अहिंसा के पालन से महावीर के तर्ज़ पर जिनेंद्र बनें
महावीर जयंती 2021 / 25 अप्रेल
अहिंसा के पालन
से महावीर के तर्ज़ पर जिनेंद्र बनें
फादर डॉ. एम.
डी. थॉमस
निदेशक, इन्स्टिट्यूट
ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली
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25 अप्रेल को महावीर जयंती का पर्व मनाया जा रहा है। यह दिन महावीर जैन का जन्म दिवस है। जैन परंपरा में इसे ‘महावीर जन्म कल्याणक’ कहा जाता है। तीर्थंकरों की जैन तालिका में महावीर 24वें और आखिरी तीर्थंकर हैं और उनके जन्म की सालगिरह जैन समुदाय का सबसे महत्वपूर्ण पर्व भी है।
जैन ग्रंथों के अनुसार महावीर जैन ईसा पूर्व 599 में चैत्र माह के तेरहवें दिन पैदा हुए थे। इतिहासकारों की राय है कि आपका जन्मस्थल बिहार के चंपारण जिले का कुंदलपुर है। महावीर के माँ-बाप लिच्चवि वंश के कुंदग्राम के राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला थे। अपने वैशाली गणराज्य में राजा वोट के ज़रिये चुने जाते थे। तब जाकर महावीर ‘लोकतंत्र’ के हिमायती बने और ‘जान’ की इज़्ज़त और जीवन के विविध पहलुओं में ‘बराबरी’ आपके आदर्श बने।
महावीर का मूल नाम ‘वर्धमान’ था, जिसका मतलब है ‘वह जो बढ़ता रहता है’। शायद अपने समृद्ध वातावरण के कारण आपको यह नाम मिला था। कहा जाता है कि वर्धमान के जन्म के पहले माँ को होने वाले बच्चे के संदर्भ में कई रोचक सपने आये थे। यही आप की महापुरुषीय गुणों का शुरूआती अंदाज़ था। आगे चलकर वर्धमान ज्ञातिपुत्र या नतपुत्ता महावीर आध्यात्मिक विजेता होकर ‘जिन’ के रूप में उभरे।
महावीर जयंती को मनाते हुए जैन भक्त महावीर को याद करते हैं, जो अपने जीवन को ध्यान और तपस्या करते हुए बिताया करते थे। साथ ही, उनकी अनोखी शिक्षाओं से प्रेरणा लेते हुए व्रत, पूजा-पाठ, रथयात्रा, जुलूस, स्तवन, मूर्ति अभिषेक, ध्यान, भजन, प्रवचन, सेवा कार्य, आदि कार्यों में लग जाया करते हैं।
जैन धर्म एक श्रमण परंपरा है जो मानती है कि इन्सान नैतिक और आध्यात्मिक अनुशासन के ज़रिये संसार की मृत्यु और पुनर्जन्म की प्रक्रिया से मुक्त होकर मोक्ष हासिल कर सकता है। महावीर जैन गौतम बुद्ध के कुछ पहले होकर भी करीब-करीब उनके समकालीन माने जाते हैं। ज़ाहिर तौर पर जैन परंपरा मगध से उभरी थी और अर्ध मगधी और प्राकृत जैन परंपरा की भाषाएँ रहीं। वर्तमान हिंदू परंपरा पर जैन विचारधारा का कई मायनों में प्रभाव रहा।
जैन दर्शन के अनुसार तीर्थंकर इन्सान के रूप में पैदा हुए थे, लेकिन उन्होंने ध्यान और आत्म-साक्षात्कार द्वारा ज्ञानोदय या पूर्णता को हासिल किये हुए हैं। वे ही जैन परंपरा के देवताएँ हैं। जैन परंपरा के दो समूह होते हैं, दिगंबर और श्वेतांबर। पहला आसमान या दिशाओं को अपने आवरण या कपड़े मानते हैं, जबकि दूसरा सफेद कपड़े को। साफ है, जैन परंपरा के मूल में कड़ी तपस्या का भाव बहुत है।
महावीर जैन ने भारत की परंपरा में शायद पहली बार एक ‘विरोधी स्वर’ का आगाज़ किया था, जिसे बौद्ध दर्शन ने आगे बढ़ाया था। तत्कालीन हिंदू परंपराओं में देवी-देवताओं की कल्पना नर-नारी के सांसारिक चक्रव्यूह के भीतर था। धर्म-व्यवस्था में नर-बलि, जीव-हत्या, आदि भी होती थी। महावीर ने सांसारिक मोह-माया के ऊपर ‘अलौकिकता और अहिंसा’ के बलबूते इन परंपराओं के खिलाफ एतराज जताया। यह उनकी अहमियत है।
