हिंसा : आतंकवाद की अभिव्यक्ति
हिंसा : आतंकवाद की अभिव्यक्ति
डॉ. एम. डी. थॉमस
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हिंसा का मूल ‘हिंस’ है, जिसका अर्थ है मारना। जीव की हत्या करना या उसे किसी प्रकार की हानि या कष्ट पहुँचाना उसका अनिष्ट करना, उसे सताना आदि हिंसा हैं। किसी के शरीर को मारना ही हिंसा नहीं होती। किसी के भाव को कुचलना, किसी के विचारों को दबाना, किसी के साथ कठोर व्यवहार करना, किसी के साथ ईष्र्या-द्वेष करना, किसी के साथ क्रूर व्यवहार करना, किसी को डराना-धमकाना — यह सब हिंसा के भिन्न-भिन्न रूप हैं। दूसरे पर किसी भी प्रकार का प्रहार हिंसा है। दूसरे की स्वतंत्रता का हनन, अर्थात् बोलने, लिखने, करने, असहमत होने आदि भी, हिंसा है। दूसरे पर अपना मत थोपने, उसे किसी भी प्रकार का शिकार बनाने, उसे अपने अधीन बनाने तथा उसके मौलिक अधिकारों में दखलंदाजी करने की कोशिश भी हिंसा है। स्वतंत्रता का समर्थन करने वाले किसी भी मूल्य को अस्त-व्यस्त करना हिंसा ही मानी जाएगी। हिंसा किसी-न-किसी प्रकार से बल का प्रयोग है।
हिंसा पशुता की विरासत है। यह पशु के लिए स्वाभाविक है। यह पशु से मिला हुआ संस्कार है। यह मनुष्य की विकसित चेतना पर कलंक है और उसकी विकासशील चेतना को रोकती है। हिंसा पशु के लिए प्रकृति है और मनुष्य के लिए विकृति। यह मनुष्य के जीवाणु में पैठा हुआ पाशविक अतीत है, जो कि उसकी अवचेतन का हिस्सा बन गया है। पशु की हिंसा उसकी नैसर्गिक वृति के अनुसार होने पर भी वह अपनी जाति में हिंसा नहीं करता। लेकिन, अपनी विशिष्ट बुद्धि के बावजूद मनुष्य अपनी जाति में ही नहीं, कभी दूसरों को पीड़ित करने का रस लेते हुए भी हिंसा करता है। जब तक मनुष्य हिंसा की भावना से भरा है, वह असल में पशु ही है। मनुष्य तब तक मनुष्य नहीं बन पाएगा जब तक वह अपने भीतर के हिंसा-भाव से मुक्त न हो जाए।
हिंसा
आत्महिंसा का विकास है। वह इन्सान के अपने भीतरी संघर्ष की अभिव्यक्ति है। हिंसा जब
लड़ाई के रूप में व्यक्त होती है तब उसका अलग-अलग मकसद है। कोई धन के लिए, कोई यश के
लिए और कोई पद के लिए लड़ता है, कोई खेल में लड़ता है, तो कोई अकारण भी। अपना बाहरी
रूप कुछ भी हो, हिंसा पहले स्वयं पर वार करती है। हिंसा का जड़ अहंकार है। जो भी ‘मैं’
नहीं है उसे अपना दुश्मन समझकर खत्म करने की सनक इसकी धुन है। यह अपने अंतर्द्वंद्व
से पलायन करने का मानसिक चाल है। हिंसा रोगी मन की सक्रिय दशा है। जो भीतर से दु:खी
है, वह दूसरे को सुखी देखना बर्दाश्त नहीं कर सकता। हिंसा दु:खी ‘मैं’ का फैलाव है।
वह मनुष्य के भीतर भरे हुए विष का रेचन है। यह मन में खौलते हुए दुर्भावों का निकास
है। हिंसा भीतरी घूटन की बेकाबू स्थिति है। कोई भी स्वयं को मारकर ही दूसरों को मार
सकता है। अपने टूटे-बिखरे हुए मन की पीड़ा को दूसरों पर प्रक्षेपित करना ही हिंसा है।
हिंसा मुर्झये हुए मन के द्वारा खेली जा रही आँख-मिचौनी मात्र है।
हिंसा कमजोरी का प्रच्छन्न रूप है। इन्सान अपने में जो कमी पाता है, उसकी पूर्ति के लिए कुछ ईजाद किया करता है। दृष्टिहीनों का कुशल कलाकार होना और कुरूपों का बहुत वाचाल होना इस बात को प्रमाणित करते हैं। जो हीनता की भावना से पीड़ित है, वह अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की चेष्टा किया करता है। कमी की परिपूरक की यह खोज एक आम बात है। हिंसा कमजोरी की परिपूर्ति है। पशु के पास अपनी रक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र के रूप में नाखून, सींग और दाँत हैं। आदमी को उसके स्थान पर छुरी-तलवार की जरूरत पड़ती है। इन्सान पशु की तुलना में शरीर और मन में बहुत संवेदनशील हैं। इसके अलावा, जो उसकी समझ से परे है उसको लेकर उसमें भय होता है। वह भय ही इन्सान की सबसे बड़ी कमजोरी है। हिंसा की बुनियाद इसी में निहित है। जो सबसे अधिक हिंसक है वह भीतर से सबसे अधिक कमजोर है। उल्टा भी, जो सबसे कम हिंसक है वह सबसे अधिक शक्तिशाली है। हिंसा बँटे हुए मन का नतीजा है। खण्डित मन बिखरा हुआ है। खण्डों की आपसी लड़ाई मन को बुरी तरह से दुर्बल कर देती है और उसी दुर्बलता में हिंसा की भावना पनपती है। यद्यपि बदले की प्रक्रिया अपने आप से है, तथापि उसकी अभिव्यक्ति दूसरे की तरफ हो जाती है।
