलग समुदाय और इकाइयाँ एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े रहे, मानो वे ‘एक शरीर के अनेक अंग हों’, इसी में समाज का कल्याण है। इस प्रकार समाज में तालमेल और एकता का भाव बना रहे, महात्मा कबीर के ‘बहते पानी’ का बस यही मतलब है।

अंग्रेज़ी साहित्य के मशहूर कवि लोंगफेलो की एक पंक्ति है — ‘लेट एवरी मोरो फाइन्ड यू फारदर दैन टुडे’। मतलब है — आपका हर दिन आपको आगे बढ़े हुए पाये। आप हर दिन प्रगति करते रहें। अपनी ज़िन्दगी के सफर में आगे बढ़ी हुई हालत का नाम है प्रगति। प्रगतिशील रहना जीने का दूसरा नाम है। चलते रहना ही प्रगति करने का मतलब है। प्रगतिशील होना युवाओं की खास पहचान है। लेकिन, अकेले चलने से कोई भी मंज़िल तक नहीं पहुँचता। दूसरों के साथ मिलकर चलना होगा। युवाओं को समाज के बड़े-बूढ़े और तजुरबेकारों के साथ चलना होगा, अपने समुदाय के दूसरे युवाओं के साथ चलना होगा, सभी समुदायों के युवाओं के साथ चलना होगा, और खास तौर पर गाँवों में बसे या पिछड़े हुए युवाओं के साथ चलना होगा। युवाओं को बड़ों से, खास तौर पर अपने माँ-बाप, गुरुजन, बड़े-बूढ़े, तजुरबेकार और महापुरुशों से, प्रेरणा और ताकत हासिल करनी होगी, जैसे बिजली से चलती रेल गाड़ी की एंजिन हर पल तार से छूती हुई चलती है।

युवाओं का संकल्प है — देश का निर्माण करना। देश का निर्माण करने का मतलब है समाज का निर्माण करना। बेहतर समाज का निर्माण करना युवाओं की खास मंज़िल है। बड़े-बूढ़ों द्वारा बनाये गये समाज से युवा लोग, हो सकता है, कई मायनों में संतुष्ट नहीं हैं। वास्तव में काफी बातें बदलने लायक भी होंगी। देश की खूबियों को हर संभव बढ़ाया जाना चाहिए। देश की समस्याओं का हल ढूढ़क​र निकालना होगा। चुनौतियों से बचकर जीना मुनासिब नहीं है । ऐसा जीना असल में जीना भी नहीं है। युवाओं को बेहतर समाज बनाने का काम खुद से शुरू करना होगा। बेहतर इन्सान खुद बने - यही है बदलाव का पहला कदम। नैतिक पतन के इस युग में युवाओं को मूल्यों की पटरी से होकर चलना होगा। जो भी ऐब समाज में पाया जाता है, उससे ऊपर उठकर चलने की हिम्मत हासिल करने में युवाओं की कामयाबी है। युवाओं के नयेपन और जोश की यही परख होगी। युवाओं के संकल्प की दृढ़ता अपनी निजी ज़िन्दगी को, अपने परिवार को, अपने समाज को, अपने देश को, बेहतर हालत में पहुँचाने में निहित है।

अपनी दो पंक्तियों में मैं इन बातों को समेटना चाहूँगा — ‘चलते रहें, चलते रहें, इसी का नाम ज़िन्दगी। मिलकर चलें, साथ चलें, इसी में ज़िन्दादिली।’

युवा साथियो, बेहतर समाज आप लोगों की मंज़िल है। नये देश का निर्माण करना आपका संकल्प है। इस ओर आपका सफर लगातार चलता रहे। आपका इरादा मज़बूत रहे। आपका आत्म-विश्वास जगा हुआ रहे। आपका दिल युवा-भाव से हमेशा तरो-ताज़ा रहे। आप लोग अपने परिवार में, अपने मजहबी समुदाय में, भारतीय समाज में और विश्व समाज में एक नये नेतृत्व की पहल करें। कामयाबी युवा मन की पहचान है। आप सब युवा कामयाबी की बुलन्दियाँ हासिल करें, यही मेरी मंगलकामनाएँ हैं।

कामयाबी का यह गीत आपके संकल्प और विश्वास को दिशा देता रहे — ‘होंगे कामयाब (3) एक दिन, ओहो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन’।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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अपना युवा स्पन्दन (मासिक), नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या  22-23 -- जनवरी 2007 में प्रकाशित

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