सेवा की रूहानियत : ईसाई नज़रिया
सेवा की रूहानियत
: ईसाई नज़रिया
डॉ. एम. डी. थॉमस
निदेशक, इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि
एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली
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सेवा का कोई धर्म नहीं है। सेवा सिर्फ सेवा है। सेवा अपने आप में एक अहम् मूल्य है। वह इन्सानों की होती है। वह सभी इन्सानों के लिए भी होती है। सेवा सभी धर्मों के परे स्वयं एक बेनज़ीर धर्म है।
सेवा एक इन्सानी जज़्बात है। वह एक रूहानी साधना है। वह एक बेहतरीन इन्सान का गुण है। सेवा एक सुलझे हुए और शरीफ इन्सान की पहचान भी है।
ईसाई परंपरा में सेवा के एक जबर्दस्त दर्शन हैं, जिसकी बुनियाद ईसा की शख्सियत खुद है, उनकी ज़िंदगी है। उसमें सेवा का नज़रिया काफी सार्वजनिक, सार्वभौम, सामाजिक और रूहानी है।
सेवा का ईसाई नज़रिया सिर्फ ईसाइयों के लिए हो, ऐसा तो नहीं है। सेवा के बारे में जो भी बातें हैं, चाहे किसी भी परंपरा से हो, वे सभी इन्सानों के लिए बराबर तौर पर लायक हैं।
ईसा के मसीहाई अवतार का मकसद इन्सान और इन्सानियत की सेवा करना था। ईसा ने कहा था, ‘‘मैं सेवा कराने नहीं, सेवा करने और सबके कल्याण की खातिर अपनी जान नौच्छावर करने आया हूँ ’’। बस, सबकी सेवा करना ज़िंदगी का मकसद है।
ईसा ने अपनी जि़ंदगी को सभी इन्सानों के लिए, खासकर गरीबों, कमज़ोरों, आवाज़हीनों, ताकतहीनों, पिछड़ों, ज़रूरतमंदों, आदि के लिए जिया। यहाँ तक कि उन्होंने बीमारों को चंगा किया और मुर्दों को जिलाया। इतना ही नहीं, वे उन लोगों के लिए डटकर खड़े रहे, जिनके हक छीने गये थे और बेसहारा थे। ईसा की सेवा, किसी खास समुदाय के लिए न होकर सभी वर्गों के मोहताज़ों के लिए रही।
ईसा ने सेवा की चरम और एक बेमिसाल मिसाल दुनिया के सामने पेश की। ईसा ने विनम्र भाव से अपने अनाड़ी शिष्यों के सामने घुटने टेककर उनके पैर धोये और उनके प्रति अपने प्यार की निशानी ज़ाहिर की। यह घटना दुनिया में पहली बार रही, न इसके पहले, न इसके बाद में। शिष्य गुरु के पैर धोये या उनकी सेवा करे, यह आम बात है। लेकिन, गुरु शिष्य के पैर धोये या उसकी सेवा करे, यह बाकायदा अलौकिक है। सेवा अपने आप में एक दिव्य गुण है।
ईसा ने अपने चेलों
से कहा, ‘‘गुरु और प्रभु होकर यदि मैंने तुम्हारे पैर धोये हैं, तो तुम्हें भी एक दूसरे
के पैर धोने चाहिए’’। सेवा ही गुरु की या खुदा की गुरुता में शरीक होने की राह है।
असल में, सेवा आस्था की पहचान भी है।
सेवा प्यार को इज़हार करती है। सेवा प्यार का बाहरी रूप है। सेवा करने की प्रेरणा प्यार से मिलती है। जिसके भीतर खुदा के लिए तथा औरों के लिए प्यार नहीं है, वह सेवा नहीं कर सकता। प्यार और सेवा एक सिक्के के दो पहलू के समान आपस में जुड़े हुए हैं।
ईसा प्यार से प्रेरित होकर इन्सानों के लिए अपनी जान ही दे डाले। ईसा ने कहा, ‘‘तुम लोग एक दूसरे से प्यार करो, जैसे मैंने तुम लोगों के साथ किया है’’। प्यार का स्वभाव है, वह अपने लिए कुछ नहीं रखते हुए सब कुछ औरों पर उँड़ेलना चाहता है। सेवा, बस, उसी प्यार-भाव की निशानी है।
