ईद से समाज में भाईचारे और ज़कात की तहज़ीब बने
ईद-उल-फित्र 2021 / 14 मई
ईद से समाज में
भाईचारे और ज़कात की तहज़ीब बने
फादर डॉ. एम.
डी. थॉमस
निदेशक, इंस्टिट्यूट
ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली
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14 मई को ‘ईद-उल-फित्र’ का पर्व मनाया जा रहा है। इसे ‘ईद-अल-फितर’ भी कहते हैं। ‘ईद’ का मतलब ‘मनाना’ है और ‘फितर’ का मतलब ‘इफ्तार’, याने रोज़े को तोड़ना। दूजे लफ्ज़ों में, महीने भर के रमज़ानी रोज़े को अंजाम तक पहुँचाते हुए पर्व के तौर पर खुशी का इज़हार करना ‘ईद-उल-फित्र’ है। ज़ाहिर है, यह इस्लामी समुदाय का सबसे बड़ा पर्व है।
इस्लामी पंचांग चाँद को बुनियाद मानकर बनाया हुआ है। इसलिए हर महीना नये चाँद के साथ शुरू होता है। नौवाँ महीना रमज़ान रहा और दसवाँ महीना ‘शव्वाल’ होता है। शव्वाल महीने की पहली चाँद रात को ‘अल्फा’ कहते हैं। इसकी अगली सुबह को पर्व के तौर पर मनाने की रिवायत है। चाँद के दीदार के बाद ही ‘ईद-उल-फितर’ का एलान होता है। साफ है, ‘ईद-उल-फितर’ मुसल्मानों के लिए सालाना तौर पर एक नयी शुरूआत होती है।
रमज़ान के चाँद का डूबना और ईद के चाँद का नज़र आना वाकई मुबारक होती है। सऊदी अरब में एक दिन पहले और भारत में एक दिन बाद चाँद दिखने की वजह से ईद को दोनो दिन भी मनाया जाता है। खैर, असल में ईद 12 मई की शाम को शुरू होकर 13 मई शाम को खतम होती है और अगले दिन ईद खुशी का पैगाम लेकर आती है। रोज़ेदार को कड़ी आजमाइश के बाद रूहानी एहसास हासिल होती है, यही ईद की अहमियत है।
रमज़ान महीने की इबादतों व रोज़े के बाद ईद अल्लाह का इनाम है और इसलिए यह अपने आप में एक जलवा है, जश्न है। पूरे महीने के रोज़े के ज़रिये दुनियादारी से कुछ जुदा होने के बाद इसके लिए शुक्रिया अदा कर ‘अल्लाह की बख्शिश’ से नवाज़ा जाना ईद पर हर मुसलमान की अहम् ख्वाहिश है। रोज़े के ज़रिये दिल, दिमाग और रूह की साफ-सफाई और कुरान शरीफ की तिलावत से नयी जोश पाकर ईद मुसलमान के लिए एक नयी ऊर्जा बन जाती है।
रस्म के तौर पर ईद-उल-फित्र की नमाज़ बहुत ही अहम् है। साथ ही, बढ़िया खाना खाना, नये कपड़े पहनना, परिवार और दोस्तों के बीच तोहफा देना और लेना, आदि ईद की खुशी की कुछ निशानियाँ हैं। खाने की चीज़ों में ‘सिवैया’ और ‘शीर खुरमा’ ईद के कुछ खास पकवान हैं, जिन्हें लोग बड़े चाव से खाते और खिलाते हैं। इन पकवानों के मिठास की वजह से इस ईद को ‘मीठी ईद’ भी कहते हैं। इस प्रकार, चारों ओर खुशी और ताज़गी का माहौल बना रहता है।