जैन परंपरा में पाँच अणुव्रत होते हैं -- ‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय या अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह’। ‘सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र’ जैन परंपरा का ‘रत्नत्रय’ कहे जाते हैं। इनमें से कोई भी एक दूसरे के बगैर नहीं रह सकता है। आध्यात्मिक मुक्ति के लिए तीनों की ज़रूरत भी होती है। ‘सत्य’ और ब्रह्मचर्य इस रत्नत्रय को मज़बूत करने वाली बातें भी हैं।
‘अहिंसा परमो धर्म:’, याने ‘अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है’, यह महावीर जैन की सबसे अहम् तालीम है। लगता है कि अहिंसा की सोच पूरे भारत के लिए, सारी दुनिया के लिए भी, महावीर जैन का खास योगदान है। यह भी लगता है कि महावीर जैन के ही प्रभाव से अहिंसा की बात वैदिक, हिंदू और भारत की परंपरा में आयी थी। अहिंसा जैन धर्म का ‘प्रतीक’ भी बना, जो कि ‘हाथ है, जिस पर चक्र है और उस चक्र के बीच ‘अहिंसा’ लिखा हुआ है। अहिंसा के कट्टर सिद्धांत की वजह से जैन धर्म को सबसे शांतिप्रिय धर्म के रूप में माना जाता रहा है।
‘अपरिग्रह’ भी जैन दर्शन की मुख्य बात है। यह ‘परिग्रह’ का उलटा है, जो कि सभी तरफ से संसार की चीज़ों पर टूट पड़ना है। इस प्रवृत्ति से बचकर अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखना अपरिग्रह है। ‘अस्तेय’ या ‘अचौर्य’ भी अपरिग्रह से मिलती-जुलती है। कुछ भी चुराया न जाय, यह इसका भाव है। संयम और इमानदारी अपरिग्रह और अस्तेय का फल हैं।
‘क्षमावाणी’ या ‘क्षमा दिवस’ जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा मनाये जाने वाला एक खास पर्व है। इस पर्व पर जैन समुदाय के लोग सब लोगों से अपने भूलों की क्षमा याचना करते हैं। क्षमा-भाव से अपने अंदर के घमंड को खतम करना इस रस्म का मकसद है। विश्व का हर जीव दुरुस्त रहे और उनका कल्याण हो, यही जैन दर्शन का मूल भाव है।
‘अनेकांतवाद’ जैन दर्शन का खास तत्व है। इसका मतलब है, ‘बहु-आयामी सोच’। परम तत्व या सत्य इतना जटिल है कि उसके अनेक पहलू होते हैं। इस दर्शन को ‘श्यादवाद’ भी कहते हैं। याने सभी विचार या फैसला आंशिक हैं या सशर्त। वे कुछ ही संदर्भों में सही, अच्छे और सार्थक साबित होते हैं। ‘शायद’ इसका सूत्र शब्द है। पूरे दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। हर बात की अपनी-अपनी हद है।
महावीर जयंती ऐसा पुनीत समय है जब जैन समुदाय ही नहीं, सभी समुदायों के लोग महावीर जैन के अनोखे मूल्यों से प्रेरणा लें। कई प्रकार की क्रूर हिंसा और मनमौज़ी से लदे आज-कल के देश व समाज को महावीर के अहिंसा और अनेकांतवाद की सख्त ज़रूरत है।
इसलिए,
जीव और इन्सान की इज़्ज़त हो, मन की आज़ादी रहे, इन्सानों व जीवों में बराबरी रहे और
इन्सान की अलौकिक संभावनाओं की साधना हो तथा इन्सान की ज़िंदगी सार्थक रहे, मैं समझता
हूँ, महावीर जैन के ऐसे क्रांतिकारी अवतार के साथ, बस, यही न्याय है। जय जिनेंद्र!
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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