धार्मिक समन्वय के लिए आध्यात्मिक दृष्किोण ज़रूरी

 

धार्मिक समन्वय के लिए आध्यात्मिक दृष्किोण ज़रूरी

डॉ. एम. डी. थॉमस

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भारतीय सँस्कृति की विशिष्ट पहचान है — विविधता में एकता। ज़ाहिर है, ज़िन्दगी की इस बुनियादी हकीकत के दो पहलू हैं — पहला, विविधता और दूसरा, एकता। विविधता में भी दो बातें निहित हैं — पहला, अनेकता और दूसरा, विविधता। अनेकता का मतलब एक से ज़्यादा होने का है और विविधता का, हरेक पहलू की एक अलग पहचान होने का। एकता के लिए अनेक होने के साथ-साथ कुछ अलग-अलग पहचान को रखना भी सख्त ज़रूरी है। विविधता और एकता एक सिवके के दो पहलू के समान आपस में जुड़े हुए हैं। उन्हें एक-दूसरे से अलग करना किसी भी हालत में मुमकिन नहीं है। इसलिए विविधता में एकता की बात जितना सही है, ठीक उतना ही एकता में विविधता कहना भी सही है। विविधता में एकता और एकता में विविधता के ताल-मेल से समन्वय की परिकल्पना पूरी होती है।

समन्वय की भावना सबसे बारीक तौर पर संगीत में पायी जाती है। संगीत के विविध स्वरों की अलग-अलग पहचान होती है। स्वरों के सम्मेलन से संगीत की शुरुआत होती है। स्वर, ताल और लय का लाजवाब संगम है संगीत। गीत, वाद्य और नृत्य के मेल से सम्पूर्ण संगीत बनता है। संगीत के हर पहलू में समन्वय का भाव बना रहता है। अनुभूति इस समन्वय-भाव का ही सुखद परिणाम है। सांगीतिक एहसास में समन्वय-चेतना अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है।

समन्वय का भाव भाषा के क्षेत्र में भी बखूबी देखा जा सकता है। स्वर और व्यंजन के मिलने से शब्द, शब्दों के मिलन से वाक्य और वाक्यों के मिलन से विचारों का प्रवाह होता है। मानवीय दिल-दिमागों के सभी भावों और विचारों को पूरी तरह से व्यक्त करना किसी भी भाषा के बूते की बात नहीं है। कारण यह है कि सभी भाषाएँ किसी एक साँस्कृतिक संदर्भ में पैदा होती है और उसकी अपनी-अपनी सीमाएँ भी हैं। प्रत्येक भाषा इन्सानी अहसासों के असीम खज़ाने के किसी एक पहलू को ही छू पाती है। सभी भाषाओं की एक से बढक़र एक अभिव्यक्तियाँ एक साथ मिलें तो भी भाषा को अपनी हद को कबूल करना ही होगा। अभिव्यक्ति के लिए भाषाओं का सम्मिलित कार्य समन्वय-भावना के लिए प्रेरणादायक है।

समन्वय की स्वाभाविक और जीती-जागती मिसाल है — ‘एक ही शरीर के अनेक अंग’। शरीर के अनेक अंग होते हुए भी एक शरीर बन जाते हैं। विधाता ने शरीर में एक-एक अंग को अपनी-अपनी जगह रचा है। हरेक अंग की अपनी-अपनी अहमियत है। सभी अंगों का अपना-अपना महत्व है। कोई भी अंग दूसरे से बड़ा या छोटा नहीं है। किसी एक अंग की खुशी या पीड़ा सभी अंगों की खुशी या पीड़ा है। सभी अंग विविध होकर भी आपस में पूरक हैं और वे एक शरीर होकर एकता का एहसास करते हैं। समन्वय-भावना का इतना सक्रिय रूप पूरी सृष्टि में कहीं भी पाना मुश्किल है।

समन्वय आध्यात्मिक दृष्टिकोण है। समन्वय-भावना के लिए शरीर के स्तर से उपर उठना होगा। शरीर के स्तर पर सोचने पर अलग होने का एहसास होगा। आत्मा के स्तर पर सोचने से एक होने का भी। शरीर के स्तर पर रहने से मानसिकता खण्डित रहेगी। अखण्ड की मानसिकता को धारण करना होगा। तभी आध्यत्मिक चेतना जागेगी। दादूदयाल की चार पंक्तियाँ इस संदर्भ में सार्थक हैं। ‘‘दादू पूरन ब्रह्म बिचारिए, तब सकल आत्मा एक। काया का गुण देखिए, तब नाना बरन अनेक’’।। उनका मतलब है कि इन्सान को पूर्णता का दृष्टिकोण रखना चाहिए। एक निगाह में देखने पर एकता का अहसास होगा। अलग होकर भी एकता की मानसिकता लिये चलना ही समन्वय-चेतना की निशानी है। इसी में असली आध्यात्मिकता निहित है।

समन्वय-भाव की बुनियाद है —धार्मिक समन्वय। धर्म की बुनियादी भूमिका है जोड़ना। जो अलग-अलग है उन्हें आपस में जोड़ने में धर्म की सार्थकता है। धर्म-परम्पराओं में जब ताल-मेल है तब सामाजिक समन्वय की नींव पक्की है। धार्मिक समन्वय के लिए पूरकता की मानसिकता को धारण करना होगा। सृष्टि के सभी तत्व एक-दूसरे के पूरक हैं। सभी धार्मिक परम्पराएँ भाषाएँ विचारधाराएँ पेशे आदि आपस में पूरक हैं। वे सब एक दूसरे के लिए आईने के समान हैं। प्रत्येक पहलू अपने आप में क्या हैं इसकी पहचान दूसरे की मौजूदगी में होती है। इसलिए सभी पहलुओं में, खास तौर पर धार्मिक परम्पराओं में, आपसी सद्भाव, समभाव, सम्मान, सम्बन्ध और सहयोग का होना समन्वय-भावना के लिए अनिवार्य है। इसके लिए सम्प्रदायों द्वारा बनायी हुई दीवारों को पार कर मिलकर चलने की सँस्कृति में अपने-आप को ढालना होगा।

धार्मिक समन्वय आध्यत्मिक चेतना से ही संभव हो जाता है। ‘बहता पानी’ आत्मिक सोच की उत्तम मिसाल है। महात्मा कबीर की दो पंक्तियाँ इस विचार से मार्गदर्शक हैं। ‘‘बहता पानी निर्मला, बन्दा गन्दा होय । साधू जन रमता भला दाग न लागै कोय।।’’ बहते पानी के समान दूसरे की ओर निरन्तर चलने रहना गन्दा होने से तथा दाग से युक्त होने से बचने के लिए ज़रूरी है। अलग-अलग धार्मिक परम्पराओं से जुड़े लोगों में ऐसी आध्यात्मिक चेतना जाग जायें, जिससे ‘मैं और अपना’ के भाव से उपर उठकर वे समाज को अधिक मानवीय बनाने के लिए कदम उठायें। भिन्न-भिन्न आस्थाओं को रखने वाले हम सब अपनी-अपनी आस्था से फल उत्पन्न करें और एक बेहतर समाज का निर्माण करें, जिसे हम ‘हमारा’ कह सकें। ऐसा संकल्प ही वक्त की पुकार है। यही है मंगल कामना भी।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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संदेश (मासिक), पटना, अंक 06, पृष्ठ संख्या 07 में -- जून-जुलाई 2004 को प्रकाशित 


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