सेवा रिश्ते का ज़रिया है। पैर धोते समय पेत्रुस नामक शिष्य ने एतराज जताया। तब ईसा ने उससे कहा, ‘‘यदि मैं तुम्हारे पैर न धोऊँ, तो तुम्हारा मेरे साथ कोई रिश्ता नहीं रहेगा’’। अजीब है, आप मेरे पैर धोयें तो आपका मेरे साथ रिश्ता रहेगा, ऐसा नहीं है। बल्कि, मैं आपके पैर धोउँ तो आपका मेरे साथ रिश्ता रहेगा। मतलबहै, सेवा लेने से नहीं, सेवा देने या करने से रिश्ता बनता है। सेवा से प्यार का गुण बढ़ता है और रिश्ता बनता है। औरों की सेवा करने से उनसे रिश्ता बने, यही सेवा की तहज़ीब है।
ईसा का कहना था, ‘‘तुम मेरे नाम पर एक गिलास पानी भर किसी को पिलाये, तो तुम अपने पुरस्कार से वंचित नहीं रहोगे’’। यकीनन, सेवा का फल भरपूर मिलेगा। यह अन्यथा नहीं हो सकता।
इन्सान की सेवा ईश्वर की सेवा है, ईश्वर की पूजा है। ईसा ने कहा, ‘‘तुम ने मेरे इन भाइयों और बहनों के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया’’। इन्सानों की सेवा, खासकर छोटों की, ईश्वर की सेवा है। सेवा से ही खुदा का दीदार होता है। जिनकी सेवा होती है, मानो वह खुदा खुद हो, ऐसे भाव से सेवा होनी चाहिए।
सेवा सबकी की जाय, यही कायदा है। ईसा ने कहा, ‘‘मेरे स्वर्गिक पिता ईश्वर धर्मी और अधर्मी या अच्छे और बुरे में फर्क नहीं करते हुए सब को सूरज की रौशनी और बारिश का पानी देता है। इसलिए, तुम पूर्ण बनो, जैसे मेरे स्वर्गिक पिता पूर्ण है’’। सेवा में बड़े-छोटे का फर्क नहीं किया जा सकता। सेवा पूर्णता की पहचान है। सेवा में खुदा का भाव है।
बड़ा छोटे की सेवा करे, यही कायदा है। छोटा बड़े की सेवा करे, यह दुनियादारी है। जो अधिकारी है, वही सेवक बने, यही खुदा के नज़रिये से जीने का सलीका है। असल में, सेवा में बड़े-छोटे की पेशकश कतई नहीं है। जो सेवा करता है, वही बड़ा है। सेवा से ही बड़प्पन की सीढि़याँ चढ़ी जा सकती हैं। साथ ही, सेवा महज अपना फजऱ् है, मेहरबानी नहीं है। इसलिए, सेवा करके बड़प्पन न जताया जाय, यही जायज है।
सेवा के विषय में ईसा का स्वर्णिम नियम है, ‘‘तुम दूसरों से जो व्यवहार चाहते हो, वही उनके साथ भी किया करो’’। अपनी सेवा हो, यह सबको अच्छी लगती है। औरों की सेवा करने में खुद पहल करे, इसी से सेवा का हकदार खुद बन जायेगा। सेवा में पहला कदम रखे, यही ज़रूरी है।
सेवा में निष्काम भाव हो, स्वार्थ न हो, बल्कि समर्पण का भाव हो, यही कायदा है। सेवा इन्सानियत की ऊँचाइयों की खोज है। सेवा खुदा की साधना है। सेवा से ज़िंदगी में खुशी मिलती है। सेवा से शांति मिलती है। जिस समुदाय, देश व समाज में सेवा है, वह बेहतर होता है और बेहतरीन की ओर सदैव बढ़ता रहता भी है। सेवा से इन्सानी समाज मंगलमय और जीनेलायक होता है। सेवा अपने आप में व्यवहार के स्तर पर रूहानियत है, जो कि सभी धर्मों से परे है। बस, इन्सान-इन्सान की ऐसी सेवा ही दरकार है।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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