महिलाओं की भूमिका से देश व समाज बेहतर बने
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस
/ 8 मार्च 2021
महिलाओं की भूमिका
से देश व समाज बेहतर बने
फादर डॉ. एम.
डी. थॉमस
निदेशक, इन्स्टिट्यूट
ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली
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8 मार्च ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के लिए जाना जाता है। 1975 में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने यह परंपरा शुरू की थी। 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राष्ट्रों को भी इस परंपरा को निभाने का न्योता दिया गया था। तब से लेकर पूरी दुनिया में इस दिन को महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। ‘महिला समाज में सही मायने में महिला बनकर रहे’, यही इस दिवस का अहम् संदेश है।
‘नर और मादा’ की कल्पना रचनाकार का सबसे अजब करिश्मा है। इन्सान में यह बात अपनी सारी बुलंदियों में पायी जाती है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि नर और नारी एक दूजे के लिए है और आपस में पूरक हैं। जैसे दो हाथ और दो पैर हैं या दो कान और दो आँखें हैं, ठीक वैसे ही नर और नारी एक दूसरे के साथ मिलकर रहें और चलें, बस, यही खुदा की योजना है। कुदरत की इस तहज़ीब का कदर करना इन्सान के लिए बुनियादी कायदा है।
बात यह भी है कि ईश्वर ने इन्सान को अपनी ही ‘छाया’ में बनाया है। यह छाया पुरुष में ज्यादा और स्त्री में कम हो, ऐसा तो कदापि नहीं हो सकता। ईश्वर की छाया पुरुष और स्त्री में पूरी तरह से बराबर मात्रा में है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि ईश्वर के सामने नर और नारी दोनों की बराबर अहमियत है। इस खुदाई रिवाज़ का नज़रंदाज़ किया जाना भी कतई ठीक नहीं है।
साथ ही, इस दुनिया में जहाँ तक ईश्वर के मौज़ूद होने का सवाल है, वह इन्सान के बनाये हुए बेजान देवालयों में हो, ऐसा तो नहीं लगता। बल्कि वह अपने बनाये हुए जीव में, खासकर इन्सान-रूपी देवालय में, वास करता है। इस नज़रिए से देखा जाय, वह पुरुष में ज्यादा और स्त्री में कम हो, ऐसा भी नहीं हो सकता।
मतलब यह है, नर और नारी दोनो बराबर मात्रा में ‘ईश्वर का जीता-जागता मंदिर’ है। इसलिए स्त्री और पुरुष दोनो ईश्वर के लायक इज़्ज़त के हकदार हैं। इन्सान की इस ईश्वरीय इज़्ज़त की बेइज़्ज़ती हो, यह इन्सानियत और ईश्वरता के खिलाफ एक साथ महाजुर्म है।
यह तो ज़ाहिर-सी बात है कि नर और नारी की अपनी-अपनी वज़ूद है, अपनी-अपनी भूमिका है, और अपना-अपना रूप-रंग भी। उनके शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बनावट और तौर-तरीके में भी फर्क है। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उनमें ऊँच-नीच और बड़ा-छोटा का भाव रखने की कोई गुंजाइश है। आखिर, यह फर्क ही उन दोनों की खासियत है, खूबसूरती भी। सृष्टि की खुदाई किरदार में शरीक होने की विधि भी, बस, यही है।
सच में, नर और नारी आपस में ‘एक शरीर के अनेक अंग’ के समान हैं। बराबरी, साझेदारी, हमदर्दी, तालमेल, आदि की भावना अनेक अंगों को एक शरीर बनाती है। ठीक उसी प्रकार नर और नारी मिलकर इन्सानियत की गरिमा साबित होती है। वे ‘एक सिक्के के दो पहलू-जैसे’ बराबर महत्व के रहें, यही उनकी नैतिक गतिकी है।
रही आदर्श की ये बातें, ज़मीनी हकीकत यह है कि इन्सान की सभ्यता की शुरूआत से लेकर समाज पितृसत्तात्मक रहा है। याने, पिता, पति और बेटा तीनों रूपों में, पुरुष को ही परिवार या समाज का मुखिया माना जाता रहा है। यह भी सच है कि महिला को मुखिया मानने की मातृसत्तात्मक रिवाज़ भी कहीं-कहीं पायी जाती है, खासकर जनजातीय सभ्यताओं में।
लेकिन, कुल मिलाकर देखा जाय, इन्सान के समाज में महिला को कुछ दूसरे दर्जे की मानने की प्रथा बहुत ही आम होती चली है। उसके जायज अधिकार का हनन भी बहुत कुछ निठल्ले से होता रहता है। इस मामले में, कोई-कोई समुदाय और देश बेहतर है और कोई-कोई बदतर। ज़रूरत इस बात की है कि पचास-पचास की फीसदी में बने माँ और बाप दोनों की मिली-जुली ताकत से इन्सानी समाज को एक नयी दिशा और ऊँचाई मिले।
