देश पहले, धर्म बाद में
देश पहले, धर्म
बाद में
डॉ. एम.डी. थॉमस
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‘पहचान’ किसी भी शख्स के लिये अहम है। उसके बगैर इस जगत में वजूद रखना नामुमकिन है। इन्सान की एक नहीं, अनेक पहचान होती हैं। जाति, प्रजाति या जनजाति की अपनी पहचान है। लिंग, उम्र और भाषा की पहचान तो खास है ही। विचारधारा, धर्म-परंपरा और संस्कृति की भी अपनी-अपनी पहचान होती है। पेशा, वेश-भूषा और खान-पान से भी कुछ पहचान बनती है। जिंदगी के हर पग और हर पल से पहचान का कोई-न-कोई पहलू उभरकर आता है। हर पहचान की अपनी-अपनी अहमियत भी होती है। पहचान के अलग-अलग पहलू महज एक के बाद एक न होकर अक्सर एक साथ बने रहते हैं। कोई महिला एक ही समय माँ, बेटी, बहन, शिक्षिका, लेखिका, वक्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, भारत की नागरिक, मुसलमान, आदि हो सकती है। जाहिर तौर पर इन्सान की पहचान बहु-आयामी है और यह बात इन्सान की बहुत बड़ी खूबी है।
‘राष्ट्रीयता की पहचान’ इन्सान के लिये बुनियादी होती है। हर एक को किसी-न-किसी देश का नागरिक बनना होता है। लावारिस भूमि में कोई भी वजूद नहीं रख सकता। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन्सान की पहचान पासपोर्ट से बनती है। पासपोर्ट किसी देश की नागरिकता के आधार पर बनता है। अपने देश से बाहर कदम रखने के लिये नागरिकता की राष्ट्रीय पहचान को साबित करना जरूरी होता है। इस राष्ट्रीय पहचान के सामने बाकी सब पहचान गौण मानी जाती है। किसी भी राष्ट्र की परंपराएँ, चाहे वह धर्म की हो या विचारधारा की, संस्कृति की हो या रीति-रिवाज की, देश से जुड़ी व्यापक पहचान से कदापि बड़ी नहीं होती है। साथ ही, लिंग को छोड़कर, जिंदगी में ऐसा कोई भी पहचान नहीं है जो बदला नहीं जा सकता। राष्ट्रीयता की पहचान में भी तब्दीली हो सकती है। लेकिन, कुल मिलाकर देखा जाय, राष्ट्रीयता की पहचान स्थिर और सबसे ज्यादा स्थायी है।
‘भारत के संविधान’ में भारत देश की मूल पहचान निहित है। इस पहचान के दो पहलू होते हैं। भारत के बाहर, भारत का संविधान दुनिया के सब संविधानों में एक खास जगह रखता है। सबसे बड़े लोकतंत्र और सर्वाधिक विविधताओं से भरपूर देश के संविधान के रूप में इसकी एक अनूठी साख है। भारत के भीतर, यह भारत की राष्ट्रीयता का आधार है। दूसरे शब्दों में, यह देश की रीढ़ की हड्डी है। हड्डी की सार्थकता मांस को मजबूत रखने के साथ-साथ उसे एक बनाये रखने में है। जिस प्रकार ‘अनेक अंग’ होते हुए भी ‘शरीर एक’ बना रहता है, ठीक उसी प्रकार अनेक समुदायों और इकाइयों के होने पर भी भारत देश को एक बनाये रखने में संविधान की बेजोड़ भूमिका है। भारत देश की पहचान निखरती रहे, इसके लिये नागरिकों द्वारा संविधान की बारीकियों पर अमल करना बेहद जरूरी है। ‘एक और अनेक के आपसी तालमेल’ में भारत के संविधान की मजबूती है, और नागरिकों का कल्याण भी।
भारत का संविधान भारत का सबसे ‘पवित्र ग्रंथ’ है। धर्म-ग्रंथों को पवित्र ग्रंथ मानने की परंपरा बहुत पुरानी है। लेकिन, किसी संविधान को पवित्र मानने की बात कुछ लोगों को अजीब लग सकती है। आखिर, किसी भी पुस्तक को पवित्र क्यों माना जाय? दो वजह हो सकती हैं। पहली वजह है, उस किताब में जिन बातों की चर्चा की गयी है, वे बातें जिंदगी को सुचारू रूप से चलाने के लिये बेहद बेशकीमती है। दूसरी वजह है, उस किताब से जीने के लिये प्रेरणा और ऊर्जा मिलती हैं। यह बात सर्वमान्य है कि धर्म-पुस्तकें कुल मिलाकर इन दोनों वजहों पर बखूबी खरी उतरती हैं। इस