रमज़ानी रोज़ा और ज़कात से इन्सान पाक और नेक बने
रमज़ान 2021 / 12-13 अप्रेल
से 12-13 मई
रमज़ानी रोज़ा
और ज़कात से इन्सान पाक और नेक बने
फादर डॉ. एम.
डी. थॉमस
निदेशक, इन्स्टिट्यूट
ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली
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‘रमज़ान’ का आगाज़ हो रहा है। यह एक महीने का नाम है। यह इस्लामिक पंचांग का नौवाँ महीना है। रमज़ान का महीना इस साल 12 या 13 अप्रेल शाम से 12 या 13 मई शाम तक फैला हुआ है। इस अर्से के भीतर हिलाल या वर्धमान चाँद का एक चक्र पूरा होता है। ज़ाहिर है, यह महीना मुसलमानों के लिए बेहद पुनीत है। रमज़ान इस्लाम की पाँच सबसे खास बातों में एक भी है।
‘रमज़ान’ महीने भर का उपवास या रोज़ा रखने के लिए जाना जाता है। इस महीने में रात को कुछ खास इबादत होती है, जिसे ‘तरावीह की नमाज़ या दुआ’ कहते हैं। कुरान की तिलावत या कुरान को पढ़ना इस महीने का अहम् काम है। कुल मिलाकर, रमज़ान नेकियों और इबादतों का महीना है।
कुछ मौन रहकर खुद की छान-बीन करना और तोहफे के तौर पर ज़िंदगी में जो कुछ मिला है, उसके लिए अल्लाह का शुक्र अदा करना, औरों के भले के लिए अल्लाह से दुआ करना, ज़कात देना, आदि रमज़ान के खास रस्मों में हैं। रमज़ान के महीने में जो कुछ होना चाहिए और होता है, वह सब ‘ईद-उल-फित्र’ की तैयारी है।
रमज़ान का महीना कभी 29 दिन का तो कभी 30 दिन का होता है। इस्लाम की करीब-करीब सभी तारीखों सरीखे रमज़ान भी चाँदमान पंचांग के मुताबिक तय किया जाता है। हिलाल या वर्धमान चाँद को देखकर रमज़ान शुरू किया जाता है। हिलाल या चाँद देखकर ही रमज़ान की आखिरी तारीख और ईद को भी तय किया जाता है।
मुसलमानों के मुताबिक इस महीने की 27वीं रात को ‘शब-ए-कद्र’ कहा जाता है। यह रात हज़ार महीनों की रात से खास है। यह रात पूरी की पूरी सलामती है। इस रात को कुरान शरीफ का नुज़ूल हुआ था। या यों कहा जाय, इस रात अल्लाह ताला ने हज़रत मुहम्मद के ज़रिये कुरान को दुनिया में ज़ाहिर किया था। इसलिए इस वक्त कुरान को ज्यादा पढ़ना बेहद पुनीत माना जाता है।
रमज़ान के महीने में मुसलमान उपवास करते हैं, जिसे अरबी में ‘सौम’ कहते हैं। इसलिए इस महीने को ‘माह-ए-सियाम’ भी कहते हैं। भारत के इस्लामी समुदाय पर फारसी का असर ज्यादा है। इसलिए फारसी तर्ज़ पर यहाँ ‘रोज़ा’ शब्द का इस्तेमाल ज्यादा होता है। रोज़े के दिन पुनीत काम किया जाना चाहिए। ये दिन नेकियों का मौसम है या ‘मौसम-ए-बहार’ है। इसलिए रोज़ा अल्लाह के करीब जाने का अहम् ज़रिया है।
ज़ाहिर है, सूरज के उगने से लेकर अस्त होने तक रोज़ा रखा जाता है। सूरज के उगने से पहले कुछ खाया-पीया जा सकता है, जिसे ‘सहरी’ कहते हैं। सूरज के अस्त होने के बाद खाने-पीने की शुरूआत को ‘इफ्तार’ कहते हैं। परंपरा के मुताबिक रोज़े को तीन खजूर खाकर तोड़ा जाता है। इफ्तार एक खजूर या सिर्फ पानी से भी किया जा सकता है। मग्रिब या चौथी बार की नमाज़ के बाद खाना भी खाया जाता है। समाज के गरीब और ज़रूरत्मंदों के साथ हमदर्दी ज़ाहिर करते हुए रोज़ादार लोगों को इफ्तार कराने वाले के गुनाह भी माफ किये जाते हैं।