नारी वर्ग से जुड़ी हुई कुरीतियाँ, खास तौर पर भारत में, बहुत ही पुरानी परंपरा बनी हुई है। जैसे बाल विवाह, कन्यादान की सोच, कन्याभ्रूणहत्या, विधवा-विवाह का निषेध, एकतरफा तलाक, परदा और घूँघट की प्रथाएँ, घरेलू हिंसा, पुत्र-मोह, वेश्या-वृत्ति, आर्थिक गुलामी, ऊँच-नीच का भाव, अंधविश्वास का शिकार होना, आदि-आदि। साथ-साथ बलात्कार, क्रूरता, हत्या, आदि की नीच किस्म की घटनाएँ शरीफ इन्सानों के लिए दिल दहलाने वाली ही नहीं, पुरुष जाति के साथ-साथ इन्सानियत को भी बेहद शर्मसार करने वाली हैं।
भारतीय समाज कुल मिलाकर नर-नारी की समानता और विकास के संदर्भ में कोसों पिछड़ा हुआ है। लेकिन, बालिकाओं की पढ़ाई-लिखाई, महिलाओं की नौकरी, खुली सोच, आत्म-निर्भरता, समाज-सेवा, पुरुषों के साथ बराबरी, आदि के कई मामले में, भारत के अल्पसंख्यक समुदायों की हालत कुछ बेहतर नज़र आती है। मैं समझता हूँ, इस बात से सबक लेना महिलाओं की हालत को सुधारने के लिए भारत के बड़े समुदायों के फायदे में है।
जहाँ
तक लिंग अनुपात का सवाल है, कुल मिलाकर पश्चिमी देशों में महिलाओं की हालत अच्छी ही
नहीं, उनकी तादाद भी पुरुषों से अधिक है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत का राष्ट्रीय
आँकड़ा 1000 लड़कों के लिए करीब 940 लड़कियाँ हैं, जो कि उत्तर भारत में कहीं-कहीं
774 लड़कियाँ तक भी हैं। इस मामले में केरल एक मिसाल है, जहाँ 1000 लड़कों के लिए
1084 लड़कियाँ हैं तथा काफी महिलाएँ पुरुषों से भी बढ़ कर कमातीं और समाज की अगुवाई
करती हैं। उत्तर भारत को दक्षिण भारत और पश्चिम से कुछ सीखना ही होगा।
इतना ही नहीं, पूरी दुनिया में, भारत में बहुत ज्यादा भी, महिला की बदतर हालत के लिए ‘धर्म’ ज़िम्मेदार है, कहीं ज्यादा कहीं कम। कई धर्म-ग्रंथों में ऐसी बातें लिखी हुई मिलती हैं जो महिलाओं की बेइज़्ज़ती करती ही नहीं, बेतुकी भी है। साथ ही, उसी तजऱ् पर कई गलत परंपराएँ भी बनी हुई हैं।
इसका मतलब यह है कि धर्म-परंपराएँ बहुत कुछ समस्या के साथ हैं और समाधान के साथ कम। भारत की सभी धार्मिक समुदायों को अपनी-अपनी गिरेबाँ में झाँककर अपने अनाड़ीपन से उबरना होगा और खुदाई योजना के मुताबिक महिलाओं को अपनी जायज जगह देने में पहल करनी होगी। तभी धर्म वास्तव में ‘धर्म’ कहने लायक होगा।
एक और सच्चाई को ज़ाहिर किया जाना बेहद ज़रूरी है। वह है, जहाँ कहीं भी महिलाएँ पिछड़ी हुई हैं, उनकी हालत बुरी है और वे बदतमीज़ी के शिकार हैं, उसके लिए पुरुष ही पूरी तरह से जि़म्मेदार हो, ऐसा तो नहीं है। कई संदर्भ में महिलाएँ भी जवाबदार हैं, किसी-किसी संदर्भ में ज्यादा भी। इसलिए, महिलाओं को खुद का सम्मान करने, अपनी भलाई को समझने, खुद की तरक्की करने, अपना आत्मविश्वास जगाने, अपनी आवाज़ उठाने तथा अपना भविष्य बनाने के तौर-तरीके सीखने भी होंगे।
पूरी दुनिया के साथ भारत में भी महिलाओं की हालत काफी सुधरी है, इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। हाल ही के कुछ आंदोलन, समाज के भिन्न-भिन्न तबकों में मौज़ूदगी, उनकी बुलंद आवाज़, उनका ज़बर्दस्त योगदान, आदि इस बात का सबूत ही नहीं, समाज की बेहतरी की दिशा में उम्मीद की किरणें भी हैं। फिर भी, कुल मिलाकर, पूरी दुनिया के इन्सानी समाज की और खास रूप से भारत की मंजिल अब कोसों दूर है।
बदलाव का पहला कदम परिवार से ही शुरू हो, यही सलीका है। पति-पत्नी, माँ-बाप और लड़के-लड़कियों में बराबरी और आपसी सम्मान की सीख ज़िंदगी की नींव बने, यह ज़रूरी है। विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से ऐसी तहज़ीब उभरे कि देश व दुनिया का सामाजिक जीवन आपसी प्रेम और सम्मान से संतुलित हो सके, यह भी दरकार है।
साथ ही, समाज के सभी तबकों के शासन-प्रशासन के लोग असल में जि़म्मेदार बनें और नैतिक मूल्यों को जीना और लागू करना शुरू करें, मुझे लगता है, देश व समाज की असली तरक्की इसी दिशा में है।
‘अंतर्राष्ट्रीय
महिला दिवस 2021’ एक पुनीत मौका है, जब ऐसा संकल्प हो कि नर और नारी में ‘आपसी सम्मान,
हिस्सेदारी और साझेदारी’ इन्सानी समाज की नीति और तहज़ीब बने। जहाँ-जहाँ बालिका और
महिला पीछे रह गयी हैं या पीछे की ओर धकेली गयी हैं या हाशिये की ओर सरकायी गयी हैं,
वहाँ-वहाँ विशेष ध्यान दिया जाय, यह ज़रूरी है। पुरुष वर्ग को कुछ सँभल जाना होगा,
और महिला वर्ग को कुछ जाग जाना भी। मिल-जुल कर रहने, बढऩे और चलने की ‘साझी संस्कृति’
से ही इन्सानियत की रौनक बनी रहेगी। तभी हमारा भारत देश, पूरा समाज भी, सही मायने में
तरक्की और प्रगति की दिशा में कामयाबी हासिल कर पायेगा।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).
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