तरजीह दें जान के मालिक की मरजी को

ईद-अल-अज़हा 2021 / 21 जुलार्ई / लेख 

तरजीह दें जान के मालिक की मरजी को

फादर डॉ. एम. डी. थॉमस 

निदेशक, इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली

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21 जुलाई को पर्व ‘ईद-अल-अज़हा’ मनाया जा रहा है। अरब देशों में लोग इसे ‘ईद-उल-ज़ुहा’ कहते हैं। इसे ‘ईद-उल-अधा’ भी कहा जा सकता है। ‘कुर्बानी’ से जुड़ी हुई होने से इसे ‘ईद-ए-कुरबां’ और नमकीन पकवानों की वजह से इसे ‘नमकीन ईद’ भी कहने की रिवाज़ है। खैर, आम लोगों में यह ‘बकरीद या बकरा ईद’ के तौर पर जाना जाता है। यह 20 जुलाई शाम को शुरू होकर 21 जुलाई शाम को खतम होता है। यह इस्लामी समुदाय की तीन ईदों में से एक है।

‘ईद-अल-अज़हा’ के पीछे एक कहानी है। सामी परंपरा के मूल पूर्वज थे ‘इब्राहीम’, जो कि यहूदी, ईसाई और इस्लामी तीनों समुदायों में माने जाते हैं। इब्राहीम को यहोवा, ईश्वर या अल्लाह की मेहरबानी से अपना बेटा मिला। सपने में इब्राहीम को खुदा की वाणी सुनायी दी कि ‘वह अपने बेटे की कुरबानी करे’। इब्राहीम इसे खुदा की मरजी समझकर अपने बेटे की कुरबानी देने की तैयारी कर ही रहे थे। इतने में, अल्लाह ने इब्राहीम पर खुश होकर अपने बेटे की कुरबानी से इब्राहीम को रोका। बदले में, इब्राहीम ने एक बकरे की कुरबानी दी। तब से लेकर इब्राहीम अपनी ‘ईमान या आस्था’ के लिए मशहूर रहे और यह किस्सा ‘बकरीद’ की बुनियाद भी बना।

अमूमन यह माना जाता है कि ‘ईद-अल-अज़हा’ का रिश्ता सिर्फ बकरे से है। लेकिन, अरबी में ‘कर्ब’ का मतलब ‘करीब’ या ‘पास रहने’ से है। ‘करबां या कुरबां’ का अर्थ ‘बलि होना’ या ‘बलि देना’ है, याने ‘बलिदान की भावना’। ‘ईमान या आस्था’ के ज़रिये अल्लाह या ईश्वर के नज़दीक रहना ‘ईद-अल-अज़हा’ का भीतरी भाव है। साथ ही, बकरे का ‘जिबह’ या कुरबानी करना भी झटके से न होकर दुआ के ज़रिये खुदा के करीब होने के एहसास के साथ धीरे किया जाना कायदा है। इसे ही ‘हलाल’ माना जाता है।  

परंपरा के मुताबिक बकरे या जानवर के गोश्त को तीन हिस्सों में बाँटना कायदा है। एक तिहाई अपने परिवार के लिए, दूसरी तिहाई रिश्तेदारों, दोस्तों व पड़ोसियों के लिए और तीसरी तिहाई गरीबों और ज़रूरतमंदों के लिए देना होता है। नमकीन पकवान को भी इसी प्रकार एक दूसरे में बाँटा जाता है। ‘ईद-अल-अज़हा’ के पर्व को मुसलमान इबादत करते, नमाज़ अदा करते, मिलते-जुलते, बकरे या नमकीन पकवान को एक-दूसरे को इनाम के तौर पर देते और आपस में बाँटकर खाते हुए मनाते हैं। इस्लामी देशों में यह दिन सार्वजनिक छुट्टी भी घोषित होती है। 

