‘सर्व धर्म संसद’ के कुछ मायने
‘ सर्व धर्म संसद’ के कुछ मायने डॉ. एम. डी. थॉमस ----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- ‘सर्व धर्म संसद’, शब्द ही नहीं, विचार भी, 1893 में शिकागो में हुए पहले ‘पार्लमेंट ऑफ रिलीजन्स्’ का हिंदी रूपांतर है। धर्म का भीतरी भाव ‘आस्था’ है, जो कि, असल में, धर्म का फल है। इसलिए इसे ‘सर्व आस्था संसद’ कहना बेहतर है। समाज में धर्म या आस्था को लेकर अलग-अलग परंपराओं की अपनी-अपनी पहचान है, उनका अपना-अपना नज़रिया भी। लेकिन, सभी धर्मों या आस्थाओं की मंजिल एक ही है। इस वजह से, सभी धर्मों या आस्थाओं का मिलन एक संसद या सभा के बराबर है। सर्व धर्म संसद, असल में, ‘एक और अनेक’ का मेल है। धार्मिक परंपराओं में कोई एक पूरा सही हो, ऐसा तो नहीं है। कोई पूरा गलत हो, ऐसा भी नहीं है। कुछ सही सभी हैं, कुछ अधूरा भी सभी। यह इसलिए है कि इस दुनिया में कोई भी, कुछ भी, सौ फीसदी नहीं है। पूरा सच सबके परे है। ‘मेरा ईश्वर और आपका ईश्वर’ ऐसा कुछ नहीं है। ईश्...