साफ है, रोज़ा रखने से भूख-प्यास तो लगेगी। भूख और प्यास कुदरत की देन है। जान को बनाये रखने के लिए खाना और पीना ज़रूरी है। खाने-पीने से लगाव भी भूख और प्यास लगने से होता है। लेकिन, अक्सर लोग भूख व प्यास लगने से पहले ही खाते और पीते हैं। भूख-प्यास क्या चीज़ होती है, हाय, उन्हें इसे महसूस करने की नसीब नहीं होती है। रोज़ा भूख और प्यास का एहसास करने का सुनहरा मौका है। साथ ही, भारत के और दुनिया भर के करोड़ों भूखे-प्यासों पर क्या बीतता है, यह जानने का एक ज़बर्दस्त इस्लामी इंतज़ाम है रोज़ा।
रोज़ा खुद पर काबू रखने की तरबियत या तालीम है। यह रोज़ेदार में परहेजगारी पैदा करता है। यह चटपटे और मज़ेदार खाना खाने के तसव्वुर या ख्वाहिश पर अंकुश लगाने की तहज़ीब है। रोज़ा शरीर की ज़रूरत से ज्यादा नहीं खाने की ओर इशारा करता है। रोज़ा रखना सभी बालिग मुसलमानों का फर्ज़ है। रोज़े के ज़रिये अल्लाह से ताल-मेल बिठाने लिए सलात या पाँच बार की नमाज़ भी रोज़े के वक्त ज़रूरी है। जि़ंदगी में ‘अनुशासन’ सिखाने वाला रोज़ा तंदुरुस्ती के लिए भी अहम् है।
इतना ही नहीं, ज़ाहिर तौर पर ‘ज़कात’ रमज़ान के महीने की अहम् कड़ी है। यह रोज़े का असली नतीजा भी है। अपनी कमाई का एक तयशुदा हिस्सा ज़रूरतमंदों को देना ज़कात है। ज़कात मेहरबानी न होकर हर मुसलमान का फर्ज़ है। अपनी कमाई पूरी तरह से अपनी है, ऐसा समझना सामाजिक जीव होने के नाते इन्सान के लिए जायज नहीं है। इसलिए कायदा है कि हर इन्सान अपनी कमाई से कुछ मोहताज़ों और नादारों के साथ साझा करे।
औरों की ज़रूरतों को समझना वाकई इन्सानियत की पहचान है। गरीब चाहे किसी भी मज़हब, ज़ुबान या जाति का हो, इसका फर्क नहीं किया जाना चाहिए। अपनी ज़रूरीयात को कम कर दूसरों की ज़रूरीयात को पूरा करना ईमान का सबूत है। यह अपने गुनाहों को कम करने और नेकियों को बढ़ाने का तरीका भी है।
साथ ही, दूजों का काम आना असल में इबादत है। इसलिए है कि ‘जो औरों को दिया जाता है वह हकीकत में अल्लाह को ही दिया जाता है’। मुझे लगता है, अल्लाह को इससे बढ़कर अपने लिए और कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि वह अल्लाह है, इन्सान नहीं। साथी इन्सानों के साथ, खासकर ज़रूरतमंदों के साथ, अपना जो कुछ साझा किया जाता है, अल्लाह की इबादत बेशक यों हो जाती है। यही है बाकायदा धरती पर जन्नत का एहसास भी।
रमज़ान का यह पुनीत महीना अपने आप में इन्सान के लिए खुदा का एक खास बुलावा है। इस सालाना मौके पर रोज़ा, ज़कात, आदि के ज़रिये मुसलमान हज़रत मुहम्मद और कुरान शरीफ के नक्शा-ए-कदम पर नये सिरे से चलने लगें, तो यकीनन वे अपने और अपने समुदाय की बेहतरी के लिए भरपूर ऊर्जा पायेंगे। साथ ही, रूहानी ताकत, खुद की तब्दीली, दुनियादारी से ऊपर उठना, औरों से नाता रखना, ज़रूरत्मंदों की मदद करना, आदि भलाइयों की राह में चलने के लिए रमज़ान का सुनहरा मौका भारत देश व समूचे इन्सानी समाज के लिए भी काम आयेगा, यही लेखक की उम्मीद है।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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