सामाजिक तालमेल बढ़ाने में नागरिकों की भूमिका

 

सामाजिक तालमेल बढ़ाने में नागरिकों की भूमिका

डॉ. एम. डी. थॉमस

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समाज में तालमेल रहे और सामाजिक जीवन सुचारू रूप से चले, यह सुनिश्चित करना शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है, ऐसा सोचना आम बात है। इस विषय पर लम्बा-चौड़ा विचार-विमर्श विद्वानों और विचारकों द्वारा मंचों पर ही नहीं, पत्र-पत्रिका और किताबों में भी होता रहता है। यह बात सही भी है। फिर भी, जैसे एक हाथ से ताली नहीं बजती, ठीक वैसे ही शासन-प्रशासन के साथ-साथ नागरिक भी अपनी अहम् भूमिका न निभायें, तो उपर्युक्त​ सपना साकार नहीं हो सकता। इस बात को ध्यान में रखकर इस लेख में सामाजिक तालमेल बढ़ाने में नागरिकों की भूमिका के कुछ आयामों की चर्चा की जा रही है।

अधिकार और कर्तव्य का सन्तुलन

जिस प्रकार एक सिक्के के दो पहलू होते हैं और वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, ठीक उसी प्रकार अधिकार और कर्तव्य सामाजिक जीवन के अनिवार्य अंग हैं। जब दोनों के दरमियान अनुपात ठीक रहता है तब इन्सान की ज़िन्दगी ठीक से चलती है। अपना हक हासिल करने लायक बन जाए, इसके लिए बेहद ज़रूरी है कि हरेक अपना फर्ज निभाये। सामाजिक जीवन के तराजू में अधिकार और कर्तव्य के पलड़े बराबर रहें, उन्हें बराबरी का दर्जा दिलाया जाय, तभी सामाजिक तालमेल मुमकिन है। अधिकार और कर्तव्य के सन्तुलन में जीवन की पूर्णता निहित है। भारत के संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों की चर्चा की गयी है। अमूमन मानवाधिकार पर ज़ोर दिया जाता है। इस लेख में नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों की कुछ बारीकियों की तलाश की जा रही है।

अनुशासन सामाजिक तालमेल का आधार

अनुशासन इन्सानी ज़िन्दगी की बुनियाद है। अपने पर खुद शासन करना ही अनुशासन है। भीतरी संयम अनुशासन की आत्मा है, बाहरी पाबन्दियाँ उसकी अभिव्यक्ति भी। व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, एक महीन दीवार होती है। इस कुदरती हद का कदर किये बिना किसी भी इकाई की धारणा कारगर नहीं हो सकती है। अपने ओहदे की आज़ादी हासिल हो, यह अपना हक है और अपने हक की आज़ादी दूसरे को मिले, यह अपना फर्ज है। अपने-अपने हद का कदर करना अनुशासन है। अनुशासित शख्स दूसरे शख्स के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकता। दूसरे के साथ सार्थक नाता जोड़ने के लिए आपस में शराफत का लिहाज करना जरूरी है। हरेक नागरिक अपनी नागरिकता की बुलन्दियाँ हासिल कर सके, ऐसी मंजिल पर पहुँचने की सीढ़ी का पहला चरण अनुशासन ही है। अनुशासन सामाजिक तालमेल का आधार है। अनुशासन में रहना हर नागरिक की, चाहे वह किसी भी पंथ या समुदाय का हिस्सा क्यों न हो, पहली भूमिका है।

