ईसा मसीह : मानवता के अमर उन्नायक

 

ईसा मसीह : मानवता के अमर उन्नायक

डॉ. एम. डी. थॉमस

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

25 दिसंबर को प्रभु ईसा मसीह का जन्मोत्सव मनाया जाता है। बाइबिल के साक्ष्य और मसीही मतावलंबियों की मान्यता के अनुसार वे ईश्वर के पुत्र और प्रतिरूप हैं। अनेकों बार स्वर्ग से प्राप्त पिता ईश्वर की स्वीकृतिसूचक वाणी कि- यह मेरा प्रिय पुत्र है इस बात को प्रमाणित करती है। साथ ही गहन ईश्वर अनुभुति के क्षणों में वे ईश्वर को मेरे पिता कहकर संबोधित किया करते थे। उनका ईश्व-बोध इतना प्रखर था कि वे स्वयं में प्रतिबिंबित ईश्वर के प्रतिरूप का भरपूर अनुभव किया करते थे। ईसा की मनुष्य विषयक दृष्टि उनकी इस विशिष्ट ईश्वरानुभूति पर आधारित थी। ईश्वर-चेतना से आविर्भूत उनकी समस्त अभिव्यक्तियां तथा तदविषयक गतिविधियां मानव भावना से पूर्णत: ओतप्रोत थीं।

मनुष्य के विषय में ईसा मसीह का मूल संदेश है- मनुष्य परम पिता ईश्वर की संतान है। सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र-पुत्रियां हैं। ईश्वर को अपने निजी पिता के रूप में अनुभव करने का सीधा परिणाम था मनुष्य के संबंध में यह निष्कर्ष। उन्होने अपने विशिष्ट अनुभव को मानवता के हित में सार्वभौम तथा सर्वकालिक तौर पर संपूर्ण मानव समाज पर लागू किया। ईश्वर-पितृत्व की छत्र-छाया में मानव-भ्रातृत्वा का समाज-समुच्चय ही संगत है। जगतपिता का परिवार है मानव-समाज। ईश्वर पिता के प्रति पुत्र-पुत्री भाव पर आधारित होकर सभी मनुष्य जब भाई-बहन का भाव अपनाते हैं तभी जगतपरिवार का सृजन होता है। ऐसे मानव परिवार के रचयिता और प्रथम सदस्य दोनो थे ईसा मसीह।

मनुष्य का प्रतिरूप बनाया गया है। (बाइबिल, पुराना विधान, उत्पति 1.27) ईश्वर का रूप प्रत्येक मनुष्य में प्रतिफलित होता है। प्रतिरूप की इस अवधारणा में एक त्रिकोणात्मक संबंध निहित है। प्रत्येक प्रतिरूप का रूप से बुनियादी संबंध तो है ही। एक ही रूप के विविध प्रतिरूप होकर मनुष्य परस्पर संबंधित भी है। इस प्रकार प्रतिरूप के व्यक्तिगत और समाजगत दोनों रूप व्यक्त हो जाते हैं। इसलिए रूप के पूर्ण निखार के लिए प्रतिरूपों में पारस्परिक संबंध अनिवार्य सिद्ध हो जाता है। सह प्रतिरूपों में से संयुक्त रहना ही ईश्वर का प्रतिरूप होकर मनुष्य के अस्तित्व का एकमात्र सार्थक ढ़ंग है। ईश्वर का स्वरूप प्रत्येक मनुष्य में प्रतिफलित होता है। यही है ईसा के व्यक्तिगत अनुभव का व्यापक संदर्भ में तात्पर्य।

ईसा की स्पष्ट मान्यता है कि मनुष्य ईश्वर का मंदिर है। ईश्वर का रूप मनुष्य में निर्वासित है। ईट पत्थरों का मंदिर मात्र प्रतीक है। धर्म कर्मकाण्ड नहीं है, बल्कि धार्मिक भावना है, जो कि मनुष्य के हृदय में है। ईश्वर की पूजा मनुष्य के हृदय मंदिर में संपन्न होती है। मनुष्य ही ईश्वर के लिए योग्य निवास है। इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि ईश्वर के रूप में मनुष्य ईश्वर सुलभ पवित्रता को धारण करे । इसलिए ईशा ने बल देकर कहा है कि जो हृदय से निर्मल है वही ईश्वर के दर्शन करेंगे। अर्थात सच्चे ईश्वर दर्शन मनुष्य के हृदय में ही संभव है। लेकिन, ईश्वर निवास और दर्शन का एक सामाजिक पक्ष भी है। सभी मनुष्यों के हृदय देवालय है। ईश्वर का निवास जिस प्रकार संपूर्ण समाज में व्याप्त है, ठीक उसी प्रकार उसके दर्शन भी संपूर्ण समाज में उपलब्ध है। ईसा का तात्पर्य है, प्रत्येक मनुष्य, छोटे-बड़े के भेद से मुक्त होकर, सम्मान के पात्र हैं। 