‘ईद-उल-फितर’ का एक अहम् मकसद ‘गरीबों को फितरा या दान देना’ है। इसे ‘सदका-ए-फितरा’ या ‘ज़कात’ कहते हैं। सदका ‘वह चीज़ है जो खुदा के नाम पर किसी को दी जाती है’। यह इसलिए वाजिब है कि अमीर मुसलमान के माल पर गरीबों का कुछ हक है। गरीब भी कुछ खाना खा सकें, कुछ अच्छे कपड़े पहन सकें, औरों के साथ खुशियाँ बाँट सकें तथा इस प्रकार उन्हें भी लगे कि ईद कुछ है, यह दरकार है। साथ ही, ईद-उल-फितर की नमाज़ के पहले ही ‘सदका-ए-फितरा’ हर हाल में अदा होना होता है।
‘सदका-ए-फितर या ज़कात’ अदा करने के कई तरीके होते हैं। फितरे की रकम को गरीबों, मज़दूरों, बेवाओं व यतीमों को दिया जा सकता है, सीधे या यतीमखानों व मदरसों के ज़रिये। उस रकम को मोहताज़ रिश्तेदार और अजीज़ ज़रूरत्मंद को भी देना ठीक है। उसे भाई-बहन, चाचा, मामू, फूफी, सास-ससुर, बहू, दामाद, आदि को देना भी जायज है, बशर्ते वे मालदार न हो। लेकिन, सदका-ए-फितर को माँ-बाप, औलाद, दादा-दादी, नाना-नानी, पोता-पोती, नवासा-नवासी, आदि को कतई नहीं दी जा सकती। कुल मिलाकर, ‘सदका-ए-फितर’ सामाज के प्रति अपनी जि़म्मेदारी को निभाने का एक बेहद कारगर ज़रिया है, इसमें कोई शक नहीं है।
ईद-उल-फितर आपसी मेल और मेल-जोल का त्योहार भी है। अल्लाह की सही इबादत, सही मायने में, ‘अल्लाह की औलाद से प्यार करना और उनकी मदद करना’ है। ईद की असली खुशी भी इसी से ही मिलेगी। एक दूसरे के दिल में प्यार बढ़ाने और नफरत मिटाने के लिए एक दूजे से गले मिलना ज़रूरी है। ‘भाईचारे’ को बढ़ावा देना ईद का खास मकसद है। इसके लिए मिल-जुलकर ईद मनाना ही नहीं, रोज़मर्रा की जि़ंदगी में आपस में तालमेल रखने की तहज़ीब भी बने, यही कायदा है।
इसलिए ज़रूरी है कि छोटे-बड़े, अपने-पराये, सही-गलत तथा दोस्त-दुश्मन का फर्क नहीं करते हुए हर मुसलमान और हर इन्सान एक दूसरे से गले मिले। ईद की खुशी से दमकते चेहरों से इन्सानियत का पैगाम चारों ओर फैले, इसी से हमारा मुल्क व समाज सुचारु रूप से चलेगा। तभी मुसलमानों को और सभी इन्सानों को अल्लाह की बरकत हासिल होगी। इसलिए, पुराने शिकवे, मनमुटाव, नफरत और तलखी की कड़वाहट को ईद के मिठास में तब्दील किया जाय, यही इन्सानी और रूहानी समझदारी है, ईद मनाने का फायदा भी।
‘ईद-उल-फितर’ के पुनीत मौके पर हर मुसलमान अपनी रूहानी जड़ों में मज़बूत हो जाये। साथ ही, हर इन्सान इस बात का एहसास कर सके कि इन्सानियत ही इन्सानी समाज की अकेली जाति है। तमाम इन्सान इन्सानियत की ईमान और मज़हब के ज़रिये खुदा की ऊर्जा हासिल करे तथा ‘ज़कात या सदका-ए-फितर’ के ज़रिये अपनी कमाई का कुछ हिस्सा औरों के साथ, खासकर मोहताज़ों के साथ, साझा करे। मैं समझता हूँ, बेहतर मुल्क व समाज को तामीर करने की यही कारगर तरीका है, ईदा-उल-फितर मनाने की सार्थकता भी।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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