भारत का संविधान नागरिकों का पवित्र ग्रन्थ

जिन दिव्य पुरुषों ने मजहबी परम्पराओं की शुरुआत की है उन्हें खुदाई अवतार या पैगम्बर मानने वाले लोग उनकी वाणी के लिखित संग्रह को पवित्र ग्रन्थ मानते हैं। समाज के क्रांतिकारी चिन्तकों के अनोखे विचारों के संकलित रूपों को भी विश्व के महान गौरव ग्रन्थों में शुमार किया जाता है। भक्ति और आस्था को जगाने वाले धर्मग्रन्थ हों या सुचारू रूप से जीवन-यापन की प्रेरणा देने वाले गौरव ग्रन्थ हों, दोनों मानने वाले समुदाय के लिए पूज्य है। अगर इस लिहाज़ से सोचा जाए तो यह समझना सरल है कि भारत का संविधान भारतीय समाज का सामूहिक पवित्र ग्रन्थ है। सभी महान पुस्तकों में सार्वजनिक बातें निहित होने पर भी अक्सर वे सब किसी-न-किसी समुदाय विशेष की खास बपौती समझी जाती हैं। लेकिन भारत के नागरिक होने के नाते भारत का संविधान सबके लिए बराबर पूजनीय है। अपना-अपना पवित्र ग्रन्थ जितने पूज्य भाव से माना जाता है, ठीक उतना और उससे भी अधिक पुनीत भाव भारत के संविधान को दिया जाना चाहिए। यह भारत के हर नागरिक का बुनियादी फर्ज है। हर नागरिक को चाहिए कि वह संविधान को पढ़े, समझे और उसकी मुख्य बातों को मन से अपनाये। संविधान में निहित मूल्य भारतीय समाज के राष्ट्रीय मूल्य हैं। यही है हर नागरिक का देशीय मूल्य भी। संविधान के मूल्य नागरिकों की दशा और दिशा को तय करते हैं। जिस प्रकार पवित्र ग्रन्थ उसे मानने वालों की पहचान बनता है, ठीक उसी प्रकार संविधान के मूल्यों पर चलने वालों को संविधान बुनियादी पहचान या अस्मिता दिलाता है। भारत के संविधान को पवित्र ग्रन्थ मानना और उसके मूल्यों पर अमल करना भारत के नागरिकों की, चाहे वह शासन वर्ग में हो या शासित वर्ग में, अहम् भूमिका है।

पंथ-निरपेक्षता भारतीयता की जान

भारत देश की सारी दुनिया में एक अहम् जगह है। भौगोलिक परिस्थितियाँ, प्राकृतिक नजारे, जलवायु, जाति, प्रजाति, वर्ग, भाषा, विचारधारा, सँस्कृति, आदि भारतीय जीवन से जुड़ी हुई विविधताओं के तरह-तरह के पहलू हैं। ‘विविधता में एकता’ भारतीय जीवन का केन्द्रीय भाव है। ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’, याने सारी धरती, सारा विश्व, एक परिवार है, ऐसा एहसास हिन्दुस्तानी ज़िन्दगी की अहमियत है। इस नज़रिये पर अमल करने के लिए भारत के संविधान द्वारा दिया हुआ मूल मन्त्र है ‘पंथ-निरपेक्षता’, या ‘धर्म-निरपेक्षता’। इसका मतलब यह कतई नहीं कि भारत को धार्मिक भावनाओं से अछूता रहना चाहिए। इसका सीधा अर्थ बस इतना है कि भारत देश किसी एक मजहब से चिपका हुआ नहीं है। सब धर्म-परम्पराएँ भारत के लिए मूल्यवान है, प्रिय है। संविधान के सामने सब पंथ या धर्म-मार्ग बराबर का दर्जा रखते हैं। पंथ-निरपेक्षता का मतलब सिर्फ मज़हबी धाराओं से नहीं समझ जाना चाहिए। इसका आशय भारतीय समाज की समस्त हकीकतों से है। जिन सामाजिक धाराओं की शुरुआत भारत में हुई वे ही नहीं, वर्तमान में भारत में मौजूद मज़हबी, साँस्कृतिक, वैचारिक और अन्य परम्पराएँ भी, भारत की अपनी हैं। उनमें एक को स्वीकारना और दूसरे को नकारना पंथ-निरपेक्षता के नज़रिये के खिलाफ है। भारत की समूची परम्पराओं के साथ बराबरी का भाव रखना भारत के संविधान का मर्म है। एक-दूसरे में फर्क करने की इज़ाजत किसी को भी नहीं है। ऐसी पंथ-निरपेक्षता के पुनीत धर्म पर अमल करते हुए भारत में रहना भारतवासियों का नागरिक धर्म है।