हिंसा का हमराही है क्रोध! क्रोध के बिना हिंसा नहीं हो सकती। हिंसा के बिना क्रोध भी रह नहीं सकता। दोनों आपस में एक दूसरे के पूरक हैं और उनका कार्य अक्सर सम्मिलित रूप से सम्पन्न होता है। मनुष्य के जीवाणुओं में हिंसा की प्रवृत्ति पशुओं की विरासत के रूप में पायी जाती है। उसकी मानसिक-शारीरिक ग्रन्थियों में जहर-सा क्रोध वह निकलने के बहाने की ताक में रहता है। मौका पाकर जब वह व्यक्त होता है उसमें ऐसी ताकत रहती है जो अन्यथा असम्भव काम करवाने लायक है। क्रोध एक नशा है। यह एक अस्थायी पागलपन है। इसके हावी हो जाने पर कोई ऐसा काम कर डालता है, जिसे वह करना नहीं चाहता। क्रोधावेश में जो होता है उसके परिणाम का निवारण भी नहीं हो सकता।
हिंसा भीतरी मृत्यु का द्वन्द्व है। जि़न्दगी में जीने-मरने दोनों प्रकार की इच्छाएँ रहती है। जीने की इच्छा सकारात्मक ऊर्जाओं पर आधारित है। जबकि मरने की इच्छा नकारात्मक ऊर्जाओं के कारण है। एक तरफ जहाँ प्रकाश है, सत्य है, शान्ति है, अहिंसा है, विनम्रता है, हृदयशीलता है, जिजीविशा है, जिज्ञासा है, जीवन है, दूसरी तरफ अन्धेरा है, असत्य है, अशान्ति है, घमण्ड है, उग्रता है, निराशा है, असफ लता है, हिंसा है, मौत है। इन दोनों छोरों के बीच विरोध का भाव रहता है। इनके आपसी तनाव में सन्तुलन बनाये रखना ही वास्तव में जि़न्दगी है। ये सिराएँ एक गाड़ी के दो चक्के के समान आपस में पूरक भी हैं। लेकिन, हिंसा में पूरकता का सन्तुलन बिगड़ जाता है और मौत की वासना ‘मैं जीना नहीं चाहता’ इस भाव से जीवन की प्रक्रिया पर उल्टा प्रभाव जमाता है। यह भीतरी लड़ाई दूसरे के प्रति हिंसा के रूप में आरोपित हो जाती है। इस विरोधाभासी खेल में हिंसा-तंत्र में विद्यमान भयंकर मानसिक त्रासदी का खुलासा होता है।
हिंसा विकास का उल्लंघन है। आगे बढऩा विकास का भाव है। जो कल था, आज भी यह वही है तो आज व्यर्थ गया। आगे बढऩे के लिए बीते हुए कल को छोडऩा होगा, वर्तमान में आना होगा, भविष्योन्मुख होना होगा। विकास के लिए कल का अतिक्रमण करना होगा, अतीत के प्रति मरना चाहिए। लेकिन, हिंसा में ‘नहीं’ करने का भाव है। नया पाने के लिए पुराना खोना जरूरी है। हिंसा भविष्य को रोकती है, नष्ट करती है। अतीत तो खत्म हो ही गया। वर्तमान भी हाथ से यों ही छूट जाता है। अर्थात, हिंसा में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों एक साथ तहस-नहस होते हैं। इसलिए हिंसा में मानवीय विकास नामुमकिन होता है।
हिंसा
आतंकवाद का मूर्त रूप है। यह उसका हथियार है, उसकी अभिव्यक्ति है। इसमें दया, उदारता,
प्रेम आदि कोमल गुणों या मानवोचित विशेषताओं का पूर्ण अभाव है। इसमें कठोरता है, उग्रता
है, उद्दण्डता है, कट्टरता है, क्रूरता है और हमेशा लडऩे की तत्परता है। दूसरों का
हनन करना, उन्हें कष्ट पहुँचाना, उनको नष्ट करना इसका ध्येय है। हिंसा का ऐसा चरित्र
इन्सानियत के लिए सदैव खतरा है तथा वह पूर्णतया आतंकवादी है।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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संदेश (मासिक), पटना, अंक 17, पृष्ठ संख्या 17-18 में -- नवंबर 2002 को प्रकाशित
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