नजरिये से देखा जाय, भारत के संविधान में लिखी गयी सभी बातों में नागरिकों के कल्याण-भावना का मकसद भरपूर निहित है। साथ ही, अच्छे नागरिक के रूप में व्यवहार करने के लिये भारत का संविधान अपने आप में प्रेरणा का एक पूरा खजाना ही है। इस लिये यह कहना बिलकुल जायज है कि ‘भारत का संविधान एक अनोखा पवित्र ग्रंथ’ है। जिस तर्क से यह कहा जाता है कि राष्ट्रीयता से नागरिक को अपनी बुनियादी पहचान मिलती है, उसी तर्क के बलबूते यह भी माना जाना चाहिये कि ‘भारत का संविधान भारत के नागरिक का सबसे पवित्र ग्रंथ’ है।
भारत के संविधान की जान ‘पंथ-निरपेक्षता’ है। बहु-आयामी विविधताएँ भारतीय संस्कृति की केंद्रीय विशेषता हैं। इन विविधताओं को एक सूत्र में बाँधने के लिये सबसे कारगर नजरिया पंथ-निरपेक्षता है। इसका मतलब है, देश में मौजूद समूची प्रजातीय, भाषिक, वैचारिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक परंपराएँ शासन और कानून के सामने बराबर हैं। तादाद या ताकत को लेकर किसी भी समुदाय के साथ और किसी भी किस्म का पूर्वाग्रह रखना या तरफदारी करना संविधान के खिलाफ गुनाह है। ‘एक निगाह में सब को देखना’ और हर एक के साथ ‘समान व्यवहार’ करना संविधान के मुताबिक हर एक के लिये दरकार है। कोई फलाँ समुदाय का सदस्य है या अमुक विचारधारा के हिमायती है, इस बात को लेकर किसी भी शख्स या समुदाय पर हमला न हो, यह देखना राष्ट्रीय, प्रांतीय या स्थानीय स्तर के शासन-प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी है। नागरिकों का भी फर्ज है कि वे ऐसा कुछ न करें जिससे पंथ-निरपेक्षता के भाव पर आँच हो। पंथ-निरपेक्षता की पुनीत भावना ही नेक नागरिक की पहचान है, चाहे वह शासक हो या शासित। पंथ-निरपेक्षता की सर्वोत्तम मिसाल है ‘इंद्रधनुष’, जिसमें विविध रंग अलग-अलग होकर भी एक दूसरे में पूरी तरह से समाये हुए रहते हैं और बेमिसाल खूबसूरती बिखेरता रहता है।
‘देश पहले, धर्म बाद
में’ यही भारत का चरम आदर्श है। अन्य विविधताओं की तुलना में ज्यादातर लोग धार्मिक
पहचान को लेकर घबड़ाते और आसानी से भडक़ते दिखायी देते हैं। धार्मिक जगत में भावनाएँ
बहुत तेज हैं, यह जाहिर बात है। लेकिन, पते की बात यह है कि यह निचले स्तर की भावनाएँ
हैं, जिसे दिमाग का समर्थन हासिल नहीं है। असली धार्मिक भावना को ज्ञान से युक्त, रूह
से प्रेरित और संतुलित होना जरूरी है। साथ ही, धर्म के लिये अलग नीति रखना तार्किक
नहीं है। इतना ही नहीं, भारत-जैसे देश में, जहाँ अलग-अलग धर्म-परंपराएँ मौजूद हैं,
वहाँ किसी एक धर्म को, चाहे उसके सदस्य बहुसंख्यक ही क्यों न हो, संविधान या देश के
परे समझ्ना पंथ-निरपेक्षता के खिलाफ जुर्म ही नहीं, देश को खण्ड-खण्ड करके बरबाद करने
का पुख्ता तरीका भी होगा। कहने का मतलब है कि अन्य विविधताओं और पहचानों के साथ धर्म
को भी राष्ट्रीयता की पहचान से बढ़कर न समझ जाय, इसी में देश की भलाई है। देश की एकता
और अखण्डता को मजबूत करने की खातिर देश के बागडोर सँभालनेवालों के साथ-साथ हर नागरिक को भी देश की भलाई को सामने रखकर सोचना और व्यवहार
करना ही जायज है। तभी हमारा देश ‘बेहतर की ओर’ और ‘तरक्की की ओर’ अग्रसर होगा
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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फाउडेंशन फोर रिलिजियस हारमनी एण्ड यूनिवर्सल पीस (स्मारिका), नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या 48-49 -- दिसंबर 2013 में प्रकाशित
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