साझी संस्कृति भारत की अस्मिता

जैसे हर शख्स में कुछ खास होता है, ठीक वैसे ही हर समुदाय की भी एक खासियत होती है। हर प्रजाति या जाति में कुछ अहम् बात होती है। हर भाषा की भी अपनी पहचान होती है। हर विचारधारा में कुछ नयापन है। हर मज़हबी परम्पराओं में कुछ अनूठी बात रहती है। हर सँस्कृति में दम है। सभी समुदायों में अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं। ये सभी विविधताएँ भारतीय समाज की समृद्धि के भिन्न-भिन्न आयाम हैं। ये सब भारत की सम्मिलित धरोहर हैं। ये सब मिलकर भारत देश बनता है। इसलिए अलग-अलग अहमियत वाले समुदायों द्वारा आपस में नाता जोड़ना और एकता रखना भारत देश की वजूद के लिए ज़रूरी है। एक-दूसरे को पहचानना और जानना तथा एक-दूसरे के साथ सहयोग करना देश की अखण्डता और एकजुटता के लिए अनिवार्य है। बेशुमार तहज़ीबों का मिला-जुला रूप है ‘साझी संस्कृति’। भारत के नागरिकों में मजहब, क्षेत्र, जाति, सँस्कृति, समुदाय, आदि का फर्क किये बिना ‘हम की भावना’ हो, यह भारत की साझी सँस्कृति की कामयाबी का मूल मंत्र है। ऐसी साझी भावना लिए अपनी-अपनी ज़िन्दगी को तय करना नागरिकों का दायित्व है।

शासन-प्र​क्रिया में भागीदारी

समाज या देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए शासन-प्रशासन की जरूरत होती है। लेकिन यह समझना कि शासन-प्रशासन तन्त्र से जुड़े कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में ही देश की पूरी जिम्मेदारी रहती है, बड़ी भूल होगी। किसी राजनीतिक दल को वोट के द्वारा जिताकर और देश की शासन का ठेका उसे सौंपने मात्र से अपनी नागरिकता की इतिश्री नहीं होती है। शासन-प्रशासन की प्र​क्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेना और महत्वपूर्ण निर्णयों में हिस्सा रखना नागरिक का सतत काम है। शासन के प्रति नकारात्मक रवैया नहीं रखा जाना चाहिए। शासन से खुद को अलग भी नहीं करना चाहिए। अपने नुमाइन्दों से बराबर सम्पर्क बनाये रखना चाहिए। नागरिकों के प्रति अपना फर्ज बखूबी निभाने के लिए और नागरिकों की माँगों को पूरी करने के लिए अपने नुमाइन्दों को मजबूर कर दिया जाना चाहिए। शासन-प्रशासन के तौर-तरीकों की सतर्कता से जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए। अपना निजी काम निकालने के लिए शासक-प्रशासक को घूस देकर उन्हें बिगाड़ने की जिम्मेदारी बहुत हद तक नागरिकों की होती है। भ्रष्ट व्यवहारों में गिरे हुए और निकम्मे अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को चुनौती देने के साथ-साथ उनकी कुरीतियों का जनता के सामने खुलासा किया जाना चाहिए। देश सलीखे से रहे, खूब तरक्की करे, इस काम में अकेले शासन कामयाब नहीं हो सकती। देश को अपनी मंजिल की ओर ले चलने में हर वक्त​ शासन के साथ रहना नागरिक का कर्तव्य है। सहकारी रवैये के साथ शासन-प्रशासन तन्त्र की मदद करना और उस रूप में शासन-प्रशासन को मज़बूत करना नागरिकों की भूमिका है।