ईद-अल-अज़हा का पहला पैगाम है ‘खुदा के करीब रहना’। यही है असल में ‘ईमान या आस्था’ भी। ईश्वर को मान देना ईमान है। खुदा पर स्थित होना आस्था है। इस रूप में जान के मालिक के नज़दीक होने का एहसास करना हर इन्सान का फर्ज़​ है। साफ है, इसका किसी खास मज़हब से कोई लेना-देना नहीं है। रस्मों की अदायगी या कर्मकांड इन्सान-इन्सान को अलग-अलग करती है। लेकिन, मज़हबी रस्मों से इन्सान को खुदा के करीब होने का एहसास मिलता हो, यह ज़रूरी नहीं है। इसलिए, अपने-अपने मज़हब के ज़रिये, और उसके परे भी, खुदा के पास रहने के एहसास को ही ईमान या आस्था समझना ‘ईद-अल-अज़हा’ की सबसे अहम् सीख है।

‘ईद-अल-अज़हा’ का दूसरा पैगाम है ‘खुदा को जि़ंदगी में तरजीह देना’। अपने-अपने भीतर और समूचे कायनात में मौज़ूद जान कुछ अर्से के लिए होती है। वह कभी शुरू होती है और कुछ समय बाद खतम होती है। यह इंतज़ाम जान के मालिक की योजना और मरजी है। इस योजना के मुताबिक ज़िंदगी को बिताना और उसकी मरजी को कबूल करना इन्सान के लिए दरकार है। अपने भीतर मौज़ूद जान के मालिक की मरजी को अपनी-अपनी जि़ंदगी में तरजीह देते हुए चलना इन्सान के लिए बेहद अहम् है। यही है मज़हब या धर्म का मकसद भी। ‘ईद-अल-अज़हा’ इस बात की याद दिलाती है।  

‘ईद-अल-अज़हा’ का तीसरा पैगाम है ‘भाईचारा, प्यार और दोस्ती’। खुदा के करीब रहने की खातिर इन्सान के लिए यह दरकार है कि वह साथी इन्सानों के करीब रहे। खुदा या अल्लाह, जो कि जान के मालिक है, अपनी औलाद इन्सानों में मौज़ूद जान की टुकड़ियों में समाकर रहता है। साथी इन्सानों में खुदा को पहचानना और महसूस करना तथा उन्हें अपना भाई या बहन समझकर उनके साथ सदभाव और प्यार का बर्ताव करना हर इन्सान का फजऱ् है। मज़हब आदि का फर्क किये बगैर सबके साथ दोस्ताना भाव बनाये रखने से ही इन्सानियत में निखार आता है।

‘ईद-अल-अज़हा’ का चौथा पैगाम है, ‘साझेदारी’। बकरे के गोश्त को या नमकीन पकवान को तीन हिस्सों में बाँटने की इस्लामी परंपरा वाकई ज़बदस्त है। अपना परिवार, रिश्तेदार, दोस्त व पड़ोसी और गरीब व ज़रूरतमंद -- ये हर इन्सान के जि़ंदगी की हकीकत के तीन पहलू हैं। इन तीनों पहलुओं में ताल-मेल बनाये रखे बिना इन्सानी ज़िंदगी सार्थक नहीं हो सकती। इस्लामी परंपरा की इस रिवाज़ से सीख लेते हुए हर इन्सान को अपनी कमाई को इन तीन तबके के लोगों में साझा कर अपने देश व समाज को संतुलित करने की कोशिश करनी चाहिए। यही है, असल में, जीने की रूहानी कला भी।    

‘ईद-अल-अज़हा’ के पुनीत मौके पर भारत के और पूरी दुनिया के तमाम मुसलमान बहनों व भाइयों को जि़ंदगी में अपनी जान के मालिक की मरजी को नये सिरे से तरजीह देना होगा। साथ ही, मुसलमानों के साथ मिलकर हर इन्सान को भी अपने साथी इन्सानों में खुदा को पहचान कर उसके साथ सद्भाव, प्यार व साझेदारी का बर्ताव करते हुए जान के मालिक का नाम रौशन करना होगा।

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

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