ईसा ने मनुष्य को ईश्वर का पुत्र, प्रतिरूप और मंदिर के रूप मे स्थापित करके यह अनिवार्य रूप से सिद्ध किया है कि भातृभाव ही मानवीय जीवन का एकमात्र पर्याय है। भातृभाव के विषय में ईसा के कतिपय महत्वपूर्ण कथन हैं जो संपूर्ण मानवीय समाज के लिए मील के पत्थर साबित हो सकते हैं। दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो। दोष नहीं लगावो, जिससे तुम पर भी दोष नहीं लगाया जाये। यदि तुम उन्ही से प्रेम करते हो, जो तुम से प्रेम करते हैं, तो पुरस्कार का दावा कैसे कर सकते हो? शत्रुओं से प्रेम करो। इससे तुम अपने स्वर्गिक पिता की संतान बना जाओगे, क्योंकि वह भले और बुरे दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनो पर पानी बरसाता है। जब तुम वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहे हो और तुम्हें वहीं याद आये कि मेरे भाई मुझसे कोई शिकायत है, तो अपनी भेंट वहीं छोड़ कर पहले अपने भाई से मेल करने जाओ और तब आकर अपनी भेंट चढ़ाओ।

ईश्वर के पितृसुलभ और मनुष्य के मातृसुलभ प्रेम के अंतर्गत एक विशिष्ट पक्ष पर ईसा ने बल दिया। वह है अश्रेष्ठों के प्रति अधिमान्य प्रेम। मनुष्य ने समाज में बुदि्धमान-मूर्ख, निर्धन-धनी, दुर्बल,शक्ति-संपन्न, धर्मि-अधमी, विकसित-अवसिकसित, श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ आदि का भेद क र रखा है। लेकिन ईश्वर सभी मनुष्यों के साथ समान व्यवहार करता है। इतना ही नहीं, जिस प्रकार परिवार में पिता कमजोर बच्चे का विशेष ख्याल रखता है, ठीक उसी प्रकार जगत पिता मानव समाज में किसी भी  प्रकार से विकलांग या अभागे हैं, उनको प्रेम में प्राथमिकता देता है। यह ईश्वर के समभाव की पूर्णता को द्योतित करता है। ईश्वर पिता के इस सर्वश्रेष्ठ गुण को प्रमाणित करते हुए ईसा निम्न जातियों, निर्धनों, पापियों आदि अश्रेष्ठों के मित्र बन कर उनके साथ भोजन तक किया करते थे। मनुष्य को भी एक दूसरे के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, यही ईसा का आह्वान है। मानवमात्र के प्रति मातृभाव के विषय में यह एक अतिविशिष्ट पक्ष है, जिसे ईसा प्रकाश में लाए।

मातृभाव की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है मनुष्य सेवा। ईसा का कथन है कि जो लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सबका दास बने, क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है। इसी समर्पित सेवा भाव पर अमल करते हुए ईसा ने अपने शिष्यों के पैर धोये। उनका आदेश है यदि मैं-तुम्हारे प्रभु और गुरू ने तुम्हारे पैर धोये हैं, तो तुम्हे भी एक दूसरे के पैर धोना चाहिए। ईसा का यह कार्य संपूर्ण मानवता के सामने विनम्र सेवाभाव की एक अनन्य मिशाल है। मातृभाव का का सर्वोत्तम प्रमाण भी ऐसी विशुद्ध मानव सेवा है। ईश्वर की पूजा की व्यावहारिक अभिव्यक्ति भी यही है।

ईसा मसीह ने मानवता के कतिपय नूतन आयामों को विश्व समाज के सामने उजागर किया। पिता ईश्वर की गहन अनुभूति किस प्रकार उदात तथा विशुद्ध मानव चेतना में परिणत होती है, इस तथ्य के लिए ईसा स्वयं साक्षी है। ईश्वर का जीवंत और सर्वसार्थक स्वरूप मनुष्य में सुरक्षित है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य स्वयं के लिए तथा एक दूसरे के लिए ईश्वर का दर्पण एवं ईश्वर-दर्शन का संदर्भ स्थल है। प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे के लिए भाई और बहन है। उंच-नीच, श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ, भले बुरे के भेद से रहित तथा पिछड़े हुओं के लिए तरजीही सेवा से युक्त भातृ भाव ही सच्ची मानवता है। ऐसी सह मानवता है ईसा द्वारा अनुभूत जीने की शैली।

मानवीय जीवन को जीने की ऐसी शैली में ईसा ने ईश्वर के मानवीय पक्ष तथा मानव के ईश्वरीय पक्ष को समान स्तर पर स्थापित किया है। उन्होंने ईश्वर भावना के सिद्धांत को मानव चेतना के व्यवहार में परिण्त किया। उन्होंने मानवता के व्यक्तिगत तथा समाजगत पहलुओं में संतुलन भी बिठाया। निजी अनुभव और व्यवहार पर आश्रित ऐसे संप्रदायातीत आदर्श से ईसा ने मानवता की गरिमा बढ़ाई। इस प्रकार उन्होंने मरणशील मानवता को अमर घोषित करके उसे सर्वाधिक उन्नत किया। अन्य शब्दों में-स्वयं मानवता ईसा के जीवन और शिक्षा से एक नयी शक्ति और चेतना अर्जित कर पुनर्जीवित हुई है। बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है कि ईसा मसीह की ऐसी मानव चेतना मानवता के लिए एक नया विधान है। ऐसे शुभ संदेश के महान प्रणेता के जन्मोत्सव पर उनके प्रति कोटिश: वंदन एवं मानव मात्र के लिए मंगल कामनाएँ।

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 दैनिक अवन्तिका, उज्जैन, में -- 25 दिसंबर 1994 को प्रकाशित 

 

Comments