प्र​तिक्रियाओं के शांतिपूर्ण तौर-तरीके

इस संसार और इसके जीवन की सबसे अहम् हकीकत है सीमा। हर चीज की, हर इकाई की, अपनी हद होती है। इसलिए हर बात में कुछ रह जाना स्वाभाविक है। तमन्नाएँ अमूमन अधूरी रह जाती हैं, माँगें कभी-कभार पूरी नहीं होती हैं और सपने अक्सर साकार नहीं होते हैं। नागरिकों की जरूरतों को हरसंभव पूरा करने के लिए योजनायें चलाना शासन-प्रशासन का उत्तरदायित्व है। फिर भी, सभी योजनायें कारगर हों, यह नामुमकिन है। साथ ही, शासकों-प्रशासकों में खुदगर्जी, फिरकापरस्ती, भष्टाचार, तरफदारी, बेइन्साफी, आदि के चलते नागरिकों की भलाई के साथ खिलवाड़ हो, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है। ऐसे हालात में प्रतिक्रियाएँ ज़ाहिर करना नागरिकों का हक है। लेकिन, नाजायज तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त​ करना शरीफ  नागरिक के लायक हरकत नहीं है। बावजूद इसके, दलीय राजनीति, दादागिरी, गुण्डागर्दी, आदि दूषित भावनावों से ग्रस्त होकर कई लोग अपना गुस्सा हिंसात्मक तरीके से प्रकट करने लगते हैं। वे दूसरों के जान-माल को बर्बाद करने लगते हैं और देश की सम्पत्ति तहस-नहस करने लगते हैं। इस प्रकार दूसरे की निजी और देश की सार्वजनिक चीजों को नष्ट करना महज बचकाना व्यवहार है। असल में यह पागलपन है और बीमार मानसिकता का प्रमाण है। क्या लाखों-करोड़ों की बरबादी के साथ-साथ बेकसूर लोगों का कत्ल अपनी माँगें पूरी करने का ज़रिया है? क्या यह हरकत सभ्य समाज के लिए कलंक नहीं है? क्या यह अपनी सँस्कृति का ढिढ़ोरा पीटने वाले भारत देश को शर्मिन्दा करने वाली बात नहीं है? सचमुच, समूचे देश को बर्बादी की ओर ले जाने वाले ऐसे हरकतों पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। नुकसान के लिए जिम्मेदार लोगों द्वारा उसकी क्षतिपूर्ति का कानूनी इन्तजाम भी किया जाना चाहिए। अंधी भीड़-चाल से बचे रहे, सभ्य और परिष्कृत तरीके से अपनी प्रतिक्रियाएँ जाहिर किया जाय, शासन-प्रशासन के साथ सीधा गुफ़्त​गू और शान्तिपूर्ण तौर-तरीकों से समस्याओं और शिकायतों का हल ढूँढ़ा जाय, यह जिम्मेदार नागरिकों का अहम् फर्ज है।

अमीर-गरीब की खाई पाटना

एक-दो साल पहले अखबारों से यह खबर पढऩे को मिली थी कि दुनिया का सबसे धनी आदमी भारतीय है। इस बात की हकीकत कुछ भी हो, एक बात निश्चित है कि भारत के करीब दस से बीस फीसदी लोग बेहद धनवान हैं। ऐसा लगता है कि उनमें से ज्यादातर यह भी नहीं जानते इतनी धन-दौलत का इस्तेमाल किस ढंग से किया जाय। उनमें से बहुतों के लिए पैसा ही असली खुदा है, चाहे वे किसी भी देवता, देवालय और पूजा पद्धति से जुड़े हों। साँसारिक पूँजी में ही उनका हृदय भी फँसा रहता है। ताज्जुब की बात यह है कि, देश का कर्ज चुराने वाले गुनाहगारों में मालदार वर्ग के लोग ही ज्यादा पाये जाते हैं। बड़े धक्के की बात यह है कि उन बेहद मालदार वर्ग में अनेक राजनेता, धर्मनेता, धर्म-संगठन और देवालय भी शुमार हैं। अपने काम-धन्धे के मुनाफे से हो, श्रद्धालुयों के योगदान से हो या अन्य किसी मार्ग से, धनवान होना अपने आप में बुरी बात नहीं है। विडम्बना की बात यह है कि उनमें से कुछेक को छोड़क​र बाकी सब अपनी धन-दौलत को अपनी और अपनी बिरादरी के लोगों लिए ही इस्तेमाल करते हैं। भारतीय समाज की दूसरी तरफ  गरीबी रेखा के नीचे रहकर अपनी अजीविका के लिए बुरी तरह से संघर्ष करने वाले बेसहारों के दर्द को नहीं पहचान पाना इन धनियों की बडी़ खामी है। यह बात धार्मिक होने का दावा करने वाले इस देश के आध्यात्मिक खोखलेपन का सबूत है। ईसा की बात बहुत सार्थक लगती है, ‘सूई के नाके से होकर ऊँट का निकलना अमीर द्वारा ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने से सहज है’। जीने के लिए तड़पने वाले अपने इन भाई-बहनों के प्रति मानवीय संवेदनाओं से च्युत होना इन्सानियत को ही दागयुक्त​ करने के बराबर है। करीब तीस से चालीस फीसदी गरीबों के बीच करोड़ों-अरबों की लागत से बनने वाले मन्दिर, मस्जि़द, गिरज़ाघर, गुरुद्वारा और अन्य आलीशान भवन क्या अधार्मिकता और मूल्यहीनता के प्रमाण नहीं हैं? देवालयों और मनुष्य-खुदाओं पर मुक्त​ हाथ से धन-दौलत उँड़ेलने वाले अन्धविश्वासी लोगों के मन में कम से कम हजार-पाँच हजार लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान दिलाने की बात क्यों नहीं आती? वास्तव में यह एक पेचीदा सवाल है। देश में अमीर और गरीब के दरमियान मौजूद खाई पाटने में हरमुमकिन कोशिश होती रहे, इन्सान-इन्सान में बराबरी का भाव कायम हो, देश खुशहाल बने और देश सन्तुलित रूप से प्रगति की ओर अग्रसर करे, इसके लिए धार्मिक और गैर-धार्मिक तबकों के धनी वर्ग के नागरिकों द्वारा गरीबों और बेसहारों के हित में पहल करना इन्सानियत और आध्यात्मिकता के नाते अनिवार्य है।

सामाजिक तालमेल को बढ़ाना

सामाजिक जीवन में तालमेल बनाए रखना शासन-प्रशासन का पुनीत कर्तव्य है, इसमें दो राय नहीं हो सकती। फिर भी, यह काम सिर्फ शासन-प्रशासन से होगा, ऐसा सोचना सरासर गलत है। आपसी संवेदना बुलन्द रहे और सामाजिक जीवन का सन्तुलन अटूट रहे, इसके लिए नागरिकों की भूमिका सर्वप्रथम है। हर नागरिक को चाहिए कि वह जाति, वर्ग, पेशा, विचारधारा, लिंग, मजहब, तहज़ीब, समुदाय आदि को लेकर लोगों में फर्क नहीं करे। हर इन्सान के साथ शराफत का बर्ताव किया जाना चाहिए। कोई भी शख्स या समुदाय दूसरे की सीमा का अतिक्रमण नहीं करे, दूसरे पर हमला नहीं करे और दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाये, यह सामाजिक तालमेल बढ़ाने के सफर में पहला कदम है। दूसरे को तकलीफ न दे, यही काफी नहीं है, ‘जीयो, जीने दो और जीने की मदद करो’, इस आदर्श पर जिम्मेदारी से अमल किया जाना चाहिए। बहुसंख्यक समुदायों का फर्ज है अल्पसंख्यक समुदायों को हर प्रकार की सुरक्षा और सम्मान देना। मजबूत वर्गों की जिम्मेदारी है कमजोर वर्गों को थामना। साम्प्रदायिक सद्भाव के साथ-साथ समाज में अमन और चैन को कायम रखना और इस दिशा में अपने-अपने हिस्से की कोशिश करते रहना हर नागरिक का फर्ज है। हरेक दूसरे की परम्पराओं को जाने और समझे, उन परम्पराओं की खूबियों और मूल्यों से सीखे और इस प्रकार अपनी परम्परा को दुरुस्त करे, यह बात स्वच्छ और स्वस्थ विचार रखने वाले इन्सानों की पहचान है। दूसरे के साथ सहकारी रवैया अपनाना और दूसरों की और समाज की व्यापक भलाई को ध्यान में रखना नागरिकों के लिए जरूरी है। राष्ट्र की एकता और अखण्डता बनाए रखने के लिए और समाज को ज्यादा जीने लायक जगह बनाने के लिए प्रबुद्ध और सुलझे हुए लोगों का ‘नागरिक मंच’ बनाया जाना चाहिए। इस मंच द्वारा मानवोपयोगी और कल्याणकारी योजनाओं को लेकर संगठित कार्य होता रहे, यह सामाजिक तालमेल की मंजिल तक पहुँचने का कारगर उपाय है। इस प्रकार सामाजिक जीवन का सन्तुलन बनाये रखने के लिए जागरूक रहना और हर मुमकिन कोशिशों के ज़रिये सक्रिय रहना जिम्मेदार नागरिकों की अहम् भूमिका है, और पहचान भी। हमारा भारत ऐसे सपने को साकार करने की दिशा में अग्रसर करता रहे, यही लेखक की हार्दिक कामना है, प्रयास भी।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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संगम दर्शन (त्रैमासिक), जगदलपुर, पृष्ठ संख्या 299-306  -- अक्तूबर-दिसम्बर 2009 में  प्रकाशित 

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